मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

"तुमसे ही तो मेरी चाँदनी"

चाहा मन में बात करूँगी 
भैया से विवाद करूँगी 
चल दी पिकानद में विभावरी 
चन्दा से मैं आज़ लडूँगी. 


"क्यों मगन हो सोते रहते 
बहना से कुछ भी न कहते 
बस देते रहते भाभी की 
चिर नूतन अवदात चाँदनी."


"मैं हारूँगी या वो हारें 
आज़ शुभ्र लगते हैं तारे 
किसकी जीत सुनिश्चित होगी 
मेरी या भैया चंद प्यारे."


"पर पहले की तरह सदा वे 
फिर से हार स्वयं न जावें 
पूरे होकर धीरे-धीरे 
स्वयं नाश अपना न कर लें."


"भय लगता है भूल करूँगी 
भैया से अन्याय करूँगी 
पर फिर भी भैया यही कहेंगे 
'तुमसे ही तो मेरी चाँदनी'."


रविवार, 24 अक्तूबर 2010

भाव-विवेचन .... यदि देश-प्रेम सार्वजनिक वृत्ति होता तो देशद्रोहियों का जन्म ही नहीं होता

मित्र
आप पिछली बार मेरे साथ ही रहे उससे मुझे आगे बढ़ने की हिम्मत मिली. मैं इस बार स्थायी भाव को सहयोग करने वाले अन्य भावों के बारे में बताऊँगा . 
मेरी सभी बातें भरतमुनि, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ आदि आचार्यों द्वारा किये गये विचार-विमर्श और निष्कर्षों पर आधारित हैं. पहले कभी हमने रस-निष्पत्ति के बारे में परिचयात्मक चर्चा की थी. आज हम रस के महत्वपूर्ण अवयवों के बारे में सरल चर्चा करेंगे. 
रस के प्रमुख चार अवयव हैं — 
[१] स्थायी भाव ............जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं और आज भी करेंगे. 
[२] विभाव ..................जिसकी चर्चा आगामी कक्षाओं में करेंगे. 
[३] अनुभाव ................"
[४] व्यभिचारी भाव ......" 


— स्थायी भाव सभी के ह्रदय में वासना रूप में जन्मजात रहते हैं. हमेशा रहते हैं. 
— ये अनुभूतियाँ पढ़े और बेपढ़े, विद्वान् और मूर्ख सभी में पायी जाती हैं, जो अवसर आने पर जागृत और सुषुप्त होती रहती हैं. 
— ये अनुभूतियाँ या वृतियाँ बाक़ी अनुभूतियों की तुलना में अधिक तीव्र, गतिशील और सूक्ष्म होती हैं. 
— इन्हें आप मूल वृत्ति कह सकते हो, चाहे मौलिक मनोवेग कहो अथवा स्थायी भाव. 


इन वृत्तियों का आधार 'अहंकार' की दो मुख्य वृत्तियाँ हैं ............. 
वे हैं ....... [१] राग और [२] द्वेष, 
जो क्रमशः सुखात्मक एवं दुखात्मक प्रकृति की होती हैं. शेष वृत्तियाँ या अनुभूतियाँ स्थूल एवं अस्थायी होती हैं और इनकी संख्या देशकाल एवं वातावरण के अनुसार अनंत होती हैं. 


मित्र, आज की राष्ट्र विषयक रति (देशप्रेम) या प्राचीनकाल से चली आ रही प्रकृति विषयक रति को स्थायी भाव नहीं माना जा सकता क्योंकि एक तो रति का यह स्वरूप सार्वजनिक नहीं है और न ही सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक. यदि देश-प्रेम सार्वजनिक वृत्ति होता तो देशद्रोहियों का जन्म ही नहीं होता. यदि सार्वकालिक होता तो भारत में आज भी राष्ट्रीयता का अभाव क्यों होता? 


इससे स्पष्ट है कि राष्ट्र-प्रेम एक बौद्धिक प्रक्रिया मात्र है. ये ही तर्क समाज प्रेम/ प्रकृति-प्रेम या स्नेह आदि के संबंध में दिए जा सकते हैं. 


'हास' (जिसे आज के मनोवैज्ञानिक शायद चिह्नित नहीं कर पाए) और 'शोक' यदि देखा जाए तो सर्वाधिक पुष्ट मूलभूत प्रवृत्ति है. भवभूति ने इसीलिए 'एको रसः करुण एव' कहा है. 


लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि बच्चा जन्म के साथ दो ही वृत्तियाँ लेकर आता है. वह या तो रोता है या हँसता है. इनमें भी आप देखेंगे कि बच्चा रोता पहले है और हँसता बाद में है. 


