शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

उत्पादक रसों में मिलने वाले चार उत्पत्ति-हेतुत्व

मित्र 
मैं जानता हूँ कि आप अकेले में छिपकर ही घूमना पसंद करते हो. 
फिर भी मैं आपकी स्मृति को साथ लेकर इस काव्य जगत में घूमता हूँ. 
आपसे पिछली कक्षा में चार मूल रसों से उत्पन्न चार अन्य रसों के बारे में चर्चा की थी. 
आज उसी बात को कुछ आगे बढाता हूँ. 

नाट्यशास्त्र के व्याख्याकार अभिनव गुप्त ने चार उत्पादक रसों में क्रमशः चार प्रकार का उत्पत्ति-हेतुत्व बताया है.  [उत्पत्ति-हेतुत्व मतलब उत्पत्ति के कारण] 

[१] इसमें प्रथम प्रकार का उत्पत्ति हेतुत्व 
आभास अथवा अनुकृति से सम्बंधित कहा गया है. यह शृंगार में रहता है. 
उदाहरण के लिये 
एक वृद्ध एवं विकलांग नायक तथा षोडशी नायिका का शृंगार तदाभास मात्र बनकर रह जाता है. और उससे रति न उत्पन्न होकर हास ही उत्पन्न होता है. 
इसी से यहाँ शृंगार को हास्य का उत्पादक कहा गया है. 
[सरल उदाहरण : एक बूढ़ा आदमी जवान बनने के सभी हथकंडे अपनाकर किसी किशोरी से प्रेम की क्रियाओं में लिप्त दिखे तो वह हास्यास्पद हो ही जाता है. वह समाज में हास्य की वजह बनता है.] अब समझे गये ना कि शृंगार से हास्य पैदा होता है. 

[२] द्वितीय प्रकार का उत्पत्ति हेतुत्व फल से सम्बंधित कहा गया है. इसकी स्थिति रौद्र में देखी जा सकती है. रौद्र रस का फल या परिणाम किसी का वध या बंधन आदि होता है. ये वध तथा बंधन आदि पीड़ित पक्ष के लिये करुणास्पद हो जाते हैं. इसी से रौद्र से करुण की उत्पत्ति माननी चाहिए.
[सरल उदाहरण : यदि गृह-कलेश के चलते किसी पति ने क्रोध में अपनी पत्नी की ह्त्या कर दी तब ससुराल पक्ष में अथवा सभी सामाजिक व्यक्तियों में शौक (करुण रस) की उपस्थिति देखी जायेगी.] तो समझ गये ना कि रौद्र से करुण जन्म लेता है. 

[३] तृतीय प्रकार का उत्पत्ति-हेतुत्व भी यद्यपि फल से ही सम्बंधित है, पर यह रौद्र वाले उत्पत्ति-हेतुत्व से भिन्न है. इसमें एक रस दूसरे रस को ही फल मानकर प्रवृत्त होता है. इसका उदाहरण वीर रस है, जो अपने उत्साह से जगत को विस्मित करने के ही लिये प्रयुक्त होता है, और फल रूप में अदभुत रस को जन्म देता है. 
[सरल उदाहरण : मुम्बई के ताज हमले में भारतीय कमांडों ने आतंकवादियों को न केवल घुसकर मारा अपितु एक को ज़िंदा पकड़ भी लिया. इस घटना के सीधे प्रसारण ने समस्त भारतीयों के मन में विस्मय का संचार कर दिया.] इस तरह सैनिकों के वीर कर्म को देखकर टीवी दर्शकों के मन में 'वाह-वाह करता हुआ' अदभुत रस अवतरित हुआ. 

एक बात और मित्र, रौद्र और वीर में अंतर समझ लेना जरूरी है ..... जहाँ वीर रस में केवल अपने उत्साह से जगत को अचंभित करना फल माना जाता है वहीं रौद्र रस में शत्रु वध आदि को ही फल समझा जाता है. एक में केवल अपना कौशल दिखाना उद्देश्य है दूसरे में अनिष्ट कर देना ही उद्देश्य है. 

[४] मित्र आपका प्रश्न था कि वीभत्स को कैसे भयानक का उत्पादक कहा गया है? 
अभिनव ने चतुर्थ उत्पत्ति-हेतुत्व को समान-विभावत्व से सम्बंधित बताया है. इसकी स्थिति वीभत्स में देखी जा सकती है. वीभत्स रस के रुधिर-प्रवाह आदि विभाव, मरण, मूर्च्छा आदि व्यभिचारी तथा मुख सिकोड़ना आदि अनुभाव भयानक में भी होते हैं. अर्थात अंगों का काटना तथा खून का बहना आदि देखकर एक पक्ष में भय की भी उत्पत्ति होती है. इसी कारण से वीभत्स रस को भयानक का उत्पादक कहा गया है. 
हाँ यह बात सही है कि हर बार हमारी घृणा (जुगुप्सा) भय में नहीं बदलती. फिर भी दोनों के विभाव, अनुभाव और संचारी भाव एक समान ही हैं. अगली कक्षा में इनके बारे में विस्तार से बताऊँगा.
[सरल उदाहरण : किसी घायल के नासूरों को देखकर अथवा किसी कोढ़ी के गलते अंगों को देखकर अनायास किसी स्वस्थ व्यक्ति के मन में घृणा के भाव आ सकते हैं और परिस्थितिवश  उसे रात्रि को उसके पास रुकना पड़े तो वह भाव भय में भी बदल सकता है.] तो इस तरह वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है. 




शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

पलकों ने खोला दरवाजा


पलकों ने खोला दरवाजा 
तो पुतली ने बोला - "आजा, 
क्यों शरमाते भैया राजा! 
मैं नेह लिये आयी ताज़ा". 

कल सोने से पहले बोली -
"भैया, बन जाओ हमटोली. 
मेरी उठने वाली डोली 
फिर खेल न पायेंगे होली". 

चल खोजें अपना भूतकाल 
मैं रोली थी तुम रवि-भाल. 
भू पर फैला था छवि-जाल. 
पर राका बन आ गई काल. 

हल होने दें सीधा-सादा. 
मैं करती हूँ तुमसे वादा.  
यदि पाऊँगी कुछ भी ज़्यादा 
हम बाँटेंगे आधा-आधा. 

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तुम एक अगर होती तो मैं

[कच-देवयानी का एक प्रकरण : जिसमें कच के देवयानी के प्रति मनोभाव]

तुम एक अगर होती तो मैं
तुमसे ही कर लेता परिणय.
खुद में नारी के रूप सभी
कर लिये आपने पर संचय.


तुझमें देखूँ मैं कौन रूप
मैं असमंजस में बना स्तूप.
तुमको छाया मानूँ अथवा
मैं मानूँ तुमको कड़ी धूप.


मैं दो नदियों के बीच मौन
संगम जैसी पावन धारा.
तुम मलयगिरी की हो सुगंध
मैं हूँ व्योम गंधित तारा.

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

रसों की स्वाधीनता और पराधीनता ................. मित्र से बातचीत

मित्र,

आपको याद होगा आपसे बातचीत में एक बार मैंने रस-चर्चा की थी. और उसमें कुछ मूल और कुछ उत्पन्न रसों के विषय में बताया था. तब मेरा वर्षों से छूटा अन-अभ्यास और आपकी भोजन-प्रतीक्षा के कारण उस चर्चा से मिल रहे बतरस-सुख का भंग हो गया था. आज उस पाठ को दोहराता हूँ.

नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने शृंगार, रौद्र, वीर, तथा वीभत्स; इन चार रसों को उत्पादक अर्थात मूल रस माना है. शेष चार हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक को क्रमशः उक्त रसों से उत्पन्न होने वाला कहा गया है.

शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अदभुत तथा वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है. एक तालिका के द्वारा हम इसे फिर से समझते हैं :

स्वाधीन रस ___________________________ पराधीन रस

....शृंगार ................................................................. हास्य ....

......वीर ................................................................. अदभुत ....

..... रौद्र .................................................................. करुण .....

..... वीभत्स .......................................................... भयानक .....

जो शृंगार की अनुकृति है वही हास्य रस कहा जाता है, जो रौद्र का कर्म है वही करुण रस है तथा वीर का कर्म अदभुत रस है. साथ ही, वीभत्स का दर्शन ही भयानक रस कहा जाता है.

मित्र, आगे बढ़ने से पहले, अब प्रयुक्त शब्दावली में जो जटिलता हो पहले उसे पूछ लेना. और फिर जो मन में प्रश्न उठते हों उनका निवारण कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा.

इतना विश्वास जानो कुछ ही समय पश्चात आपसे एक श्रेष्ठ कविता का सृजन करवा ही दूँगा. बस आप धीरे-धीरे मेरे साथ इस काव्य-जगत में घूमते रहो.

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

काव्य-चर्चा .............. मित्र से बातचीत

प्रिय जिज्ञासु मित्र विचारशून्य साधक दीप जी, 
मैं नहीं चाहता मेरी शृंगारिक शैली आपको क्षणिक हर्ष देकर आपके जीवन का अनमोल समय क्रय कर ले. फिर भी चाहता हूँ कि आप कभी काव्य-जगत में घूम कर तो देखें, जाने की इच्छा न कर पायेंगे. 
आप कहते हैं कि आपने कवितायी और अलंकारों की दीवारों के पार कभी नहीं झाँका. मैं आपको इन ऊँची दीवारों के पार लिये चलता हूँ. आपकी यह यात्रा सीढ़ी-दर-सीढ़ी होगी मतलब धीरे-धीरे.
इस दौरान मैं केवल उन काव्यशास्त्रीय आचार्यों की बात ही दोहराऊँगा जो स्थापित हैं. यदा-कदा मेरी स्थापनाओं की मौलिकता के दर्शन भी होंगे जिसका किसी कौने में उल्लेख भी करता चलूँगा.
तो आज से तैयार हैं ना आप? यह काव्य-पाठशाला काव्य-रसिकों के लिये भी खुली हुई है.  
_______________________.
अभिमान से रति का जन्म होता है और जब रति व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट होती है 
तब उसे शृंगार रस कहते हैं. 


