मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

दर्शन लोकपाल

'अनशन' है आरम्भ हमारा
'प्राशन' बिलकुल नहीं कराओ.
जब तक दर्शन लोकपाल बिल
पास न होगा, पास न आओ.


दर्शन में भी भेदभाव हो
तो कैसा अनुराग बताओ?
कटु तिक्त अथवा कषाय हो
दर्शन लोकपाल बिल लाओ.

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वंचना

मैं सुप्त लुप्त था अपने से 
शैया पर दृग अंचल करके 
सहसा पिय ने स्पर्श किया 
पलकों पर, आई हूँ सजके 
लाई हूँ शीतलता तन में 
अब मुक्त करो नयनों को तुम 
कह बैठ गयी वह शिरोधाम 
शैया पर निज, होकर अवाम.

मैं सिहर उठा यह सोच-सोच 
अनदेखे ही पिय मुख सरोज 
अधरों का वार कपोलों पर 
अब होगा, लोचन बंद किये 
मैं पड़ा रहा इस आशा में 
बाहों के बंधन से बँधकर 
क्या उठा लिया जाऊँगा अब.

जब सोचे जैसा नहीं हुआ 
पलकों का द्वारा खोल दिया
पिय नहीं, अरे वह पिय जैसी 
दिखती थी केवल अंगों से. 
मैं समझा, पलकें स्वयं झुकीं 
वह आ बैठी बेढंगों से. 

पर पिय तो मेरी स्वीया सी 
जो नित प्रातः करती अर्चन
चरणों पर आकर आभा से 
कर नयन मुक्त, करती नर्तन.
जो आई थी लेकर दर्शन
झट हुआ रूप का परिवर्तन.
वो! सचमुच में थी विभावरी
थी उदबोधित*-सी निशाचरी.

नेह को न छल सकता छल भी 
चाहे छल में कितना बल भी 
हो न सकता उर हरण कभी 
क्योंकि निज उर तो पिय पर ही.
__________________
* उदबोधिता = एक नायिका जो पर-पुरुष के प्रेम दिखलाने पर उस पर मुग्ध होती है.

[आवृत काव्य — रचनाकाल : १७ फरवरी १९९१]

रविवार, 11 दिसंबर 2011

छिद्र-प्रकाश

दिवस का होकर रहे प्रकाश 
नहीं किञ्चित मन हुआ निराश 
काश! अंतरतम में भी आ'य 
छींट-सा छोटा छिद्र-प्रकाश. 

द्वार कर लिये दिवा ने बंद 
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद 
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य 
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

'प्रशंसा' से प्रिय 'निंदक' राग
'दिवस' से गौर 'तमस' अनुराग 
'सुमन' कैसे पहचाना जा'य
विलग होकर 'स्व' पंक्ति पराग.

बंद हैं किसके लिये कपाट?
विचरते जो पथ देख सपाट?
आप भी तो आते हो ना'य  
बैठने, छिद्रों वाली खाट.

* ना'य .... नहीं

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

अन्तर्द्वन्द्व

यह मेरे काव्य-अभ्यास के दिनों की एक कविता है .... "अन्तर्द्वन्द्व". इसकी रचना १९९० के मध्य में हुई, यह अभी तक छिपी हुई थी... मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने पढ़ा हो!


"दिन नियत कर हम मिलेंगे
चांदनी रात होने पर.
जाने साथ बने कैसा
स्नेहमयी बात होने पर."

"चुनी चांदनी ही क्यूँ?
अंधेरी रात भी होती."
- मेरे मन के विचारों यूँ,
तुम न आवाज दो थोती.

शीतांशु की रश्मियों से
शीत मिलती शील को.
शशि बिन बलते दीयों सा
ताप देता शील को.

"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

"क्या आप रोक न पाते
मिलन के उर विचारों को?"
- मेरी तरफ से दूर करो,
तुम इन दुर्विचारों को.

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का."

रविवार, 18 सितंबर 2011

छंद चर्चा .... मात्रिक छंद ........... पाठ ७

प्राचीन आचार्यों ने एक मात्रा से लेकर बत्तीस मात्राओं तक के पाद वाले छंदों का वर्णन किया है। सुविधा के लिये इनकी ३२ जातियाँ बना दी गई हैं और प्रस्तार-रीति द्वारा प्रत्येक जाति में जितने छंद बनने संभव हैं, इनकी संख्या का उल्लेख भी कर दिया गया है, जो कि इस प्रकार है — 
मात्रा (प्रतिपाद) ................ जाति ......................... छंद प्रस्तार संख्या 
....... 1 ............................. चान्द्रिक .................... 1
....... 2 ............................. पाक्षिक ..................... 2
....... 3.............................. राम .......................... 3
....... 4 ............................. वैदिक ....................... 5
....... 5 ............................. याज्ञिक ..................... 8
....... 6 ............................. रागी ......................... 13
....... 7 ............................. लौकिक .................... 21
....... 8 ............................. वासव ....................... 34
....... 9 ............................. आँक ......................... 55
....... 10 ........................... दैशिक ....................... 89
....... 11 ........................... रौद्र ........................... 144
....... 12 ........................... आदित्य .................... 233 
....... 13 ........................... भागवत .................... 377
....... 14 ........................... मानव ....................... 610
....... 15 ........................... तैथिक ...................... 987
....... 16 ........................... संस्कारी ................... 1597
....... 17 ........................... महासंस्कारी ............ . 2584
....... 18 ........................... पौराणिक .................. 4181
....... 19 ........................... महापौराणिक ............  6765
....... 20 ........................... महादैशिक .................. 10946
....... 21 ........................... त्रैलोक ........................ 17711
....... 22 ........................... महारौद्र ....................... 28657
....... 23 ........................... रौद्रार्क ........................ 46368
....... 24 ........................... अवतारी ..................... 75025
....... 25 ........................... महावतारी .................. 121393
....... 26 ........................... महाभागवत ................ 196418
....... 27 ........................... नाक्षत्रिक ......................317811
....... 28 ........................... यौगिक ........................514229
....... 29 ........................... महायौगिक ..................832040
....... 30 ........................... महातैथिक ...................1346269
....... 31 ........................... अश्वावतारी ...................2178309
....... 32 ........................... लाक्षणिक ....................3542578