अतः क्रम की दृष्टि से 'शोक' का पहला स्थान है और 'हास' का दूसरा स्थान है. 


इस बात को अगले भ्रमण में विस्तार देंगे. ठीक है मित्र ........ फिर मिलेंगे. दीपावली आ रही है विद्यार्थियों के लिये मिठाई खरीदनी है. आपको भी देने आऊँगा. नमस्ते. 



मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

हो 'पेय' आप मैं हूँ 'पायी'


मैं रहूँ मौन
तो कहे कौन 
'मन की बातें कुछ सकुचायी'. 

तुम सुन्दर हो 
दर्पण देखो 
'लज्जा अंतर की मुस्कायी'. 

करना विचार
है यही सार. 
हो 'पेय' आप मैं हूँ 'पायी'. 

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

भाषा में जटिलता क्यों आ जाती है?

मित्र!
आपकी रुचि कविता के तत्वों को जानने के प्रति क्यों नहीं बन पा रही है? इस पर मैंने काफी विचार किया और पाया कि


— जिसका अर्थ अनुमान से तय करना पड़े उससे तो विमुखता ही अच्छी.
— जिस क्षेत्र पर पंडितों ने ही अपना अधिकार मान रखा हो उसमें न जाना ही अच्छा.
— जो केवल काव्य-रसिकों के मनो-विनोद की स्थली हो उसपर विषयी-सुख कहाँ मिल पायेगा?
— जहाँ मनोरंजन के लिये विकल्पों की भरमार हों, कविता उस स्तर पर क्या रसानुभूति देगी?


मैं यह समझता हूँ कि आज कविता में व्यक्त शृंगार की उच्चावस्था के दर्शन अन्य माध्यमों के द्वारा सहजता से हो जाते हैं. उसके लिये उसे पाठक रूप धारण नहीं करना होता. शृंगार के पठन का वैकल्पिक सुख उसे गुगलीय दृश्य सुविधाओं से भी प्राप्त हो जाता है. जहाँ श्लील-अश्लील के नैतिक मापदंडों से सरलता से बचा जा सकता है. शायद मेरी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं.


मैं और सरल रूप देता हूँ. मैं लेखन या भाषण में उन बातों की प्रायः अच्छी अभिव्यक्ति नहीं कर पाता जिनकी मेरे व्यवहार में स्पष्टता है. जो साफ़-साफ़ पहचान ली जाती हैं. और उन बातों को मैं लेखन में अच्छे रूप से ले आता हूँ जो कहने में संकोच करता हूँ अथवा जो आपसे कह नहीं पाता.


मित्र, मन में कई मनोभाव ऐसे होते हैं जो अधिक विस्तार से स्पष्ट करके भी अस्पष्ट रह जाते हैं. और कई ऐसे होते हैं जो खुलकर सामने नहीं आना चाहते. इस बात को दूसरी तरह समझते हैं. समाज में आप दो-तीन तरह के लोगों को देखते होंगे.


— एक वे जो अपने अंगों के आकार-प्रकार (आकृति) को स्पष्ट करते हुए परिधान पहनते हैं. ..... आधुनिक किञ्चितवसना.


— दूसरे वे जो शालीनता का परिधान पहनते हैं, और उनका सौन्दर्य बाह्य रूप से प्रकट नहीं होता. उनमें छिपे सौन्दर्य को पहचानने के लिये उनसे परिचय करना होता है. थोड़ा समय लगता है उनको समझने में. वे जब समझ में आते हैं तो उनसे नज़रें नहीं मन जुड़ जाता हैं. ..... अवगुंठित दैदीप्यवसना.


— तीसरे वे जो अतिवादी परिधान के हिमायती हैं. उनका उद्देश्य न केवल सौन्दर्य को छिपाना होता है बल्कि समस्त गुणों को पहनावे के कैदखाने में सड़ते रहने देना होता है. चाहे वह शारीरिक सौन्दर्य हो अथवा मन, बुद्धि का सौन्दर्य हो. डाली पर लगे फूल को भी तो पूरे समय तक खिले रहने के लिये प्रकाश और ऑक्सीजन चाहिए ही होती हैं. ......... गलित संपुटितवसना.


मित्र, इसी तरह अर्थ की दृष्टि से भी तीन-चार भेद होते हैं :
तीन तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं. एक उतना प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी आपको चारों बताऊँगा.


[१] अभिधार्थ ........ जिसका अर्थ पूरा वही होता है जो समझा जाता हैं. जिसके आकार-प्रकार सभी को स्पष्ट (दृष्टिगत) होते हैं. ये अपने मुख्य अर्थ से ही रिझाना चाहते हैं. जैसे कि आधुनिक किञ्चितवसना. इसे वाच्यार्थ भी कहते हैं.
सरल उदाहरण — उड़न तश्तरी आजकल मेरे ब्लॉग पर नहीं आती. ............. इसका अर्थ वही है जो आप समझ रहे हैं.  


