बुधवार, 12 मई 2010

स्वसा-निवेदन

"स्वसा बहिन भगिनी बहना"
भैया! मुझको कुछ तो कहना.
बँधवा हाथों में लो भैया
बहना का नेह निर्मित गहना.

जब भ्रातृहीन कन्या से की
जाती थी पापी की तुलना.
ना बनूँ कहीं वैसी उपमा
तुम छोडो ना मिलना-जुलना.

क्यों भ्रातृहीन कन्या पहले
समझी जाती थी भाग्यहीन.
भ्राता अभाव, पित की मृत्यु
पर खुद करती पति खोज-बीन.

पर मैं भैया तुमसे ऐसा
सम्बन्ध जोड़ने आई हूँ.
मैं उषा और तुम दिवा भ्रात
सूरज-सी राखी लाई हूँ.

[मेरा मन किया कि आज बहन के प्रेम को रूप दिया जाये. इसके लिए दो-महीने का इंतज़ार नहीं हुआ.]
[सूचना — अब से मैं अँधेरे में तीर चलाया करूँगा. टिप्पणी-बॉक्स हटा रहा हूँ. क्योंकि मेरा सारा ध्यान ना आने-वाली टिप्पणियों पर लगा रहता है इससे नव सृजन बाधित होता है.]

कोई टिप्पणी नहीं: