मंगलवार, 10 अगस्त 2010

साखी

मुझे तुमने माना है क्या?
बताना है तुमको अथवा
समझ जाऊँगा राखी पर
पिया या प्यारा-सा भैया.

आपका आँचल हरा-भरा
सदा लहराता है, पुरवा!
आपका यौवन छिपा-छिपा
हमीं पर करता है धावा.

अरी! जब आँचल हरा ज़रा
राह चलते पर छू जाता
आपका, नख से शिख तक का
हमारा गात काँप जाता.

बांधनी है तो बोलो री
हमारे हाथों पर राखी.
न देखो अब चोरी-चोरी
सभी शरमाते हैं साखी.


ये बोल एक वृक्ष मदमाती वायु से बोल रहा है जिसका आँचल हरियाली है.

[साखी — वृक्ष, यहाँ शाखाओं वाले को साखी कहा गया है]
जब तक अपरिचय रहता है तब तक सम्बन्ध निर्धारण नहीं होता. इसलिये मनोभावों के स्वच्छंद पक्ष को रखने का प्रयास करते भाव. आरोपण प्रकृति पर किया गया है.

4 टिप्‍पणियां:

Avinash Chandra ने कहा…

अरी! जब आँचल हरा ज़रा
राह चलते पर छू जाता
आपका, नख से शिख तक का
हमारा गात काँप जाता.

मधुर है, एवं गतिशील भी है...सबसे सुन्दर लगी यह पंक्तियाँ.. सौंदर्य और शिल्प दोनों ही बहुत अच्छा लगा.

Parul kanani ने कहा…

behad umda!

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

पवित्र रिश्ते पर पवित्र पुकार ......

अभी तो काफी दिन थे राखी में ......
चलिए तब तक एक और उम्दा सी बहन के लिए ......तोहफे में ......!!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मेरे एक मित्र ने इस कविता के कई अंशों में भावनात्मक स्तर पर धान्धलेबाजी बतायी है और संबंधों के घालमेल पर अपना वैयक्तिक विरोध दर्शाया है. फिर अपना आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि "कमाल है इसके विरोध पर कोई वक्तव्य क्यों नहीं आया".