आप सोच रहे होंगे ... इन जातियों के नामकरण का आधार क्या है? कैसे इतनी संख्या में छंद-प्रस्तार हो जाते हैं? ... दरअसल हम जो भी काव्य-रचना करते हैं... वह किसी न किसी वर्ग में आती है... यदि हम इस श्रेणी के वर्गीकरण पर शोध करें तो अवश्य अपनी मात्रिक काव्य-रचना को पहचान पायेंगे कि वह किस जाति के किस प्रस्तार-भेद में आयेगी..... जितना सरल है अपनी किसी काव्य-रचना की जाति पहचानना .. उतना ही कठिन है उसका अनुक्रमांक ढूँढ़ना.... क्योंकि इस क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य या तो अलिखित रहा है अथवा संभव है कि यवन व मलेक्ष्यों के आक्रमणों में स्वाहा हुआ हो! ... जो हुआ सो हुआ पर अब नए सिरे से इस क्षेत्र में शोध की आवश्यकता बन पड़ी है... इस विषय पर भी कभी चर्चा करने का मन है. अस्तु, आज के विषय पर लौटता हूँ ...

विभिन्न संख्याओं के प्रतीक रूप में प्रयुक्त होने वाले संज्ञा शब्दों के आधार पर ही उपर्युक्त छंद-जातियों के नाम रखे गये हैं. 
उदाहरण — 
संख्या  ............संख्या सूचक शब्द ....................................................................छंद जाति नाम 
.. 1 ................चन्द्र ......................................................................................... चान्द्रिक 
.. 2 ................पक्ष (कृष्ण, शुक्ल) .................................................................... पाक्षिक 
.. 3.................राम (रामचंद्र, बलराम, परशुराम) ............................................... राम 
.. 4 ................वेद (ऋक्, यजु, साम, अथर्व) ..................................................... वैदिक 
.. 5 ................यज्ञ (ब्रह्म, देव, अतिथि, पितृ, बलिवैश्य) .................................... याज्ञिक
.. 6 ................राग (भैरव, मल्हार, श्री, हिंडौल, मालकोश और दीपक कखेड़ा) ............. रागी 
.. 7 ................लोक ........................................................................................ लौकिक 
.. 8 ................वासु ......................................................................................... वासव
.. 9 ................अंक (१ से ९ तक) ..................................................................... आँक 
...10 ...............दिशाएँ ................................................................................... दैशिक 
...11 ...............रुद्र ........................................................................................ रौद्र 
...12 ................आदित्य (सूर्य, अर्क) ............................................................. आदित्य 
...13 ................भागवत (इसमें १३ स्कंध हैं)  ................................................. भागवत 
...14 ................मन्वंतर ............................................................................... मानव 
...15 ................तिथि (प्रथमा से अमा या पूनो तक) ....................................... तैथिक 
...16 ................संस्कार ............................................................................... संस्कारी 
...18 ................पुराण ................................................................................. पौराणिक 
...24 ................अवतार .............................................................................. अवतारी
...27 .................नक्षत्र ................................................................................ नाक्षत्रिक 
...32 .................लक्षण ............................................................................... लाक्षणिक 

अन्य जातियों के नाम भी इन्हीं संख्यावाचक शब्दों के संयुक्त रूप पर आधारित हैं अथवा किसी विशेषण द्वारा उनका संकेत किया गया है. यथा : 
— १० मात्राओं की जाति = दैशिक ; २० मात्राओं की जाति = महादैशिक 
— २४ मात्राओं की जाति = अवतारी ; ७ संख्यासूचक शब्द = अश्व (सूर्य रथ के घोड़े, जो सात दिनों या वारों या सात रश्मि-रंगों के प्रतीक हैं. इस तरह ३१ मात्राओं की जाति 'अश्वावतारी' का नामकरण किया गया.


शनिवार, 10 सितंबर 2011

अश्रु-भस्म

शांत जल से 
शांत थे मन भाव 
आये थे तुम 
आये थे अनुभाव 

शांत मन में 
सतत दर्शन चाव 
स्वर नहीं बन पाये 
मन के भाव

जल गये सब 
जड़ अहं के भाव
बह गया मन 
मैल - प्रेम बहाव

लगाव से 
विलगाव तक का 'गाव'
दृग तड़ित करता 
कभी करता अश्रु-स्राव

प्रेम - मिलना
प्रेम - पिय अभाव
प्रेम में आते
दोनों पड़ाव

सतत चिंतन
प्रेम की है रस्म
दिव्य औषध
बनते अश्रु-भस्म.
_________________ 
*गाव ........ गाने की क्रिया


मंगलवार, 30 अगस्त 2011

दो उरों के द्वंद्व में

दो उरों के द्वंद्व में 
लुप्त बाण चल रहे 
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता.