मित्र, पहले स्थायी भावों के बारे में जान लेते हैं...
— सुख के मनोकूल अनुभव का नाम ............... रति है.
— हर्ष आदि से मन का जो विकास होता है ............ हास है. 
— प्रिय के विनाश से मन की विकलता ............... शोक है. 
— किसी शोकातिशायी वस्तु के देखने से उत्पन्न चित्त विस्तार ............ विस्मय है. 
— किसी प्रतिकूल परिस्थिति में समुत्पन्न तीक्ष्णता ............ क्रोध है.
— ह्रदय में उत्पन्न पौरुष ............... उत्साह है. 
— किसी चित्र अथवा भयंकर दृश्य को देखने से चित्त की व्याकुलता ........ भय है. 
— गंदी वस्तुओं के निन्दात्मक भाव .............. जुगुप्सा हैं. 


— निर्वेद संचारीभाव का उल्लेख फिर कभी करेंगे. 
     साधु भावों  को सामाजिक भावों से पृथक रखना ही श्रेयस्कर है. 

रविवार, 26 सितंबर 2010

हम से मत मिलो अरी बाले!

"स्नेहित कम केश क़तर काले. 
हम से मत मिलो  अरी बाले! 
लज्जित ललाम लोचन के निज 
तारक ने  तोड़ दिये ताले." 

"स्वनज निज मीत प्रीत पाले 
शब्दों में मुझको उलझाले. 
यदि रहें ना तारक नयनों में 
तो मैं प्रस्तुत, मुझको ला ले."

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

आनंद गंध

अहा! हो गयी अब ह्रदय में 
दुःख चिंता शंका निर्मूल. 
हृत वितान में घूमा करती 
दिव करने वाली सित धूल. 


नहीं शकुन अपशकुन जानती 
अड़चन हो चाहे दिकशूल. 
जब आनंद गंध फैली हो 
बंद नहीं हो सकते फूल. 

बुधवार, 22 सितंबर 2010

नव रस के तुम ही रसराज

द्वय पक्षी होकर भी रति का 
बना हुआ स्वामी शृंगार. 
विप्रलंभ संयोग दलों का 
ये कैसा अश्रुत सरदार. 


एक पक्ष में मिलन, दूसरे 
में बिछडन का है व्यापार. 
संचारी त्रयत्रिंशत जिसमें 
करते रहते हैं संचार. 


और नहीं रस ऐसा कोई 
जिसमें सुख-दुःख दोनों साथ. 
बस केवल रति का ही स्वामी 
जो अनाथ का भी है नाथ. 


हे हे शृंगार! है हर मन में 
तेरा ही प्रभुत्व तेरा ही राज. 
अंतहीन विस्तार आपका 
नव रस के तुम ही रसराज. 


मंगलवार, 21 सितंबर 2010

पेचीदा खेल

मिला पहले दिन ही आभास 
आपके आने में उल्लास. 
छिपा देता मुझको संकेत 
बसाना है अब प्रेम-निकेत. 


बहानों का हो पर्दाफ़ाश 
पता चल जाएगा क्यों वास.
किया क्या करने को उत्पात 
बोलते हो क्यों मीठी बात. 


हर्षता का  पीड़ा से मेल 
खेलते क्यों पेचीदा खेल 
छलावा देकर मुझको आप 
बंद हो जाओगे उर-जेल. 

सोमवार, 20 सितंबर 2010

हृल्लास-मूल

जीने से मरना लगे भला
कविता ने कवि को बहुत छला.
हिचकियाँ जिलाया करतीं जो
वो आज घोंटती स्वयं गला.


कारण कवि को कल्पना साथ
पाया कविता ने आज मिला.
पर कलम हाथ में नहीं देख
स्मृतियाँ कम्पित कर गईं हिला.


अब, हाय-हाय हृल्लास मुझे
मारेगा मेरे दोष दिखा.
क्या ह्रास करूँ हृल्लास-मूल
कौटिल्य भाँति मैं खोल-शिखा.

शनिवार, 18 सितंबर 2010

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?
जिसमें ना वय संशयमय हो.
कहने में पिय जैसी लय हो.
जिसकी हिय में जय ही जय हो.

या बहूँ धार में धीरज खो?
तज नीति नियम नूतनता को.
बस नारी में देखूँ रत को?
रसहीन करूँ निज जीवन को?

क्या सहूँ ह्रदय की संयमता?
घुटता जाता जिसमें दबता.
नेह, श्रद्धा, भक्ति औ' ममता
क्या छोड़ सभी को सुख मिलता?

अय, कहो मुझे तुम भैया ही.
मैं देख रहा तुममें भावी
सपनों का अपना राजभवन.
तुमसे ही मेरा राग, बहन.

किस तरह समय में परिवर्तन
आयेगा — ये कैसे जानूँ?
संबंध आपसे जो अब है
बदलेगा — ये कैसे मानूँ?

सब रूप आप में ही अवसित
दिखते हैं मुझको नारी के .
क्या करूँ आपको मैं प्रेषित
हिय भाव सभी संचारी के?


शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

अय पौन! कौन हो? सच कहना

ये कौन केश में हाथों की
उँगली सब डाले सहलाता?
ये कौन देह को छूकर के
चोरी-चोरी है भग जाता?

ये कौन गाल पर अधरों का
मीठा चुम्बन है दे जाता?
ये कौन ह्रदय से क्लेशों को
छीने मुझसे है ले जाता?

ये कौन मौन होकर अपनी
सुन्दर बातों को कह जाता?
अय पौन! कौन हो? सच कहना.
क्या हो मेरी प्यारी बहना?


मंगलवार, 14 सितंबर 2010

शटल-चरित्र

है शुष्क नहीं बाहर का तल
ये समझ चुका है अंतस्तल. 
मैं तो भीतर की बात करूँ 
संवादों में ना है 'कल-कल'. 

'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल. 
जो शुष्क हो रहा है पल-पल, 
पिघलेगा नहीं तो झेलेगा 
संवादों की बौद्धिक दलदल. 

दलदल का बाहर स्निग्ध पटल
दृग फिसल रहे, पग नहीं अटल. 
मनोरंजन ही करता 'चरित्र' 
बनकर दो रैकेट बीच शटल. 

एक नया रूपक : 
* 'स्त्री-बौद्धिकता' मतलब 'शटल चरित्र' 
जब कोई स्त्री बुद्धि-प्रधान बातें करती है. तब वह वैचारिक-भूमि पर पुरुष बुद्धियों के रैकटों के बीच शटल कोक की तरह मनोरंजन देती है.

** 'दलदल का बाहर स्निग्ध पटल' : 
एक दलदल ऎसी भी जिसकी ऊपरी परत फिसलन भरी हो और अंदरूनी दलदली हो. 
दोहरा नुकसान, हलकी हों तो जाने से फिसल जाएँ. भारी हों तो जाने से धँस जाएँ. 
पहले हलकी [दृष्टि] गयी, फिसल गयी.  
बाद उसके भारी-भरकम कदम बढ़े, वे भी धँस गये.

*** 'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल.
.... इसे बाक़ी तीन पंक्तियों से अलग पढ़ना है, एक सूत्र की तरह. 

[दिव्या जी द्वारा पिछली पोस्ट में की गयी काव्य-टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया]

सोमवार, 13 सितंबर 2010

मत करो स्वयं को शुष्क शिला

मत करो स्वयं को शुष्क शिला 
मेरे नयनों से नयन मिला. 
फट पड़े धरा देखूँ जब मैं 
तुम हो क्या, तुमको दूँ पिघला. 


संयम मर्यादा शील बला 
तेरे नयनों में घुला मिला. 
फिर भी चुनौति मेरी तुमको 
मैं दूँगा तेरा ह्रदय हिला. 


मैं कलाकार तुम स्वयं कला 
तुम तोल वस्तु मैं स्वयं तुला. 
तोलूँगा तुमको पलकों पर 
चाहे छाती को रहो फुला. 


'मंजुल मुख' मेघों में चपला 
मैं आया तेरे पास चला. 
मंजुले! खुले भवनों में क्यों 
तुम भटक रहीं निज भवन भुला. 

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

हमने है ले लिया क्षणिक सुख

हमने है ले लिया क्षणिक सुख
देख आपको फिर प्रफुल्ल.
जब थे नयनों से दूर बहुत
यादें करती थीं खुल्ल-खुल्ल.


हम दुखी रहे यह सोच-सोच
तुम बैठ गये होकर निराश.
अथवा आते हो नहीं स्वयं
भयभीत कर रहा नेह पाश.


जैसे बदले हैं भवन कई
तुमने दो-दो दिन कर निवास.
वैसे ही क्या अब बदल रहे
चुपचाप छोड़ निज उर-निवास.


फिर भी लेते हैं ढूँढ नयन
तुमको, चाहे कर लो प्रवास.
होते उर में यदि भवन कई
तुम भवन बदलते वहीं, काश!

शनिवार, 4 सितंबर 2010

प्रेमोन्माद

'राहत' 
कैसे पाऊँ दुःख में 
आँसू सूखे खेवक रूठे 
नयनों की नैया डूब रही 
पलकों के बीच भँवर में. 


'आहत' 
तस्वीरें रेंग रहीं 
तन्वंगी आशाएँ बनकर 
तम, छाया है या निशामयी 
जीवन ठहरा है मन पर?


