बुधवार, 3 अगस्त 2011

छंद-चर्चा ... हमारे भाव-विचारों के साँचे ............. पाठ ६

नयी काव्य रचना निर्मित करने से पहले कवि के समक्ष एक महती समस्या होती है. अपने विचार-प्रवाह को व्यवस्थित रूप से व्यक्त करने की. यदि विचार कोमल भावों के हुए तो वह अपने लिये साँचों का चयन सहजता से कर लेते हैं और यदि विचार कोमलेतर (कठोर, शुष्क आदि) भावों के हुए तो उनके लिये साँचों के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी होती है. 
अतिशय वात्सल्य, अतिशय प्रेम, अतिशय आदर, अतिशय श्रद्धा जैसे भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः कवि साँचे चयन करने को उतावला नहीं रहता और न ही नवीन साँचों को गढ़ने का प्रयास करता है.  यह भी सत्य है कि वह अपने श्रद्धेय, प्रिय अथवा वात्सल्य-केंद्र को अचंभित करने को कभी-कभी स्व-भावों का नूतन साँचे में लिपटा 'विस्मय-उपहार' देता दिखाई अवश्य पड़े किन्तु इस तरह के अत्यंत दुर्लभ क्षण होते हैं. नवीन साँचों के निर्माण की इच्छा और कम प्रयुक्त साँचों में भावों को भरने की चुनौती स्वीकार करना उसकी महत्वाकांक्षा की उच्चता को दर्शाता है. कोमलेतर भाव यदि मात्रिक और वार्णिक छंदों (साँचों) में ढलते हैं तो वे अत्यंत असरकारक होते हैं. यदि 'आक्रोश' प्रवाहयुक्त है और वह कोई उपयुक्त छंद पा जाये तब उसका प्रभाव अमिट होगा.

कोमल भाव का तुकांत साँचा :
"मन बार-बार पीछे भागे 
लेने मधुरम यादों का सुख.
पर अब भविष्य चिंता सताय
मन लगे छिपाने अपना मुख."

कोमल भाव संवाद साँचे में :  
"अये ध्यान में न आ सकने वाले अकल्पित व्यक्तित्व! 
आने से पूर्व अपना आभास तो दो ...
थकान से मुंद रही है पलकें 
निद्रा में ही चले आओ 
अपनी आभासिक छवि के साथ."

कोमलेतर भाव के साँचों में हम प्रायः 'गद्य कविता' को देखते हैं, यथा : 
व्यवसाय मुझे निरंतर 
असत्य भाषण, छल 
और अभद्र आचरण करने का 
अवसर दे रहा है. 
वास्तव में 
अर्थ की प्राप्ति में 
मैं पहले-सा नहीं रहा.