नयन बाण दोनों के 
आजमा वे बल रहे 
बाणों की भिड़ंत में 
स्वतः चार हो रहे.

बाणों की वर्षा से 
हार जब दोनों गये 
मात्र एक बाण छोड़ 
संधि हेतु बढ़ गये.

नागपाश बाहों का 
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के 
कपालों पर बन गये.

दोनों ही हैं 'अस्त्रविद'
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है 
दोनों सृष्टि हेतु हैं 
न करें तो विनाश है.

दोनों तो हैं संधि-मित्र 
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में 
मनु पुत्र उत्पन्न हों.






रविवार, 21 अगस्त 2011

स्वगत प्रश्न

यदि मैं अंधकार में कलम पृष्ठ पर रखकर लिखता चला जाऊँ। अनुमान से अक्षरों को क्रमशः स्थापित करता, पंक्तियों की सिधाई का ध्यान रखता तो कार्य की सफलता में विलम्ब न हो – और हृदय की तात्कालिक अभिव्यक्ति भी हो जाये। 
? यदि ऐसे में अक्षर अक्षर से टकरा जाएँ या पूरी पंक्ति पंक्ति पर ही चढ़ जाय तो मेरी कुशलता दोषी होगी अथवा मेरा अन्धकार को कोसना ठीक होगा _


रविवार, 14 अगस्त 2011

बिना सन्दर्भ सौन्दर्य प्रशंसा ... संशय का कारण

यदि मैं आपकी 
अकस्मात् बिना सन्दर्भ 
सौन्दर्य की प्रशंसा करने लगूँ 
तो आपके मन में 
सर्वप्रथम कौन-सा भाव आयेगा 
— क्या संशय तो नहीं? 
स्यात मेरी सोच, मेरी भावना पर.
किवा, प्रशंसा सुनकर 
लज्जा करना उचित समझोगे?
— हाँ, यदि आप 
स्वयं की दृष्टि में भी 
सुन्दर हो 
तो अवश्य लजाओगे.
क्या आप वास्तव में सुन्दर हो? 
आप अपने सौन्दर्य के विषय में क्या धारणा रखते हैं? — जानने की इच्छा है.

क्या विरह भाव के
धारण करने के लिए 
'प्रिय-पात्र' का 
निर्धारण या रूढ़ किया जाना 
संगत है/ उचित है?
? किंकर्तव्य_

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जिसके सहोदरा 'बहन' नहीं होती वह कभी 'प्रेम' को सही ढंग से पहचान नहीं पाता !

सुमन, तुम मन में बनी रहो!
आकर अंतर में मेरे तुम खिलो और मुसकाओ.
स्वर्ण केश, स्वर्णिमा वदन पर मुझको हैं मन भाते.
वचन आपके सुनकर मेरे कान तृप्ति हैं पाते.
सुनो दूसरी गुड़िया प्यारी, पहली मुझे भुलाओ.
जिधर कहीं दुर्गन्ध लगे नेह देकर के महकाओ.
सुमन, तुम मन में बनी रहो!
+++++++++++++++++++++++++++++++++

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

तुम पर मेरी राखी उधार...

तुम पर मेरी राखी उधार...
लूँगा जीवन के अंत समय, 
होगा जब यादों को बुखार.

इस पल तो है संकोच मुझे, 
दूँ क्या दूँ क्या अनमोल तुम्हें?
वर्षों से किया नेह संचय 
मन में मेरे है बेशुमार...
तुम पर मेरी राखी उधार...
निर्मल तो है पर है चंचल 
मन, याद करे हर बार तुम्हें
अब भी हैं नन्हें पाप निरे, 
आवेगा जब उनमें सुधार
मैं आऊँगा लेने, उधार 
राखी, तुम पर जो शेष रही.
भादों में आवेगी बयार...
तुम पर मेरी राखी उधार...

[ये है कोमल भावों का 'तुकांत' साँचा... गीति शैली में]

बुधवार, 3 अगस्त 2011

छंद-चर्चा ... हमारे भाव-विचारों के साँचे ............. पाठ ६

नयी काव्य रचना निर्मित करने से पहले कवि के समक्ष एक महती समस्या होती है. अपने विचार-प्रवाह को व्यवस्थित रूप से व्यक्त करने की. यदि विचार कोमल भावों के हुए तो वह अपने लिये साँचों का चयन सहजता से कर लेते हैं और यदि विचार कोमलेतर (कठोर, शुष्क आदि) भावों के हुए तो उनके लिये साँचों के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी होती है. 
अतिशय वात्सल्य, अतिशय प्रेम, अतिशय आदर, अतिशय श्रद्धा जैसे भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः कवि साँचे चयन करने को उतावला नहीं रहता और न ही नवीन साँचों को गढ़ने का प्रयास करता है.  यह भी सत्य है कि वह अपने श्रद्धेय, प्रिय अथवा वात्सल्य-केंद्र को अचंभित करने को कभी-कभी स्व-भावों का नूतन साँचे में लिपटा 'विस्मय-उपहार' देता दिखाई अवश्य पड़े किन्तु इस तरह के अत्यंत दुर्लभ क्षण होते हैं. नवीन साँचों के निर्माण की इच्छा और कम प्रयुक्त साँचों में भावों को भरने की चुनौती स्वीकार करना उसकी महत्वाकांक्षा की उच्चता को दर्शाता है. कोमलेतर भाव यदि मात्रिक और वार्णिक छंदों (साँचों) में ढलते हैं तो वे अत्यंत असरकारक होते हैं. यदि 'आक्रोश' प्रवाहयुक्त है और वह कोई उपयुक्त छंद पा जाये तब उसका प्रभाव अमिट होगा.