'चाहत' 
की चमड़ी ह्रदय से 
उतरी है तेरी यादों की 
मन पर मांसज-सी चिपकन है 
चमड़ी चढ़ती उन्मादों की. 



[प्रेम में असफल हुए एक पागल-प्रेमी की मनोदशा का चित्र]
इसमें कुछ पंक्तियों में अनुप्रास का छठा भेद 'अन्त्यारम्भ अनुप्रास' है. 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे

कैसे आता मैं मिलने को
सब मेरा रस्ता रोक रहे.
अपशकुन हुआ आते छींका
कुछ रुका, चला फिर टोक रहे.


मन मार चला बिन ध्यान दिए
ठोकर खाईं पाषाण सहे.
पर मिलना था स्वीकार नहीं
ईश्वर भी रस्ता रोक रहे.


पहले भेजा उद्दंड पवन
करते उपाय फिर नये-नये.
दिक् भ्रम करते कर अन्धकार
पहुँचा वापस वो सफल भये.


विधि के हाथों मैं हार गया
'दिन हुआ दूज' खग-शोर कहे.
फिर भी निराश था मन मेरा
"प्रियतमे, मेघ घनघोर रहे."


*'रस्ता' शब्द का सही शब्द 'रास्ता' है. कविता में मुख सुविधा के लिये रस्ता शब्द लिखा है. 
[अंतिम पंक्ति में अनुप्रास का छठा भेद 'अंत्यारंभ अनुप्रास' है. प्रचलित पाँच भेदों से अलग तरह का भेद जिसमें 'जिस वर्ण पर शब्द की समाप्ति होती है उसी वर्ण से अन्य शब्द का आरम्भ होता है.'] 
यह छठा भेद 'मेरी काव्य-क्रीड़ा' मात्र है. इसे आप लोग ही मान्यता देंगे. 

सोमवार, 23 अगस्त 2010

पिकानद-व्यवस्था

[जब चारों तरफ पानी ही पानी भर गया हो, कई प्रान्तों में बाढ़ आ गयी हो, ऐसे समय में सौन्दर्य के दर्शन कहाँ करूँ.]

जब जानबूझकर बादल ने
बाधा ऋतुओं को पहुँचाई.
"ओ भैया, मेरे सुनना तो!"
ऋतुएँ सारी ये चिल्लायीं.  

"पहले बरसा फिर घेर लिया
वसुधा पर पानी फेर दिया
सुध-बुद अपनी खोकर जल में
हमसे मनचाहे मेल किया."

"वर्षा तो इतनी चंचल है
पानी में ही घुस जाती है
वह हम सबको बिन घबराये
नित अपने पास बुलाती है."

"हम पाँचों ऋतुएँ घबरातीं
बस फिसलन से हैं डर जातीं
हेमंत शरद औ' शिशिराती*
सविता से ही नय्या पातीं."

'गरमी' के तन से स्वेद चला
बस अंत करो अपने डर का
ऋतु-राज 'पिकानद'-व्यवस्था*
टूटी तो रव होगा हर का.


शब्दार्थ :
'शिशिराती' — 'गरमी' ने 'शिशिर' को संबोधन में बोला शब्द.
'पिकानद'-व्यवस्था — ऋतुराज 'बसंत' की व्यवस्था
रव — हो-हल्ला, शोर-शराबा
[चिल्लाने के अतिरिक्त जो भी शिकायत भरे संवाद हैं 'गरमी' ने बोले हैं.]

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

छायावाद

जब झिझक हो
संकोचवश —
कुछ कह न पाओ.
जब ह्रदय की
बात को
तुम जीभ पर
बिलकुल न लाओ.
जब ह्रदय में
कोई कर ले
घर
बिन पूछे बताये
और तुम
उसको छिपाओ.
सच्चाई कहते
जब लगे
डर
हर बात को
थोड़ा घुमाओ.
न भटको
सत्य से
पर सत्य का
आभास तुम
सबको कराओ.
पाओगे तब
हो गई
अनुकूल
जलवायु — छायावाद को.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

"क्यू"

इन नयनों का इतिहास आपका सरल नहीं लगता दुरूह.
नर्तन विस्फारित नयन करें क्यूँ सम्मुख शिष्यों के समूह.
आँखों की भाषा सरल समझ आने वाला सौन्दर्य-व्यूह.
पर समझ नहीं पाता जल्दी उदगार आपके मैं दुरूह.
सुन कथन आपके मैं सोचूँ — "माँ सरस्वती में कौन रूह".
श्रद्धा के शब्दों की हृत में पूजा करने को लगी 'क्यू'.

[मैं हिंदी ओनर्स का विद्यार्थी कोलिज के दिनों में जब एक बार गलती से इतिहास की कक्षा में जा बैठा तो वहाँ
डॉ. पूजा जी हिस्टरी ओनर्स के स्टुडेंट्स की क्लास ले रहीं थीं. माध्यम इंग्लिश था. मेरे जो समझ आया मैंने वह कार्य करना शुरू किया. यह कविता इसी का नतीजा है.]

एक पुरानी रचना

शनिवार, 14 अगस्त 2010

प्रेम-आगमन

संयम की प्रतिमा बन जाओ
जितनी चाहे जड़ता खाओ
आगमन हुवेगा जब उसका
भूलोगे अ आ इ ई ओ.

दृग फेर आप मुख पलटाओ
या निर्लज हो सम्मुख आओ
पहचान हुवेगी जब उससे
सूझेगा केवल वो ही वो.

मन की बातें न झलकाओ
पीड़ा को मन में ही गाओ
उदघाटित हो जाएगा जब
हँसेंगे सब हा-हा हो-हो.

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मेरा कल्पना-पुत्र

इस कविता की गति अत्यंत धीमी है, इसे जल्दबाजी में ना पढ़ जाना, अन्याय होगा.

शून्य में मैं जा रहा हूँ
कल्पना को साथ लेकर.
भूलकर भी स्वप्न में
जिस ओर ना आये दिवाकर.
मैं करूँगा उस जगह
निज कल्पना से तन-प्रणय.
जिस नेह से उत्पन्न होगा
काव्य-रूपी निज तनय.
मैं समग्र भूषणों से
करूँगा सुत-देह भूषित
और उर को ही करूँगा
प्रिय औरस में मैं प्रेषित.
मात्र उसको ही मिलेगी
ह्रदय की विरह कहानी
और उस पर ही फलेगी
कंठ से निकली जवानी
रागनी की, व्यथित वाणी.
भूलकर भी मैं उसे
ना दूर दृष्टि से करूँगा.
सृष्टि से मैं दूर
काव्य की नयी सृष्टि रचूँगा.

[औरस — समान जाति की विवाहिता स्त्री से उत्पन्न (पुत्र)]

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

केश-विन्यास

चोरी-चोरी केशकार से
करवा लेती है विन्यास
केशों का, जो बिखर गये थे
आगे उसके मुख के पास.


पता चलाने पलक ओट से
देख रहे हैं मेरे दास
नयनों में जो छिपे हुए थे
लेकर करुणामय विश्वास.


मारुत-नापित ही सविता के
केशों का करता विन्यास
पता लगाया तब नयनों के
तारों ने, जब हुआ निराश.

[केशकार — केश संवारने वाला या वाली, नाई;
मारुत — वायु, हवा;
नापित — नाई, केश काटने-छाँटने-संवारने वाला;
सविता — सूर्य
विन्यास — सँवारना]


प्रसंग :
कवि एक समय प्राकृतिक छटा के सम्मुख बैठा विचारमग्न था कि सविता के सौन्दर्य का क्या रहस्य है? वह प्रातः और सांय क्यों इतनी सुन्दरता को प्राप्त हो जाती है? वह इन्हीं प्रश्नों के समाधान के लिये सुबह-शाम सविता को निहारता रहता. तब उसे दिन ज्ञात हुआ कि :


व्याख्या :
जब भी सविता मुख के पास उसके केश (घटाएँ) फैलकर उसके सौन्दर्य को छिपाते हैं तब-तब सविता केश सँवारने वाले नापित (मारुत) के पास अपने केशों के प्रसाधन हेतु जाया करती है.
इन बातों को जानकार कवि के दास (नयनों के तारक) अपना कर्तव्य समझकर पलक की ओट में कारुणिक मुद्रा में इस  विश्वास से खड़े रहे कि अब सविता सौन्दर्य का रहस्य उदघाटित हो जाएगा. अंततः नयन तारक अपने अभियान में सफल हुए.
नयन-तारकों को पता गया कि मारुत-नापित ही सविता के केशों को संवारकर उसके सौदर्य में वृद्धि करता है. वही घटाओं को इधर-उधर करके प्रातः और संध्या को सविता-सौदर्य में प्रतिदिन भिन्नता लाता रहता है.

बुधवार, 11 अगस्त 2010

भानु-भामिनी

वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी.
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.

नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.

मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनाना चाहे तिया, कामिनी.

