गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कवि तो केवल शब्द-भिखारी

[मेरा प्रत्योत्तर]
अरी! रूठ मत मुझसे प्यारी.
भाव नहीं अपना व्यभिचारी.
तुझको ही हर कलम-वपु में
पाया मैंने है संचारी.

एक बेड* शिक्षा-व्यापारी
उनकी परि-इच्छाएँ** कुँवारी
उनके मोह जाल में मैंने
समय दिया था बारी-बारी.

लेकिन तेरी भय बीमारी
अविश्वास करती है भारी.
ह्रदय-वृक्ष के शब्द-फलों का
सार छिपाया सबसे प्यारी.

तुम मेरी स्थूल अर्चना
मैं तेरा हूँ शब्द-पुजारी.
यदा-कदा टंकण से भी मैं
तुझको पूजा करता प्यारी.

मसी-सहेली! अब तो तेरी
पूजा करते अमित-पुजारी.
कवि केवल लिपि-राह चलाता
वो ले जाते चिंतन गाड़ी.

कृष्ण और सुदामा में से
वरण करो ओ लिपि-कुमारी!
कवि तो केवल शब्द-भिखारी
तर्क-वितर्क के अमित-मदारी.

[ *बेड — BEd , **परि-इच्छाएँ — परीक्षाएँ ]

मसी-सहेली का उलाहना  -----------

एहो प्रियवर! रुष्ट हूँ तुम से जाओ
बितायी कहाँ इतनी घड़ियाँ बतलाओ
निज पाणी-पल्लव की द्रोण-पुटिका में भरकर
उर-तरु के मधुर फल का सार किसे पिलाया

मैं वधु-नवेली मिलन आस में सिकुड़ी सकुचाई
भय मन में क्या उनको नगरवधू कोई भायी
भय शमन करो आस पूर्ण करो करो त्रास निर्वाण
कवि आलिंगन मसि का करो हो अमित निर्माण
[अमित जी द्वारा रचित इस कलम-उलाहने के कारण
प्रतिक्रिया भी पाणि-पल्लवों के थिरकन का परिणाम है.]