कोमल भाव का तुकांत साँचा :
"मन बार-बार पीछे भागे 
लेने मधुरम यादों का सुख.
पर अब भविष्य चिंता सताय
मन लगे छिपाने अपना मुख."

कोमल भाव संवाद साँचे में :  
"अये ध्यान में न आ सकने वाले अकल्पित व्यक्तित्व! 
आने से पूर्व अपना आभास तो दो ...
थकान से मुंद रही है पलकें 
निद्रा में ही चले आओ 
अपनी आभासिक छवि के साथ."

कोमलेतर भाव के साँचों में हम प्रायः 'गद्य कविता' को देखते हैं, यथा : 
व्यवसाय मुझे निरंतर 
असत्य भाषण, छल 
और अभद्र आचरण करने का 
अवसर दे रहा है. 
वास्तव में 
अर्थ की प्राप्ति में 
मैं पहले-सा नहीं रहा.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

याचक के भाव

'प्रतीक्षा' का हूँ मैं अभ्यस्त
दिवस बीता, दिनकर भी अस्त
पलक-प्रहरी थककर हैं चूर
आगमन हुआ नहीं मदमस्त.

बैठता हूँ भूखों के संग
बनाता हूँ याचक के भाव
मिले किञ्चित दर्शन उच्छिष्ट
प्रेम में होता नहीं चुनाव.

ईश, तेरा ही मुझमें अंश
अभावों का फिर भी है दंश
'जीव' की सुन लो आर्त पुकार
ठहर ना जाये उसका वंश.

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

मन के छिपे भाव पहचानो

छात्र हमारे बड़े हो गये 
साथ-साथ रह सकुचाते.
मिलने को गुरु की शाला में
एक साथ अब ना आते.

पूर्व दिशा में बिजली चमके
पश्चिम में बादल छाते.
वर्षा होती ठीक मध्य में 
प्यासे दोनों रह जाते. 

पूर्व दिशा की शुष्क शिला ने 
भेदभाव पहचान लिया. 
पश्चिम दिक् के सैकत-झरने 
ने मरीचिका गान किया. 

स्नेह कौन से स्वर में उनसे   
ऋण-चुकता संवाद करे. 
इतना बोझ लदा है मन पर 
चुपके-चुपके आह भरे.

गुरुवार, 30 जून 2011

अनचाहा अपराध

शिष्ट शब्दों से दिखा दी
आपने मुझको ज़मी*.
संतुलन अद्भुत झलकता
बात में रहती नमी.

इस नमी* से ही पराजित
पुरुष क्या सब देव हैं.
पुरुष की हठधर्मिता भी
सूखती स्वमेव है.

आपके गृह-त्याग ने मन पर
रखा हमारे 'जुआ'.
बैल-बुद्धी* हूँ तभी तो
अनचाहा अपराध हुआ.
_________________________________

ज़मी = जमीन, शर्मिन्दा करने से अर्थ
बुद्धी = सही शब्द 'बुद्धि'
बैल-बुद्धि = मूर्ख
जुआ = बोझ, हल का अग्रिम सिरा
नमी = विनम्रता, गीलापन (संवेदनशीलता)
_________________________________

रविवार, 26 जून 2011

दर्शन-प्राशन परीक्षा

मित्रो, ब्लॉगजगत में ऐसे कई नाम हैं जिनसे ब्लॉग-साहित्य की अपनी एक पहचान बन गयी है. उनमें ही कुछ नाम ऐसे हैं जिन्होंने 'पाठशाला' को चलाने की लगातार प्रेरणा दी. प्रोत्साहन पाकर कुछ समय बाद ही मैं इस शिक्षण के नाट्य को करने में रस लेने लगा. मन में आया कि एक परीक्षा भी ले ही लूँ, फिर अवसर मिले न मिले. आज की परीक्षा छोटी-सी है. मन में तो तमाम प्रश्न थे किन्तु, कहीं परीक्षा देखकर कोई पास तक न आये इसका भय भी बना रहा. इसलिए अच्छी प्रतिक्रिया मिलने पर ही आगामी प्रश्न-पत्रों का सुख-वितरण करूँगा. अपने सुभीते से जितना चाहे समय लीजिये. इस बहाने आपका फिर से पिछली पोस्टों पर टहलना भी हो जाएगा.
प्रश्न 1 : किसी भी दो काव्यांशों के कवि को पहचान कर उनके रचना के भावार्थ को स्पष्ट करें. [5×2=10]
(क़)
हकीकत का तो बिच्छू भी छुआ जाता नहीं तुमसे.
ख़यालों के बड़े सौ साँप, दस अजगर तो मत मारो .
(ख़)
रात गला काटती है
कई ज़ज्बात मरते हैं
इक ज़हरीली सी कड़वाहट
उतर जाती है हलक में
(ग)
भृकुटियों पर उग आए,
उस संतोष के आगे,
थर्रा जाता है.
एक क्षण को,
दबंग जेठ भी. 
(घ)
क्यों कि
जो कहती हूँ
वो करती नहीं
जो सोचती हूँ
वो होता नहीं
जो होता है
वो चाहती नहीं .
इसी ऊहापोह में
जीती चली जाती हूँ
क्षण - प्रतिक्षण
परिस्थितियों में
ढलती चली जाती हूँ.