[ वियत — आकाश;
प्रतूलिका — गद्दा;
अभ्यागत — अतिथि;
भानु-भामिनी — सूर्य क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति;
यामिनी — रात्रि;
कंज — कमल;
कंदर्प — कामदेव;
अंध — गहन;
दर्पक — कामदेव, अभिमानी;
द्विज-दर्पण — चन्द्रमा रूपी दर्पण;
द्विज मतलब जिसका दो बार जन्म होता हो; अंडज प्राणी, पक्षी, सर्प; चन्द्रमा; ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो - ये सभी द्विज कहे जाते हैं.
तिया — स्त्री, पत्नी;
कामिनी — कामयुक्ता स्त्री ]
व्याख्या : आकाश में काले मेघों के गद्दे पर 'भानु' नायिका क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति लेटी हुई सोच रही है — "यदि 'रजनी' अप्सरा बिना सूचना दिए [अर्थात अतिथि बनकर] आयी तो मैं उससे प्रतिकार लूँगी. क्योंकि वह हमेशा वसुधा पर रहने वाले प्रेमियों के हृदयों पर कमल मुकुलित करती [हृदयों को उत्तेजित करती] हुई अपने 'कामदेव' नायक के साथ अंग-प्रदर्शन करती हुई गहन रात्रि में नृत्य करती है."
इस बात की प्रमाणिकता के लिये 'भानु' नायिका सोचती है — "यदि इसमें तथ्य है तो मैं चन्द्रमा रूपी दर्पण से कामदेव के साथ नाचने वाली उस लज्जाहीन रजनी [अप्सरा] को देखूँगी. मैं यह भी पता लगाऊँगी कि क्या वह रजनी [काम्युक्ता स्त्री] मेरे प्रियतम कवि की स्त्री होना तो नहीं चाहती?"
[ मेरी स्मृति में बसे रहने वाले प्रिय मित्र धर्मराज अमित शर्मा जी को समर्पित]

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

साखी

मुझे तुमने माना है क्या?
बताना है तुमको अथवा
समझ जाऊँगा राखी पर
पिया या प्यारा-सा भैया.

आपका आँचल हरा-भरा
सदा लहराता है, पुरवा!
आपका यौवन छिपा-छिपा
हमीं पर करता है धावा.

अरी! जब आँचल हरा ज़रा
राह चलते पर छू जाता
आपका, नख से शिख तक का
हमारा गात काँप जाता.

बांधनी है तो बोलो री
हमारे हाथों पर राखी.
न देखो अब चोरी-चोरी
सभी शरमाते हैं साखी.


ये बोल एक वृक्ष मदमाती वायु से बोल रहा है जिसका आँचल हरियाली है.

[साखी — वृक्ष, यहाँ शाखाओं वाले को साखी कहा गया है]
जब तक अपरिचय रहता है तब तक सम्बन्ध निर्धारण नहीं होता. इसलिये मनोभावों के स्वच्छंद पक्ष को रखने का प्रयास करते भाव. आरोपण प्रकृति पर किया गया है.

रविवार, 8 अगस्त 2010

काव्य का खेल

काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.


निकली है मेरे भावों की
अरथी हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.


भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज खेला है मेरी गेल
प्रभु, अब क्या होगा, कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

स्वागत नयी कल्पना का

होना चाहता है अब
इतस्ततः भटकने के बाद
ह्रदय का 'काम' — एकनिष्ठ.

इतराया घूमे था पहले
साधू संन्यासी बनकर
संयम हमारा — वरिष्ठ.

हुआ था सिद्ध
स्वयं की दृष्टि में भी
कुछ समय को वह — बलिष्ठ.

किन्तु, दोनों बाँह फैलाये
करता है स्वागत कौन?
नयी कल्पना का, होकर — उत्तिष्ठ.

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

मुस्कान

दौकल* अदभुत मुख-द्वार धवल
सारथी एक मुस्कान, श्रवन
तक खींच रहे द्वय-छोर-तुरग*
हँसि दिखी हटे जब दन्त-वसन*.

रथ रुका रहा बढ़ गया रथी*
रथपति* ने पायी वीर-गती*.
अरि-कथन* श्रवन में छिपा-छिपा
ललकार रहा हा-हहा-रथी!

[दौकल — कपड़े से ढका हुआ रथ.
रथपति — सारथी (मुस्कान से तात्पर्य)
अरि-कथन — वह शत्रु जो रथी (हँसी) को उत्तेजित (निःसृत) करने का कारण है.
द्वय-छोर-तुरग — मुस्कान के छोरों रूपी अश्व.
दन्त-वसन — अधर, रथ द्वार का पर्दा.]
{हँसि, गती में मात्रिक छेडछाड छंद के कारण से}

बुधवार, 4 अगस्त 2010

कूप-सी आँखें


नयन में बन गया है चित्र सीधा देख लो प्यारी.
लिखा उलटा दिखे सीधा चमकती आँख में म्हारी.
रहो विपरीत मुख फेरे न आओ पास में मेरे.
मुझे मुख दीखता फिर भी पियारा, पीठ में तेरे.
हमारी कूप-सी आँखें तुम्हारा बिम्ब पाकर के.
उसे सीधा किया करतीं तुम्ही से दूर रहकर के.

[प्रिय हरदीप सिंह राणा जी 'म्हारी' शब्द से याद आये.]

सोमवार, 2 अगस्त 2010

मुख अम्लान

श्याम लोचन विस्फारित लोल
मधुर लगते तेरे सब बोल
गीत गाते जो तुम चुपचाप
सुना करता कानों को खोल.

याद है मुझको पहली बार
छींट से देकर मैंने चार
किये थे अपने दोनों नयन
आपसे खुलवा चख के द्वार.

घने नभ में छाये थे मेघ
टपाटप बूँदों को मैं देख
रहा था, तेरा मुख अम्लान
तुरत चमकी चपला-सी रेख.

[गगन में मेघ घिरते हैं, किसी की याद घिरती है... ...अज्ञेय]

रविवार, 1 अगस्त 2010

स्मृति-सोना

चोरी हुई
मेरे जीवन की
बीती यादें चली गईं.
पास मेरे अब फिर आयी हैं
छलने, यादें और नयी.

चोर वही
जिसको देनी थीं
सारी प्रिय यादें अपनी.
पर वह संयम न कर पायी.
यादें मेरी छीन ले गयी.

शोर नहीं
मैं कर पाया था
रो भी न पाया रोना.
मैंने वापस लिया उसे जो
छीना था स्मृति-सोना.

और कहीं
कैसे मैं दे दूँ?
यादों का अपना संग्रह.
नहीं चाहता मैं औरों के
गृह में कर दूँ तम-विग्रह.

भोर गई
संध्या हो आयी
पाने फिर स्मृति-सोना.
वह आयी मेरे पास बोल —
"भैया! मुझको दिखला दो ना!"

एक यही
बस कमज़ोरी है
जो कह देता है 'भैया!'
रुक न पाता हाथ मेरा
देते में, बनकर के भैया.

[स्मृति-सोना — सुखद मूल्यवान चमचमाती स्मृतियाँ]

शनिवार, 31 जुलाई 2010

कवि और श्रोता

कवि की
निज कल्पना से
कर रहा यह कौन परिणय?
या सतीत्व भंग करती
स्वयं सती कल्पना मम?

छवि ही
निज वासना से
मगन है मदमत्तता में?
किवा विवशतावश पड़ी
बाहें अपरचित कंठ में?

भड़की
कवि की लेखनी
तब ईर्ष्या और क्रोध से.
पर शांत हो पूछा कवि ने
अये! अपरचित कौन हो?

***
"कवि! मैं
छवि का दास हूँ.
मैं श्रोत का प्रयास हूँ.
पर अय कवि!
क्यों कर बनी है कल्पना सुवासिनी^."

"क्या कल्पना-छवि देखना ही
बस हमारा काम है?
क्या कल्पना की क्रोड़ में
निषिद्ध निज आराम है?"
***

[*श्रोता का कवि को स्पष्टीकरण और उससे प्रश्न  ]
[^सुवासिनी — पिता या पति के घर रहने वाली अक्षता नवयुवती/ सधवा स्त्री ]

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कपोल-लली-२

खोलो अवगुंठन नहीं लली
तुम हो कपोल की कुंद कली.
लावण्य लूटने को मेरी
आँखें बन आती आज अली.

ओ रूप-पराग-गर्विते! सुन,
तुम अवगुंठन में बंद भली.
मत सोचो कभी निकलने का
बाहर बैठे निज नयन छली.

[कपोल-लली — लज्जा, अली — भ्रमर]

बुधवार, 21 जुलाई 2010

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे
पढ़ सकूँ भाव मुख के तेरे.
चाहूँ देखूँ तुम को लेकिन
बैठा हूँ मैं मुख को फेरे.

अनुमान हाव-भावों का मैं
मुख फेर लगाता हूँ तेरे.
सौन्दर्य आपका है अनुपम
संयम को घेर रहा मेरे.

लेता है मेरा ध्यान खींच
बरबस लज्जा-लूतिका* जाल.
लगता है चूस रहा तेरा
रक्तपा*-रूप निज रक्त-खाल.

* [रक्तपा – जोंक, खून पीने वाली, डायन, पिशाचन; लूतिका – मकड़ी]

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दीप-सत्ता आयेगी

निश्चित निकलकर
कुछ समय के बाद मेरे कंठ से
निज चित्त की अतृप्तियों को
तृप्त कर पहनाएगी.
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.

भविष्य की प्रतीक्षा में
स्नात होते वाक्-पथ.
नेह-पुष्प-वाटिका में
रुक गए हैं काम-रथ.
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
दिक् दर्शिका के नाम से
दिखायेंगी आकाश को.
................... दीप-सत्ता आयेगी.

[*अमित जी! अर्थ नहीं बताउँगा, बताया तो अन-अर्थ हो जाएगा.
अनायास डॉ. अमर जी स्मृति भी हो आयी, मंगलवार जो है. उन्होंने मंगल का दिन चुना है काव्य-रस पान के लिये. ]

रविवार, 18 जुलाई 2010

अवगुंठित विभायें

क्यों छिपा रखा है घटाओं ने शशि को?
रोक क्यों रखा पहाड़ों ने हवा को?
क्यों दबा रखी हैं ह्रदय ने कल्पनाएँ?
......................... क्या प्यार है उनसे सभी को?

