बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

चिंता


हे चपल बालिके !  मस्तक पर 
आकर क्यों टेढ़ी चाल चलो? 
क्यों निज रसमय अभिशापों से 
वृद्धावस्था का जाल बुनो?

हे व्याल प्रिये ! डस छोड़ दिया. 
तुमने तन में विष घोल दिया. 
यादों के दुर्दिन द्वारों को 
क्यों निर्मम होकर खोल दिया? 

अरी भ्रू मध्य ठहरी रेखा ! 
अप्सरा रूप तुममें देखा. 
तुमने आशा बनकर, मुझको 
ठग लिया, छली, मिथ्या लेखा ! 

[इस बार केवल कविता, चिंता के कारण कुछ सूझ नहीं रहा.]