प्रश्न 2:  ब्लॉग जगत में कौन सबसे आगे ? कोई पाँच बताइये. ...........[5]
१. जटिल शब्दावली में ...........२. विषय विविधता में ............
३. गीतिमयता में ............
४. हाजिर जवाबी में ...........
५. अत्यधिक भाव प्रवणता में .........

६. मुग्ध लेखन में ..........

प्रश्न 3 : स्वर का तापमान पहचानिए :   ........... [5]
छूट गया मिलना-जुलना सब
पुनः मिलेंगे शायद न अब
जितना तुमसे दूर चलूँ
आ जाता लौट वहीँ
कहो कुछ बेशक आप नहीं .
http://darshanprashan-pratul.blogspot.com/2010/11/blog-post_21.html

प्रश्न 4 : सभी प्रश्नों के उत्तर दें :     ................ [5×2=10]
१. पाठशाला के संचालक का काव्यशास्त्र के किस आचार्य से मतभेद हुआ था?
२. किस कविता में अनुप्रास के छठे भेद को देखा गया है?
३. 'दर्शन प्राशन' की कौन-सी कविता चित्र अलंकार का अच्छा उदाहरण है?
४. एकमात्र कविता से अपने ब्लॉग की कायापलट कर देने वाले कवि-हृदय लेखक का क्या नाम है?
५. रंग और स्वर का संगम किस ब्लॉग की पहचान है?


प्रश्न 5 : रचनाओं को पहचानिए किस कवि की हैं? .................. [10×2=20]
१) तुम हो जैसे अथाह जलराशि,
और मैं हूँ
एक बिना पतवार की नौका।
पूरी तरह से,
तेरी मौजों के सहारे।
२) सुनो अब्बा!
मिले किसी मस्जिद,
तुम्हारा अमुक खुदा.
तो कहना फ़क्र से,
तुम बेहतर खुदा हो.
३) है बिना निमंत्रण के आना.
आना फिर आते ही जाना.
ओ स्वेद! बने तुम हठधर्मी 
आमंत्रण पर अच्छा आना. 
४) बुजुर्गियत को अक्ल का पैमाना समझते हैं वो
उम्र मेरी अनायास ही गुनहगार हो गयी।
५) अनुकूल हवा में जग चलता, प्रतिकूल चलो तो हम जानें।
कलियाँ खिलती है सावन में, पतझड़ में खिलो तो हम जानें॥
६) अधिकार के सारे शब्द तुम्हारे हाथों में
और मेरे हाथों में सारे कर्तव्य?
७) मंदिरों में बंद ताला, हर हृदय है कुटिल-काला 
चाटते दीमक-घुटाला, झूठ का ही बोलबाला
जापते हैं पवित्र माला, बस पराया माल आये--
व्यर्थ हमने सिर कटाए,  बहुत ही अफ़सोस, हाय !
८) खालिक हो तुम कायनात के मालिक तुम हो 
क्या है रीता तुमसे जो बता इन खाफकानो को 
९) तेरी भक्ति की ज़रा स्याही पिला मेरी कलम को...
ऋण चुकाने की धरा का शक्ति दे मेरी कलम को...
जब लिखूं मैं सत्य मेरी लेखनी न लड़खड़ाए...
तू अभय का ग्रास कोई अब खिला मेरी कलम को
१०) अटूट रिश्ता है चोटों से
जख्मों को सहलाना क्या
गहरे घाव ह्रदय में लेकर
खिल खिल कर हँस पाना क्या
मैं क्या जानू जख्मीं होकर घाव भरे भी जाते हैं
छेड़ छाड़ मीठी झिड़की, आलिंगन का सुख होता क्या.

बुधवार, 15 जून 2011

अमित स्मृति

अमित स्मृति-1

तुम कहते थे - "करो प्रतीक्षा, मैं आने वाला हूँ"
"मीठा बतरस घोल रखो, बस पीने ही वाला हूँ"
ना तुम आये, न ही आयी, कोई सूचना प्यारी.
पाठ हमारे भारी-भरकम, घुटनों की बीमारी.
वज़न अगर कम हो पाये तो चलना सहज हुवेगा.
जिन नयनों के सम्मुख गुजरे, उठकर चरण छुवेगा.
इसीलिए उपवास कर रहे 'पाठ' छंद वाले अब.
वज़न घटेगा, होगा दर्शन अमित, खुलेगा व्रत तब.