ओढ़ रखी क्यों धरा ने तन पर चादर?
पहन क्यों रखा निशा ने तिमिर-लहँगा?
डाल क्यों रखा नयन ने पलक-पर्दा?
......................... क्या लाज आती बिना उनके?

कंठ डाली है प्रभा ने अंशुमाला.
लाद सिन्धु ने रखा है पानी खारा.
समेट रखी फूलों ने सुगंध सारी.
......................... क्या गर्व होता निज गुणों पर?

भरा है मेरी भुजाओं में अमर बल.
मोड़ सकती कलम मेरी काव्यधारा.
यशस्वी होकर दिखा सकता अभी मैं.
......................... मैं प्रतिभा ना छिपाना चाहता.

आलोचना-प्रत्यालोचना

कलम-कुल में भी हुई कलह!


................सुधामय सुविचारों की लय
................हुई तो फ़ैल गई अतिशय
................गंध, मलयाचल से जैसे
................चली आई हो मारुत मौन.

................सभी को भली लगी लेकिन
................कुछों ने मुख टेड़ा कर लिया
................कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
................हमीं ने गंधी को भेजा.


[वैसे कलह मानसिक शान्ति को समाप्त कर देती है. लेकिन कलम परिवार की कलह से साहित्यिक-प्रेमी, काव्य-रसिक, बतरस-पायी सभी आह्लादित होते हैं. आलोचना का अपना एक सुख है, बस आलोचना तार्किक हो, किसी(लेखक) के विचारों में आलोचना ही वह माध्यम है जो पाठक को भी रचना में भागीदार बना सृजन का सुख देती है.]

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

तरल नयन*

सजल नयन मनहुँ सरित.
युगल पलक जनहुं पुलिन.
सजन सुमिरन नित बहित.
शिथिल तन पर मुख मलिन.
अधर हुलसत तन सिहर.
लटकत लट कमर तलक.
उर पर उग युगल कमल,
कस फिर-फिर निखिल वसन
सतत विकसित, मद शयन.
चकित पिय अवनत नयन.

[*तरल नयन — वह वर्णवृत जिसमें 4 नगण हों अर्थात 12  मात्राएँ हृस्व स्वर की हों.  प्रत्येक चरण में ऐसा हो. ]

सोमवार, 12 जुलाई 2010

उषा नयन-बाण

तारकों-सी तरुणियों के
प्रभावान हृदयों को
तुष्ट करने के लिये
उनके निशा-से पीड़कों को
दूर करने के लिये
अमर्ष-हास रूप धर
व नयनों की शिंजनी में
तनाव तनिक दे दिया
करते हुए विभीषिका
न चाहत की मारने की
निशा-सी व्यथाओं को
मृषा की पियाओं को
क्योंकि तारक-तरुणियों का
निशा-सी व्यथाओं में
अचल भान होता है.

तब भाग निशा प्राची से
छिप गयी प्रतीची में
पर, ताव अधिक देने से
खंडित हुयी रज्जु, चाप की.

शिंजनी की संधि का
प्रयास शुरू हो गया
किन्तु, हाय! व्यर्थ ही गया.

हा! अंततः ग्रंथि लगी
उषा-कमान-रज्जु में.
अब रोती उडु-तरुणियाँ
देख उषा नयनों को.

[अमर्ष-हास — क्रोध की हँसी; मृषा की पिया — मिथ्या की प्रेमिका]
[विशेष बात — इसमें कर्ता का अंत में उल्लेख आया है.]

शनिवार, 10 जुलाई 2010

तुम मान किये बैठो अपना

मैं संयम में बैठा तम में
तुम मान किये बैठी भ्रम में
मैं आऊँगा लेने तुमको
तुम सोच रही होगी मन में.

है मान तुम्हारा क्षण-भंगुर
मेरे संयम से अब अंकुर
फूटे, यौवन मर्यादा के
उर नहीं मिलन को है आतुर.

घन कोपभवन तेरा अपना
जिसमें पी का देखा सपना
आवेगा लेने संभवतः
तुम मान किये बैठो अपना.

ये मान तुम्हें मरवा कर ही
छोड़ेगा, सुन लो लिपि-शरणा*!
पर नहीं ह्रदय अब टस-से-मस
मेरा होगा, सुन मसि-वरणा*!

[*शब्द संकेत : 'लिपि-शरणा' और 'मसि-वरणा' लेखनी के लिये किये गए संबोधन हैं.]

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कंठ में बाँध रहा हूँ पाश

ह्रदय के कोमल भावों पर
लगाता हूँ फिर से प्रतिबंध.
कंठ में बाँध रहा हूँ पाश
कहीं न फैले नेह की गंध.

किया जब तक तेरा गुणगान
बढ़ाया तुमने मेरा मान.
उलाहना क्यों देते हो अब
किया करते हो क्यों अपमान?

आपसे भी सुन्दर गुणवान
किया करते मुझसे पहचान
दूर कैसे कर दूँ उनको
गाऊँ न क्यों उनका गुणगान?

आप ही न केवल बलवान
रूप, गुण-रत्नों की हो खान.
किया करता सबका सम्मान
सभी लगते मुझको भगवान्.

[ओ प्यारी! प्रेम को आपने समझा नहीं, सो अब मैं फिर से कोमलतम भावों पर प्रतिबंध लगाता हूँ और अपना समग्र माधुर्य कंठ के भीतर ही छिपा रखूँगा, वह भी एक फंदा लगाकर, जिससे उसकी गंध भी बाहर ना आये.]
[ओ प्यारी! जब तक मैं आपके साथ काव्य-सृजन में लगा रहा आप मुझे सम्मान देते रहे, (लेकिन अब यह क्या, मैंने बेड परि-इच्छाओं से नेह क्या किया, आपने मेरे चरित्र पर ही उँगली उठाना शुरू कर दिया, कभी घनानंद के एकनिष्ठ प्रेम की दुहाई देकर, तो कभी स्वयं को द्रोपदी और मेरे क्षणिक प्रेम को उलूपी/सुभद्रा के पार्थीय प्रेम समान अनुभूत कराकर उसे एक प्रकार-से वासनामयी ठहराया.)  आपका ये उलाहना मेरा अपमान ही तो है.] **
[सुनो प्यारी, इस साहित्य जगत में केवल आप ही गुनी नहीं हो, कई और भी है, जो मुझसे पहचान बढ़ाने को उतावले रहते हैं. उन सबको कैसे विस्मृत कर सकता हूँ. मैं उनका गुणगान, उनका बखान क्यों ना गाऊँ. (आपको जलन होती है तो जलो).] 
[प्यारी! आप गुनी हो, रूपवती हो, आप द्वारा सृजित विचार बहुमूल्य होते हैं. फिर भी मैं सभी लेखनियों का सम्मान करता हूँ और सभी में उस ईश्वरीय प्रेरणा का अंश मानता हूँ. इस कारण मुझे सभी ईश्वर लगते हैं.]

{** वैसे अमित जी ने कलम पक्ष से जो बातें रखीं वे कलम-कुल को जीवंत कर रही हैं. उन्होंने मेरी प्यारी की ओर से जो त्यागमयी भाषा बोली, वह प्रशंसनीय है. बाद में तो मसि-सहेली ने एकाकार होने की बात कहकर मन जीत लिया. लेकिन क्रोधवश बाद की बातों पर देर से ध्यान गया. सच हैं कि क्रोध में संतुलन बिगड़ जाता है. हे अमित जी, क्षमा चाहता हूँ, आपने कलम-पक्ष को तो सही से रखा लेकिन मेरा पक्ष बलहीन होकर खड़ा नहीं रह पाया. सो क्रोध को प्रभावी बना दिया. यह एक तरीका है अपनी कमजोरियों को छिपाने का.}

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कवि तो केवल शब्द-भिखारी

[मेरा प्रत्योत्तर]
अरी! रूठ मत मुझसे प्यारी.
भाव नहीं अपना व्यभिचारी.
तुझको ही हर कलम-वपु में
पाया मैंने है संचारी.

एक बेड* शिक्षा-व्यापारी
उनकी परि-इच्छाएँ** कुँवारी
उनके मोह जाल में मैंने
समय दिया था बारी-बारी.

लेकिन तेरी भय बीमारी
अविश्वास करती है भारी.
ह्रदय-वृक्ष के शब्द-फलों का
सार छिपाया सबसे प्यारी.

तुम मेरी स्थूल अर्चना
मैं तेरा हूँ शब्द-पुजारी.
यदा-कदा टंकण से भी मैं
तुझको पूजा करता प्यारी.

मसी-सहेली! अब तो तेरी
पूजा करते अमित-पुजारी.
कवि केवल लिपि-राह चलाता
वो ले जाते चिंतन गाड़ी.

कृष्ण और सुदामा में से
वरण करो ओ लिपि-कुमारी!
कवि तो केवल शब्द-भिखारी
तर्क-वितर्क के अमित-मदारी.

[ *बेड — BEd , **परि-इच्छाएँ — परीक्षाएँ ]

मसी-सहेली का उलाहना  -----------

एहो प्रियवर! रुष्ट हूँ तुम से जाओ
बितायी कहाँ इतनी घड़ियाँ बतलाओ
निज पाणी-पल्लव की द्रोण-पुटिका में भरकर
उर-तरु के मधुर फल का सार किसे पिलाया

मैं वधु-नवेली मिलन आस में सिकुड़ी सकुचाई
भय मन में क्या उनको नगरवधू कोई भायी
भय शमन करो आस पूर्ण करो करो त्रास निर्वाण
कवि आलिंगन मसि का करो हो अमित निर्माण
[अमित जी द्वारा रचित इस कलम-उलाहने के कारण
प्रतिक्रिया भी पाणि-पल्लवों के थिरकन का परिणाम है.]

