पतला ही रह गया रसायन 
नहीं हुआ वो गाढ़ा. 
क्षीर समझकर पीने आये 
हंसराज सित  काढ़ा. 
स्नेह शुष्क चौमासा बीता 
बीता थरथर जाड़ा.
लेते रहे अलाव विद्युती 
देह से स्नेहिल भाडा. 
दर्शन अभिलाषा की मथनी 
मथती कविता-काढ़ा. 
पर हंसराज मुख अम्ल मिला
पी जाते गाढ़ा गाढ़ा.