अमित स्मृति-2

मुझे बताओ प्रियवर मेरे, कब तक मन का उलट करूँ?
'आना' कहकर मुकर गये, कैसे फिर से आमंत्रण दूँ?
'घर आओ, घर आओ मेरे' हृत-स्वर को मैं बुलत डरूँ.
'अब आये, अब आये प्रियवर' - 'नयन-पलक'-गन बुलट भरूँ.*
मुझ पर सब संपर्क सुरक्षित फिर भी प्रतिदिन मौन धरूँ.
ब्लॉग-जगत में बतियाने के सुख से कैसे पीठ करूँ?
_____________________

शब्दार्थ :
'नयन-पलक'-गन बुलट भरूँ = गन (पिस्तोल) में जैसे बुलट (गोलियाँ) भरी जाती हैं उसी प्रकार मैं अपने नयन के पलकों को खोलकर 'अब आये, अब आये' दर्शन लालसा को भर रहा हूँ.
बुलत = बोलते हुए

शनिवार, 4 जून 2011

छंद-चर्चा ...... [पाठ ५] ......... वर्णिक जातियाँ

पिछले पाठ 'प्रत्यय विचार' में हमने वर्णों की जातियों के प्रस्तार के बारे में जाना था वह भी केवल अत्युक्ता जाति के चार छंदों को उदाहरणों के माध्यम से उसी क्रम में तीन वर्णों वाली मध्या जाति के आठ छंद होते हैं और चार वर्णों वाली प्रतिष्ठा जाति के सौलह छंद होते हैं,.... जिसे हम एक सूची के माध्यम से आगे समझेंगे फिलहाल तो वर्णिक छंद को एक बार फिर से समझते हैं यह वर्णिक छंद क्या है? एक उदाहरण से समझते हैं :
प्रायः पाठशालाओं और विद्यालयों में विद्यार्थियों को पंक्तिबद्ध आने-जाने का अनुशासन होता है। कुछ बड़े विद्यालयों [कोलिजों] में जिसकी छूट होती है। वहाँ मनमाने ढंग से आना और जाना है। वहाँ पंक्ति की आवश्यकता नहीं रहती।

किसी भी भाषा को सीखने वाला चाहता है कि वह उस भाषा का पंडित बने। इसलिये वह अधिक से अधिक शब्दों से अपनी प्रायोगिक भाषा को समृद्ध कर लेना चाहता है। वह भाँति-भाँति के प्रयोगों के माध्यम से अपना शब्द-भण्डार विकसित करता है। भाषा का पंडित होकर वह भाषा को प्रभावपूर्ण व आकर्षक बनाना चाहता है। यह सब कैसे हो? क्या सोचने से ही हम भाषा पर नियंत्रण कर लेते हैं? नहीं ना... उसके लिये हम छोटे-छोटे अभ्यास करते हैं। जिसमें शब्दकोश हमारी सहायता करता है। क्योंकि गुरु सशरीर सर्वविद्यमान नहीं इसलिये हम परस्पर संवाद करके, विमर्श करके, प्रतिस्पर्धा करके स्वयं का क्रमतर विकास करते चलते हैं।

प्रारम्भ में एक छोटा बाल-विद्यार्थी पाठशाला में आकर दौड़ लगाने से बहुत पहले हाथ-पाँव हिलाता है, पीटी करता है।  वाक्य बनाने से बहुत पहले वर्ण को पहचानना, लिखना और सही उच्चारण करना सीखता है। उसी प्रकार हम छंद में निष्णात होने से बहुत पहले शब्द-अनुशासन करना सीखते हैं। उन्हें पंक्तिबद्ध करना सीखते हैं। अंत्यानुप्रास वाले शब्दों की सूचियाँ बनाते हैं अर्थात एक तुक वाले शब्दों के चार्ट बनाकर उनके अर्थों से परिचित होते हैं। यथा : कल, चल, छल, जल, तल, दल, नल, पल, फ़ल, बल, मल, हल। कुछ और भी मिलते-जुलते शब्दों के अर्थ जानकार इसी सूची में जोड़ देते हैं - खल, गल, ढल,  थल

इसी तरह का एक और अभ्यास करते हैं : प्यार, सियार, तैयार........ समझे यार
मतलब ये कि ऐसे छोटे-छोटे प्रयास विद्यार्थी जीवन में ही कर लेने चाहिए। इस अभ्यास के बाद ही वर्णिक और मात्रिक विधानों के अनुसार छंद से खेलना चाहिए।

जिन छंदों के प्रति-पाद [प्रत्येक पंक्ति] में वर्ण-क्रम एवं संख्या की नियत योजना रहती है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं। ये वर्णिक छंद भी सम, अर्धसम एवं विषम तीन प्रकार के होते हैं

वर्णिक छंद के 'साधारण' तथा 'दंडक' — भेदों का उल्लेख करते हुए छंद-शास्त्रियों ने बताया है कि वर्ण-वृत्तों में सामान्यतः 26 वर्ण प्रति-पाद की सीमा है. 26 से अधिक वर्णों वाले छंद दंडक वार्णिक छंद कहलाते हैं। जिज्ञासु और छंद के अभ्यासी विद्यार्थियों की सुविधा के लिये आचार्यों ने साधारण-वृत्तों को वर्ण-संख्यानुसार 26 जातियों में विभाजित किया है।