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मसी-सहेली !

अरी!
अकेली देख तुम्हें
पाणि-पल्लव हिलने लगते.
उर-तरु से शब्दों के फल
आ-आकर के गिरने लगते.

वधु-नवेली बनकर मेरे
पास आप आती सकुचा.
पहले भय, लज्जा फिर मुख पर
मिलन-भाव सकुचा पहुँचा.

मसी-सहेली!
प्रेम किया करता है कवि तुमसे इतना.
नहीं एक पल रह सकता
तेरा आलिंगन किये बिना.

शनिवार, 29 मई 2010

ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन — जिस पर बहस ज़ारी है....

वैचारिक पक्वता लिये मनोविश्लेषक दिव्या जी के विचारों ने लज्जा पर फिर से सोचने को बाध्य किया :

"मेरा पूर्ण विश्वास है कि लज्जा नारी का सौन्दर्य है किन्तु यह उसकी सुरक्षा नहीं है. एक स्त्री का रक्षात्मक कवच उसकी बुद्धिमत्ता तथा सजगता है जो कि शिक्षा, लालन-पालन एवं सचेतना से परिपूर्ण होता है.

आनंदानुभूति के लिये स्त्री को किसी प्रकार के "अलंकरण" की आवश्यकता नहीं होती है. पुरुष द्वारा, स्त्री को मूर्ख बनाए जाने की परम्परा सदियों से जारी है. चाटुकारिता, अनुशंसा, प्रशंसा आदि के द्वारा पुरुष नारी को मानसिक तौर पर कमज़ोर बनाकर उसे अपनी ओर करने का प्रयास करता रहता है. और यह विरले ही देखने में आता है कि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग पुरुष को पहचानने में करे.

उसका लज्जा रूपी कवच ही उसका शत्रु बन जाता है. ऐसे में केवल उसकी बुद्धिमत्ता ही उसे भावावेग से दूर रखते हुए उसकी सुरक्षा कर सकती है.

"बुद्धि" एक सचेत एवं समझदार स्त्री का सर्वोपरि गुण है जो जीवन को हर परिस्थिति में उसकी सुरक्षा करता है. उसे जीवनयापन हेतु किसी प्रकार के अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती है.

उसे अपनी स्थिति का आभास होना आवश्यक है. स्त्री को शिक्षा, ज्ञान तथा सजगता, सचेतता का अर्जन अवश्य ही करना चाहिए. उसे अपने साथ पर गर्व होना चाहिए, उसे स्वयं की प्रशंसा करनी चाहिए उसे स्वयं से प्रेम होना चाहिए. जब कोई स्वयं से प्रेम करता है तो उसे किसी अलंकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती है.

वैसे भी कहा जाता है "सुन्दरता निहारने वाले की दृष्टि में होती है" केवल धीर-गंभीर व सभ्य पुरुष ही नारी में "लज्जा" का भाव उत्पन्न कर सकता है. क्योंकि नारी में नारीत्व जागृत करने की क्षमता केवल एक परिपूर्ण पुरुष [पुरुषत्व से परिपूर्ण] में ही होती है. पुरुष, नारी से सदैव समर्पण चाहता है जो कि उसमें [नारी के प्रति] अन्मंस्यकता का भाव जागृत करता है अथवा ये उसके क्रोध का कारण बन जाता है और वह [नारी] इनकार कर देती है. किन्तु इसके विपरीत प्रेम और परवाह करने वाला [loving and caring] पुरुष नारी को प्रेम की अनुभूति देता है जो नारी को स्वयं समर्पण के लिये उत्प्रेरित करता है, जिसमें समाहित होता है पुरुष के प्रति पूर्ण अटूट विश्वास.

 "survival of the fittest " वही है जिसके पास बुद्धि है और जो सजग है. अतः मात्र "बुद्धिमत्ता" ही मनुष्य का "कवच" है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष".
— ये था दिव्या जी का दिव्य सूक्ष्मतम चिंतन.

[इसे पढ़कर मैंने सोचा एक बार फिर इस विषय पर बहस जारी हो और स्वयं स्त्रियाँ इस विषय पर अपने दिमागी कवच से "लज्जा" सम्बन्धी विचारों को रूप दें. ध्यान रहे भाषा संयत हो, थोड़े में अधिक कहने की चेष्टा हो.]

शुक्रवार, 28 मई 2010

कब तलक रहें हम मौन कहो

कब तलक रहें हम मौन कहो.
कुछ ना कह पाने की पीड़ा.
इच्छा मन में करती क्रीड़ा.
हो आर्तनाद बिन आहट  हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

है कौन प्रेम की परिभाषा.
बिन शब्द व्यक्त होती भाषा.
परिचय ही क्या कुछ शब्द ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.

हो आप कोई भाषा-भाषी.
मुझ पर शब्दों की कुछ राशी.
क्या बात करें जब समझ ना हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


कविता जिव्हा पर आ मेरे.
मैं विवश हुआ सम्मुख तेरे
जब भी मुख पर कुछ रौनक हो.
कब तलक रहें हम मौन कहो.


[अलंकार : 'तेरे' शब्देक अलंकार, जिसे कभी 'दहली दीपक अलंकार' के रूप में जाना जाता था. 'दहली मतलब दहलीज पर रखा दीपक जो अंदर भी प्रकाश करे और बाहर भी उजेला करे. .......और विस्तार बाद में कभी]


"रौनक" : लज्जा से निहतार्थ

गुरुवार, 27 मई 2010

लज्जा के नीड़ में चपलता का बसेरा

अब टिकते नहीं फिसलते हैं
मुख पर जाकर मेरे दो दृग.
पहले रहती थी नीड़ बना
लज्जा, अब रहते चंचल मृग.

चुपचाप चहकती थी लज्जा
बाहर होती थी चहल-पहल. 
चख चख चख चख देखा करते
कोणों को करके अदल-बदल.

अब नहीं रही वैसी सज्जा
औ' रही न वैसी ही लाली.
बस उछल-उछल घूमा करते
मृग इधर-उधर खाली-खाली.

[जब से लज्जा के आवास में चपलता ने डेरा जमाया है लज्जा चहकना भूल गयी है और इस चपलता को नारी की जागृति समझा जा रहा है, बौद्धिकता माना जा रहा है, सहमती और समर्पण में अंतर कर उसे उसके दिव्य गुणों से पृथक करने का प्रयास हो रहा है. 'सहमती' में नारी की गरिमा को और उसके 'समर्पण' में पुरुष के वाक्-जाल को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है.]

बुधवार, 26 मई 2010

ये लज्जा तो केवल संयम

बोलूँ ना बोलूँ ......सोच रही.
बोलूँगी क्या फिर सोच रही.
मन में बातें ...करने की है
इच्छा, लज्जा पर रोक रही.


कुछ है मन में थोड़ा-सा भय.
संकोच शील में होता लय.
पलकों के भीतर छिपे नयन
मन में संबोधन का संशय.


"प्रिय, नहीं आप मेरे प्रियतम
मन में मेरे अब भी है भ्रम
प्रिय हो लेकिन तुम 'प्रिये' नहीं
ये लज्जा तो केवल संयम."


"क्या संयम पर विश्वास करूँ?
या व्यर्थ मान लूँ इसको मैं?
आनंद मिलेगा अंत समय?
क्या संयम देगा लम्बी वय?"

मंगलवार, 25 मई 2010

नर की लज्जा बदरंग गाय

लज्जा नारी का नहीं कवच
लज्जा तो आभूषण कहाय.
लज्जा स्वाभाविक भाव नहीं
लज्जा तो पहनी ओढ़ी जाय.

लज्जा नारी का मूलतत्त्व
फिर भी गुण आभूषण कहाय.
मैंने लज्जा को कवच कहा
मेरी लज्जा अब मुँह छिपाय.

नारी की लज्जा आभूषण
नर की लज्जा बदरंग गाय.
जो दूध बहुत देती फिर भी
मारी पीटी दुत्कारी जाय.

[छंद ज्ञान के समर्थक "ओढ़ी" और "दुत्कारी शब्दों में एक-एक मात्रा घटाकर भी लिख-पढ़ सकते हैं]

शनिवार, 22 मई 2010

कवच [एक चित्र काव्य]

नयन चार करना नवीनता
ही क्षणिक पहला पागलप
हीं मिलन को आती तन्वी
रेतीला होता मेरा म
मेरे आकर पास कल्पना
र देती है मुझको काय
सुरबाला को देखूँ अपल
त्कंठित रहता है अंत
कोस रहा है कब से सच्चा
ख से शिख तक तुमको निज म
गी को आकर कौन बुझा
मिलन को उत्सुक मेरे नयन.

शब्दार्थ :
तन्वी मतलब कृशकाय किशोरी, दुबली-पतली बाला.

पिछली बार 'ढाल' नामक कविता चित्र काव्य के रूप में दी थी लेकिन किसी ने उसमें चमत्कार ढूँढने में रुचि नहीं दिखायी, कहीं इस 'कवच' का भी वही हाल ना हो. इसलिये कुछ संकेत किये देता हूँ.
दो वाक्य कविता को चारों ओर से घेरे हुए है.
एक वाक्य 'नयन चार करना नवीनता' बायें से दायें है और वही नीचे से ऊपर भी बनता हुआ दिखाई देगा.
दूसरा वाक्य 'मिलन को उत्सुक मेरे नयन' न केवल अंत में आया है बल्कि वही वाक्य नीचे से ऊपर जाता हुआ [सभी वाक्यों के अंत में] प्रतीत होगा.
मैं इस बात से अवगत हूँ कि इन काव्य खेल-तमाशों के प्रति रुचि काफी घट चुकी है. फिर भी मुझे जो आता है मैं तो वही खेल दिखा सकता हूँ. ]
अगली कविता अकल्पित छवि 'दिव्या जी' पर

शुक्रवार, 21 मई 2010

लज्जा : नारी का अभेद्य कवच

यदि लज्जा ही निर्लज्ज होकर
घूमेगी घर के आँगन में.
तो स्वयं नयन की मर्यादा
भागेगी छिपने कानन में.

यदि लज्जा ही मुख चूमन को
लिपटेगी अपनी काया से.
तो कैसे आकर्षित होंगे 'चख'
ह्री की श्रीयुत माया से.

यदि लज्जा ही अवगुंठन की
आलोचक बन जाए भारी.
तो कौन कवच ऐसा होगा
होगी जिसमें निर्भय नारी.

[श्री देव कुमार झा के लेख से प्रेरित]

बुधवार, 19 मई 2010

विरह उदगार

मित्र विनय ने संपर्क कर ही लिया. २० मिनट बात हुयी. हम परस्पर वर्ष में एक या दो बार ही मिलने वाले मित्र थे. लेकिन जब सात वर्ष से अधिक हो गए तो रहा ना गया. सो स्वभाव के विपरीत धमकी देकर देखा. और वह कारगर हुआ. मतलब मित्रों को समय-समय पर धमकियाते रहना चाहिए. अब मैं उनपर लिखी दर्जनों कविताओं को उदघाटित नहीं करूँगा केवल एक को छोड़कर, नहीं तो सभी समझेंगे कि काव्य-पिटारा खाली था वैसे ही बहकाया. तो लीजिये मित्र विनय के "विरह उदगार"


▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒
विनय, अर्चन, या..चना व्यर्थ
कलम, सृजन, सो..चना व्यर्थ
नुपुर, नर्तन, showभना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

कथन पिय का, घू..मना व्यर्थ 
मिलन उनका, झू..लना व्यर्थ
सुमन चुनना, चू..मना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

नयन, पलकें झप..कना व्यर्थ
रुदन, आँसू टप..कना व्यर्थ
भवन उनके पहुँ..चना व्यर्थ
नहीं इनका अब कोई अर्थ.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

दिया उनको जो उनके अर्थ
लिखा उसपर जो, क्या था अर्थ
अभी तक है मुझको वो याद,
हमारे बीच रही जो शर्त.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

शिखर पर तुम हो मैं हूँ गर्त
विनय करता पर मिला अनर्थ
याद कर-कर तेरी हो गया
विरह में मैं आधे से अर्ध.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

मिलन कुछ पल का विरह अपार
यही मुझको देता है मार.
बिना उनके निज नयन अनाथ
बची दो ही आँखें हो चार.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒

कपट करना उनका व्यापार
लिपट जाना उनका उदगार
मरण तो अब जीवन के लिये
जरूरी सा बन गया विचार.
▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒▒
[काव्य थेरपी से साभार]
प्रेम औषधि से उपचार करना वहाँ मना है इसलिये दर्शन प्राशन दवाखाने पर आया हूँ.

रविवार, 16 मई 2010

ढाल [चित्र काव्य]

हले से ही दिखी भवन में
ती अमा अरे! चुपचाप.
होली खेल रहा था छिपकर
तेल जला तम से दिव-ताप.
त थे दोनों नयन नुकीले
तलाओ थे कौन कलाप.
ज्जू बिना छूटे आहत कर
काजलमय हृत, करे विलाप
ला वह चाप कौन-सी है, यदि
कलाकार बनते हो आप.

[यह कविता 'ढाल' नामक चित्र काव्य का उदाहरण है. खोजिये, कैसे?]

नयन-मर्यादा

ओ दूर-दूर रहने वाले! हमसे भी दो बातें कर लो.
इतना दूर नहीं रहते जो मिलने में भी मुश्किल हो.
मौन बहुत रहते हो, दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो.
कभी-कभी तो आते हैं, मिलते हैं. हमसे हँस बोलो.
जितना आते पास तिहारे उतना नयन झुकाते हो.
लज्जा है ये नहीं तुम्हारी, फिर भी तुम शरमाते हो.
बोल रही प्राची से नूतन, सब बातों से अवगत हो.
'मर्यादा में भी कहते हैं नयन किसी हद तक नत हों.'

शनिवार, 15 मई 2010

क्षमा करो






मुझ पर हैं दो नयन आपने तो पहले से चार किये.
सोचा मैं भी चार करूँ लेकर तुझसे दो नयन पिये.
चार नयन पाकर भी तुमने मेरे भी दो नयन लिये.
नयनहीन होकर मैं अब कैसे पाउँगा देख पिये!
दया करो मुझपर, मेरे दो नयन मुझे वापस कर दो.
प्यासे तो पहले से हैं वे मर जायेंगे मुक्त करो.
भूल हुई मुझसे जो मैंने माँगे तेरे लोचन दो.
देख नयन तेरे, ललचाया था मन मेरा, क्षमा करो.

[दो दिन खुला रहेगा दान पात्र]
सौदर्य दर्शन में कलुषता का आना और क्षमा भाव मन में ज्वार-भाटे की तरह से है.

शुक्रवार, 14 मई 2010

अभिनय

कर रहे चपल चख थिर अभिनय
हैं बोल रहे द्वय विंशति वय.
हो गयी हमारी, तुम बोलो —
"क्या पीया आपने पावन पय."


ना, नहीं अभी है संशयमय
मम दशा, हलाहल अथवा पय
मैं जान नहीं पाता सचमुच
हैं कौन वस्तु जिससे हो जय.


" 'बहुजन हिताय' विष अमृतमय
'है सुधा' वासनामयी सभय."
— यह कथन किया करता सतर्क
है दशा इसलिये संशयमय.


उपदेशों में कितनी हैं जृम्भ
है स्वाभिमान में कितक दंभ.
मम दृष्टि खोजती यही सूक्ष्म
द्रुतता में है कितना विलम्ब.


चख चपल हलाहल आपानक
अथवा घट  स्वर्णिम सुधा भरा.
संतुलित अंक द्वय विंशति के
वा रौद्रमहा देता घबरा.

शब्दार्थ : 
द्वय विंशति — २२;
चख — आँखें
जृम्भ — जम्हाई, लक्षित अर्थ 'सारहीनता';
दंभ — घमंड, अहंकार;
रौद्रमहा — शिव का नाम [महारौद्र] २२ अंक महारौद्र जाति का है.
आपानक — मदिरा पान करने का पात्र;
संदेह अलंकार का नया उदाहरण  
[यह कविता २२ वर्षीय एक चंचल बाला पर लिखी गयी है]

बुधवार, 12 मई 2010

क्रोध

क्या हीन भाव आया मन में
जो अपने से ही हुए रुष्ट.
या नहीं मिला जो था मन में
ये चिंता तुमको लगे पुष्ट.

क्या क्रोध आपको है हम पर
ये रेखाएँ  क्यूँ मस्तक पर.
क्यूँ भृकुटी को है तान रखा
क्या रक्त खोलता है हम पर.

क्यूँ हुआ ताप तेरे मन में
जो घृणित भाव हैं देखन में.
मुख नयन आपके लाल हुए
चपला चमके जैसे घन में.

स्वसा-निवेदन

"स्वसा बहिन भगिनी बहना"
भैया! मुझको कुछ तो कहना.
बँधवा हाथों में लो भैया
बहना का नेह निर्मित गहना.

जब भ्रातृहीन कन्या से की
जाती थी पापी की तुलना.
ना बनूँ कहीं वैसी उपमा
तुम छोडो ना मिलना-जुलना.

क्यों भ्रातृहीन कन्या पहले
समझी जाती थी भाग्यहीन.
भ्राता अभाव, पित की मृत्यु
पर खुद करती पति खोज-बीन.

पर मैं भैया तुमसे ऐसा
सम्बन्ध जोड़ने आई हूँ.
मैं उषा और तुम दिवा भ्रात
सूरज-सी राखी लाई हूँ.

[मेरा मन किया कि आज बहन के प्रेम को रूप दिया जाये. इसके लिए दो-महीने का इंतज़ार नहीं हुआ.]
[सूचना — अब से मैं अँधेरे में तीर चलाया करूँगा. टिप्पणी-बॉक्स हटा रहा हूँ. क्योंकि मेरा सारा ध्यान ना आने-वाली टिप्पणियों पर लगा रहता है इससे नव सृजन बाधित होता है.]

मंगलवार, 11 मई 2010

वयसंधि [भेल]

यौवन शैशव का मिलन हुआ
ये मिलन द्वंद्व के लिए हुआ
यौवन घुसने को था तत्पर
तन  में, शैशव से खेल जुआ.

शैशव तो शैशव था बच्चा
वो द्यूत क्रीड़ में था कच्चा
यौवन से सब कुछ हार रहा
ये खेल कहीं होता सच्चा?

यौवन ने शैशव के चंचल
भावों को पग से चुरा लिया
चुपचाप ह्रदय में धर उसको
शैशव को उसने हरा दिया.

शैशव निज छोड़ हुई तत्पर
यौवन अपनाने को बाला.
आकर्षक तो होता ही है
कुछ नया-नया आने वाला.

मेरा अधिकार हुआ तुम पर
यौवन कहता "ओ, सुन बाला!"
उत्कोच दे रहा है गुपचुप
बढ़ने वाला द्वय कुच माला.

हो रही अचंभित देख-देख
परिवर्तन को भोली बाला.
निश्चिन्त घूमने वाली अब
दर्पण लेकर बैठी शाला.

एकांत देख फैंका उतार
अपने तन से व्रीडा विचार.
मन ही मन में हँसती निहार
कुच लेते जाते जो उभार.