वर्णिक जातियों के नाम एवं प्रस्तार-विधि द्वारा उनके संभव भेदों की संख्या का विवरण कुछ इस प्रकार है :
वर्ण संख्या           जाति-नाम              प्रस्तार-भेद 
..... 1 .......             उक्ता ..........................2
..... 2 .......             अत्युक्ता .....................4
..... 3 .......             मध्या ........................8 
..... 4 .......             प्रतिष्ठा .......................16
..... 5 .......             सुप्रतिष्ठा ....................32
..... 6 .......             गायत्री .......................64
..... 7 .......             उष्णिक .....................128 
..... 8 .......             अनुष्टुप ......................256 
..... 9 .......             बृहती ........................512
..... 10 .......           पंक्ति .........................1024
..... 11 .......           त्रिष्टुप ........................2048
..... 12 .......           जगती ......................4096
.... 13 .......            अति जगती ..............8192 
.... 14 .......            शक्वरी .....................16384
.... 15 .......            अतिशक्वरी ..............32768
.... 16 .......            अष्टि .........................65536
.... 17 .......            अत्यष्टि ....................131072
.... 18 .......            घृति .........................262144
.... 19 .......            अतिघृति ..................524288
.... 20 .......            कृति .........................1048576 
.... 21 .......            प्रकृति ......................2097152
.... 22 .......            आकृति ....................4194304
.... 23 .......            विकृति ....................838808
.... 24 .......            संस्कृति ...................1677216
.... 25 .......            अतिकृति .................33554432
.... 26 .......            उत्कृति ....................67108864


हिन्दी साहित्य में प्रचलित छंद तो बहुत से हैं जिनके लक्षण और उदाहरण आगामी पाठों के साथ देने का सोचा है। फिलहाल जो अप्रचलित हैं उन वर्णिक छंदों का अभ्यास किया है। उन्हें आपके समक्ष रखता हूँ : 
छह वर्ण वाले गायत्री छंद के कुल चौंसठ भेद हैं। सात वर्ण वाले उष्णिक् जाति के १२८ भेद हैं और आठ वर्ण वाले अनुष्टुप् जाति के २५६ भेद हैं. यहाँ कुछ उदाहरण संस्कृत सूत्रों के साथ दे रहा हूँ।  मुझे कुछ छंद-भेद जाति नाम सहित प्राप्त हुए उतने ही उदाहरण रच दिये :


जाति = गायत्री ..... वर्ण = 6 ......कुल भेद = 64.....  
जाति = उष्णिक् ..... वर्ण = 7 ......कुल भेद = 128..... 
जाति = अनुष्टुप्  ..... वर्ण = 8 ......कुल भेद = 256..... 
[१] तनुमध्या — ताया तनुमध्या [ताराज यमाता — SSI  I SS]
[२] शशि वदना — शशिवदनान्यौ  [नसल यमाता —I I I  I SS ]
[३] विद्युल्लेखा — मा मा विद्युल्लेखा [मातारा मातारा — SSS SSS ]
[४] वसुमती — ता सा वसुमती [ताराज सलगा — SS I  I I S ]
[५] मदलेखा — मा सा गा मदलेखा [मातारा सलगा गा — SSS  I I S S ]
[६] कुमार ललिता — कुमार ललिता। ज साग सयुता है। [जभान सलगा गा — I S I  I I S S ]
[७] हंसमाला —  सरगा हंसमाला [सलगा राजभा गा — I I S  S I S S ]
[८] चित्रपदा — चित्रपदा भ भ गा गा [भानस भानस गा गा — S I I  S I I S S ]


१] तनुमध्या — ताया तनुमध्या
तू यौतुक है री! 
ओ वासकसज्जा! 
आलिंगन में आ 
छोड़ो अब लज्जा.

तेरे मुख जैसी 
लाली मय संध्या 
ताराधिप जैसी 
तन्वी तनुमध्या.
__________
यौतुक =  दहेज़,
वासकसज्जा = एक प्रकार की नायिका जो प्रियतम से मिलने के लिए शृंगार करके प्रतीक्षा करती है.
ताराधिप = तारापति/चन्द्रमा
तन्वी = कृशांगी
तनुमध्या = मध्य से कृश अर्थात कमर से पतली


[२] शशि वदना — शशिवदनान्यौ 
नयन चलाती 
पलक गिराती 
रति बन नारी 
मदन रिझाती.

मधुरम नारी
प्रियतम प्यारी
हँसि मत जा री
शशिवदना री!

[३] विद्युल्लेखा — मा मा विद्युल्लेखा
मामूली चिंगारी
हो जाती है शोला. 
गौरी आई जैसे 
कामी हूवे भोला.

विश्वामित्रांगो को 
था मैना ने देखा. 
जागे प्यासे नैना 
जैसे विद्युल्लेखा.
______
हूवे = हो गए

[४] वसुमती — ता सा वसुमती
"तू सुन्दर परी 
संध्या सहचरी
लाली पिय अरी! 
तू क्यूँकर मरी?" 

"आती छल निशा 
होती दुर् दशा 
हो लें अब सती"
भोली वसुमती! 
________
वसुमती = पृथ्वी

[५] मदलेखा — मा सा गा मदलेखा
माँ! संग्राम करूँगा 
तेरा नाम करूँगा 
तेरी ओर उठी जो 
आँखें वाम करूँगा. 

बाजी है रणभेरी 
मस्ती में गज देखा 
जीतेंगे अब पक्का 
जागी है मदलेखा.

[६] कुमार ललिता — कुमार ललिता। ज साग सयुता है। 
जिसे ग़लत जाना 
उसे फिर मिटाना 
निशा तम हटाके 
कलाधर कहाना. 