शब्दार्थ :
भेल — मिश्रण, मिलाप, भेंट, मिलना, कहीं-कहीं 'चंचल' और 'मूर्ख' अर्थ भी लिया जाता है.
उत्कोच — घूस, रिश्वत;
व्रीडा — लज्जा, हया;
द्यूत क्रीड़ — जुए का खेल.

रविवार, 9 मई 2010

आपका विश्वास

चलो लो आ ही गया पास.
आपको था इतना विश्वास—

"कभी तो दो नयनों की बात
समझ में आयेगी, बरसात
हुवेगी, बोलेगी कोयल
ह्रदय में फूटेगी कोंपल
कामनाओं की, जिसमें से
किरण झाँकेगी आशा की,
मौनमयी मेरी भाषा की
समझ आयेगी सारी बात
आपका ह्रदय सारी रात
करेगा मिलने की ही बात."
 
चलो लो आ ही गया पास.
आपको था इतना विश्वास.

शनिवार, 8 मई 2010

पलक-द्वार

मीन-लोचने! खींच रहा
तुमको संगीत हमारा.
बोलों की है डोर और
भावों का कंटक-चारा.

बीन बजाकर खर्च किया
धन लय तानों का सारा.
खोलो अब ये पलक-द्वार
फँसने दो मीन हमारा.

शुक्रवार, 7 मई 2010

किसलिये?

किसलिये फूल के यौवन में
कलिका का आता है पड़ाव?
किसलिये धूल के मारग में
चलती है मारुत पाँव-पाँव?

किसलिये सूर्य ने छोड़ दिया
क्रोधित होकर कर-पिय का कर?
किसलिये गरम होती वसुधा
निज पुत्रों पर, जो रहे विचर?

किसलिये कपासी मेघों का
नभ ने पहना है श्वेत-वसन?
ढँकना भूला है अंगों को
किसलिये अंगना का यौवन?

क्यों देह दहन करता उर का
जो पहले से ही शोक-मगन?
क्यों यादों के अब द्वार खोल
आई चुपके हिम-मंद-पवन?

क्यों साँझ समय कवि गेह निकल
देखा करता छवि का यौवन?
क्यों निशा और क्यों चंद-किरण
धरती पर करते हैं नर्तन?

किसलिये दिवा में छिप जाते
जन, छाया की गोदी में सब?
बस उसी तरह सब व्योम तले 
टक-टकी लगाए बैठे अब.

क्यों नाच देख ढँकना भूले
पलकों को निज निर्लज्ज नयन?
मैं आया था सोने लेकिन
क्यों भूल गए निज नयन शयन?

मंगलवार, 4 मई 2010

श्रोतानुराग

कब बीता कविता का वितान
ना तृप्त हुए मन और कान.
था कैसा कविता का विमौन
मैं देख रहा चुपचाप कौन
आया उर में श्रोतानुराग
जो छीन रहा मेरा विराग
करपाश बाँध रंजित विशाल
भावों का करता है शृंगार
तुर चीर अमा का अन्धकार
लाया उर में जो प्रेमधार...
[अमित जी के प्रति पनपा श्रोतानुराग]

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

विपरीत से तुम सीध में आओ







विपरीत से तुम सीध में आओ.
अरी! पीठ न तुम मुझको दिखाओ.
मैं तुम्हें बिन देखकर पहचान लेता हूँ.
कल्पना से मैं नयन का काम लेता हूँ.
एक बार फिर कवि से आँख मिलाओ.
अयि! मुझे तुम नेह का फिर गीत सुनाओ.
कल्पना-विमान फिर से भेज देता हूँ.
"कंठ में आना" — तुम्हें सन्देश देता हूँ.
कल्पना-विमान पर तुम बैठ आ जाओ.
अयि! प्रिय कविते! कवि ह्रदय में बस जाओ.
जिह्व का आसन तुम्हें उपहार देता हूँ.
बस प्रिये! मैं आपसे रस-प्यार लेता हूँ.

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

परिवर्तन है या पतन-परा?

मैं हूँ अपराधी बहुत बड़ा
मैं हूँ अपराधी बहुत बड़ा.
निर्लज लज्जा लुटने को थी
मैं देख रहा था खड़ा-खड़ा.


आँखों में आँसू नहीं कहीं
था उनमें इक आश्चर्य भरा.
आ रही स्वयं लज्जा लुटने
परिवर्तन है या पतन-परा?



आँखें मरने को हैं तत्पर
इक शील-भंग की घटना पर.
जो रहीं अभी तक मर्यादित
इक भूल हुई धोखा खाकर.


इक सुन्दर पुरुष देख मैंने
दूरी पर खड़े हुए सोचा.
क्या सुन्दरता पायी इसने
क्या वक्षस्थल पाया चौड़ा.


आया समीप दर्शन करने
'छाती खोलो, देखूँ' कहने.
था भेष पुरुष, नारी उसमें
हा! बड़ अपराध किया मैंने.



वो हँसी देख मेरी हालत
बोली — 'परिवर्तन जीवन है,
तुम अभी तलक अनजान रहे
बेकार तुम्हारा यौवन है."


सचमुच पाया मैंने खुद को
अपराधी मूरख बहुत बड़ा.
दण्डित आँखों को करूँ फोड़,
या करूँ ह्रदय को और कड़ा.


लज्जा परिभाषा बदल गयी
बदली नारी की परिभाषा
अब समझ नहीं आती मुझको
लज्जा की मौनमयी भाषा.


जब परिवर्तन ही जीवन है
तो बदले क्यूँ ना परिभाषा.
मंडूक-कूप मन यथारूप
की लगा रहा अब भी आशा.


[इसमें एक नूतन अलंकार "श्येन भ्रम अलंकार" है, व्याखा और परिभाषा वर्ष-दो वर्ष बाद एक नए ब्लॉग "काव्य-प्रतुल" में दिए जायेंगे. तब तक नवीन अलंकारों का रसास्वादन करने के लिए आपको थोड़े दिवसों के अंतराल पर नवीन रचनाओं को दिया जाएगा. आप टिप्पणी देखर मेरा प्रोत्साहन बढ़ा सकते हैं. मुझे तो यह भी पता नहीं कि इस ब्लॉग को कोई पढता है या नहीं.]

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

उडाओ ना समीर में रेत

अरी! तू सुन्दरता में छिपी, छ्लेगी कब तक ऐसे ही.
कभी ना कभी दिखेगा रूप, आपका अन्दर वाला भी.
करी तुमने मर्यादा भंग, किया छल अपनों के ही संग.
छेड़खानी समीर के साथ करी तुमने होकर के नंग.
केश उपमेय गगन की घटा, चली आई क्यों केश कटा.
जिसे सहलाया करता पवन, उसे तुम समझे रहा 'पटा'.
दिया जिसने तुमको निज नेह, उसी पर करती हो संदेह.
पवन तो रहता सबके साथ, नहीं तन है उसका ना गेह.
नहीं तुमने जाना कुछ भेद, पवन-प्राणों में किया अभेद.
प्राण हर कर पावोगी पवन, आपकी भूल, मुझे है खेद.
श्याम मन से ऊपर से श्वेत, अरी ओ घटा आज तो चेत.
करो ना मर्यादा को भंग, उडाओ ना समीर में रेत.

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

कुम्भ का मेला

सभी स्वच्छ पथ उर के मेरे
अब चलो आप निर्भय होकर
सब तरफ आज घेरेंगी, पिय
कष्टों की टोली 'हो'...'हो' कर.

छिप गयीं आप क्यूँ घबराकर
मेला है ये तो कुम्भ, मकर
राशि में मिलने अब गुरु से
आना चाहे है बस दिनकर.

चख-बाण छोड़ दो तुम धनु से
मन के तापों का हरण करो
सब कष्ट निवारण हो जाएँ
कन्या! कवि को वरण करो.

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

स्वीकार

मुझसे तुम घृणा करो चाहे

चाहे अपशब्द कहो जितने
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ.
तुम दो जो तुमसे सके बने.

मुझपर तो श्रद्धा बची शेष.
बदले में करता वही पेश.
छोडो अथवा स्वीकार करो.
चाहे अपनत्व का करो लेश.

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

मान्यताओं को बदलने का साहस मुझमें नहीं!

निद्रा — मेरा असमय आना द्वारपाल के लिए बुरा है. मेरा अधिक आना विद्यार्थी के लिए दोष है, ब्रह्मचर्य का नाशक है. मेरा कम आना रोगी के लिए दुःखदायक है. किन्तु, मेरा शैशव के प्रति स्नेह सभी को भाता है. क्यों? क्या मैं मात्र शिशुओं के प्रेम की अधिकारिणी हूँ? क्या मैं मैं किसी पवित्र ह्रदय वाले स्वस्थ पुरुष से प्रेमिकावत प्रेम ना पा सकूंगी?
नेपथ्य से आवाज — अवश्य पा सकोगी देवि!
निद्रा — तुम कौन?
नेपथ से आवाज — मैं स्वप्न. तुम्हारी इस अकस्मात् चिंता का कारण, देवि! क्या मेरा प्रेम आपको पर्याप्त नहीं या मेरे प्रेम पर तुम्हें संदेह है?
निद्रा — निःसंदेह तुम मुझसे प्रेम करते हो. किन्तु...
स्वप्न — 'किन्तु' क्या? निद्रे!
निद्रा — हे स्वप्न! तुम अमैथुनीय सृष्टि का एक सुन्दर उदाहरण हो. पर लोगों की मान्यता को बदलने कि मुझमें सामर्थ्य नहीं. लोग आज भी तुम्हें मेरे द्वारा उत्पन्न मानते हैं.

(किसी की भी मान्यताओं को बदलना सहज नहीं.)