हटाकर बहाना 
निशा-यवनिका का 
सभी कुछ दिखाना 
कुमार ललिता का. 

[७] हंसमाला —  सरगा हंसमाला 
सुर गैया सुशृङ्गी! 
करुणा दृष्टि तेरी 
पड़ जाये यहाँ भी 
तुम आना पियारी. 

पयदेवी! पिलारी 
पय, मैं ब्रह्मचारी 
सुनना री, पुजारी 
बन आया यहाँ री. 

तुम ऎसी लगे हो 
दिखती कंठ माला 
तुम हंसी बनी हो 
फबती हंसमाला. 
____________
सुर गैया सुशृङ्गी = कामधेनु सुन्दर सींग वाली
पयदेवी = गाय, दुग्ध देवी.

[८] चित्रपदा — चित्रपदा भ भ गा गा
भारत भाग्य विधाता 
भूल गया इतराता.
गूँज रही रण भेरी 
गौरव गान गवाता. 

याद नहीं उसको है 
शायद भीषण होगा 
युद्ध, जहाँ रहने को 
जीवन भी मृत होगा. 

संभवतः बच जाये  
मानवता कुछ बाक़ी 
भावुकता तब बाँधे 
मानवता-कर राखी. 

ब्राह्मण वैश्य बचेंगे 
क्षत्रिय भारतवासी. 
चित्रपदा कहती है 
मानवता अविनाशी. 


प्रश्न : 
[१] उपर्युक्त आठ उदाहरणों में से कौन-से छंद गायत्री जाति के, कौन-से उष्णिक जाति के और कौन-से अनुष्टुप जाति  के हैं?
[२] दंडक छंद की सरल पहचान क्या है? 




मंगलवार, 31 मई 2011

'गप-गप-गप'

मेरी उर क्यारी में उगते
तरह-तरह के नव पादप.
जिसे देखकर हर्षित रहता
प्रेम निरंतर 'टप-टप-टप'.

कोई प्रतिदिन पुष्प दिखाता
कोई महीनों करता तप.*
गुणग्राहक समभाव हमारा
स्मृतियों में सामूहिक जप.

कोई चुल्लू भर ही पीता

कोई दिनभर गप-गप-गप.
बिना पुष्प वाले पादप को
करता हूँ ना 'हप-हप-हप'.*

कोई सदाबहारी पादप
कोई साधक बना विटप.*
सबके अपने-अपने गुण हैं
नयनों में सब जाते छप.

_________________________
* उपर्युक्त 'विषम मात्रिक' छंद में (पहली तारांकित पंक्ति में) एक मात्रा अधिक है लेकिन वह ''मात्रिक-विधान'
[कोई मासिक करता तप] से अधिक उपयुक्त लग रहा है. क्यों?
* हप-हप-हप — अपने से छोटे या प्रिय को प्रेमपूर्वक फटकार लगाने का भावयुक्त शब्द.
* विटप — पौधे का बड़ा रूप 'पेड़', जो छाँव देने योग्य हो जाये. साधकों से साक्षात कोई मीठा फ़ल बेशक न मिलता हो किन्तु उनकी अनुभवपरक छाँव में हमारे तमाम तनाव विलीन हो जाते हैं. कई दुर्लभ ऐसे भी होते हैं जो फ़ल भी देते हैं और छाँव भी... सभी का महत्व है... कम-ज्यादा आँक कर उनकी क्षमताओं में हीन-भावना नहीं डालनी चाहिए.
छंद विषयक़ चर्चा का कहीं अंत नहीं. फिर भी किसी पाठ को देने से पहले एक तैयारी होनी चाहिए. उस तैयारी के लिये मनःस्थिति से अधिक महत्वपूर्ण शंका-समाधान और विमर्श के लिये स्वयं को अविलम्ब झोंकना  होता है..उसके लिए अभी परिस्थितियाँ  उपयुक्त नहीं मिल पा रही हैं. छंद की पुस्तकीय सामग्री को जब तक अपने भावों का आवरण न पहना दूँ - कैसे कहूँ?  

गुरुवार, 26 मई 2011

विषैला आलिंगन

श्वासों का हो गया समन्वय 
हृदय अनल के घेरे में 
हो ढूँढ रहा था शीतलता-आलंबन।  

अनिल दौड़ता होकर निर्भय
गरम-गरम श्वासों का चलना 
जला रहा था हृदय का नंदन-वन। 

शीत्कार की ध्वनि, संकुचित 
भविष्य-द्वार, होता पर-शोषित 
कसी जा रही थी बाहों की जकड़न।  

संयम था आश्चर्य चकित 
निज पाक अनल में डाल दिया 
किसने चोरी से विषैला आलिंगन। 

कंदर्प-रति षड़यंत्र सफल 
कर, मुस्काते जाते ध्वनि करते 
निज हाथों से करतल, अन्तस्तल। 

संयम ने फिर जाल बिछाया 
काम रती* को दंड दिलाकर 
जोड़ दिया दुर्बल मर्यादा बंधन, ... क्रन्दन!!  
__________
*रती = सही शब्द रति

प्रश्न : उपयुक्त कविता किस कोटि की रचना कही जानी चाहिए ?
— शुद्ध शृङ्गार
— शृङ्गार रसाभास 
— शान्त रस 
— शान्त रसाभास