[२] लक्ष्यार्थ ........ जिसका अर्थ वही नहीं होता जो कहा जाता है. जिसके मुख्यार्थ से काम नहीं चलता. जिसे समझने के लिये एक चिपके अर्थ की मदद लेनी होती है. सटीक अर्थ तक पहुँचने के लिये उसपर पड़े अवगुंठन को उठाना होता है.
सरल उदाहरण — ब्लॉगजगत में आजकल बरगदों की छाँव तले ही विकास संभव हैं. .......... इसका अर्थ आपको समझाना पड़ सकता है. क्योंकि यहाँ 'बरगद' के लक्षित अर्थ को समझना जरूरी है. बरगद मतलब लम्बे समय से स्थापित बड़ा ब्लोगर.


[३] व्यंग्यार्थ/ व्यंजनार्थ ........ जिसका अर्थ पूरी तरह वह नहीं होता जो कहा जाता है. जिसके अर्थ के लिये तात्कालिक परिवेश से परिचित होना अनिवार्य शर्त है. शब्दों के द्वारा अर्थ नहीं प्राप्त किया जाता. बल्कि प्रयोजन समझकर अर्थ तक पहुँचा जाता है. ......... यह भी एक पकार से अवगुंठित दैदीप्यमान अर्थ होता है.
सरल उदाहरण — "रावण फूँकने वाले आज भी शतक लगा रहे हैं. दर्शन के पिपासु शून्य में ही संतोषी माता की छब देख रहे हैं." 
.............. अर्थ समझने के लिये आपको चिट्ठाजगत का सफ़र करना पड़ेगा. जहाँ रावण पर लिखी रचनाएँ शतक लगाने की ओर हैं. और वहीं दर्शन-प्राशन जैसे ब्लॉग भूखे बैठे हैं.  


एक अन्य भी अर्थ-प्रकार है "तात्पर्य"
[४] जिसमें अपने अनुमान के द्वारा ही अर्थ तक पहुँचा जा सकता है. प्रायः बुरके में बंद सौन्दर्य को या तो बंद ही रह जाना होता है. उसे कोई पाठक नहीं मिलता अथवा उसे कोई गुण-ग्राहक नहीं मिलता. ठीक 'गलित संपुटितवसना' की तरह.
सरल उदाहरण — "उस्ताद उस्ताद बनने के फिराक में हैं. शागिर्द शागिर्द नहीं रहना चाहते."
 ............. इसका अर्थ तो मेरी पाठशाला के विद्यार्थी ही बता सकते हैं. देखता हूँ वे बता पाते हैं या नहीं.


वैसे तात्पर्य शब्दशक्ति को मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट ने तर्कसम्मत स्थापित किया है जिसकी चर्चा बाद में कभी करेंगे.
मैं यह जानता हूँ कि यदि चर्चा भारी-भरकम हो जाती है तो आप भाग जाते हैं या आते नहीं.




गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

नयन करते हैं आज विलाप


[पुत्री की विदायी पर] 

नयन करते हैं आज विलाप 
दूर हो जाएगा खुद आप 
हमारे क़दमों से चुपचाप 
पगों का वो प्यारा पदचाप 
रहा अब तक जो मेरे पास 
कमी उसकी होवेगी आज़ 
समाहित होगा हर्षोल्लास 
भवन में शांत-व्यथित पद नाद. 

हास कितना दुखदायी आज़ 
खुशी कितनी पीड़ा में आज़ 
थरथराते मेरे संवाद 
विदा कैसे होगी वर साथ 
वधु कैसे सखियों को छोड़ 
जायेगी घर से कैसे दूर 
मिला अब तक जो घर में नेह 
पिया से पावेगी — संदेह! 

मौन को तोड़ आज़ निज नाद 
खूब रोवेगा जमकर आज़ 
किसी के घर की गुड़िया आज़ 
बनेगी दूजे घर की लाज. 
खुशी के अवसर के पश्चात 
पिता के नयनों से दिनरात 
अश्रुओं की होगी बरसात 
कहूँ मैं कैसे अपनी बात? 

अभी हँसते दिखते जो नयन 
भीग जायेंगे सारे, अयन 
पुनः हो जाएगा चिर मौन 
दशक-द्वय पहले जैसी पौन 
बहेगी, फिर से आँगन में 
पिता-माँ कहवेगा नित कौन? 

पिता के ह्रदय के उदगार 
रूप लेते हैं जब साकार 
स्वतः करता वो ही अभिसार 
नहीं यौतुक हैं ना उपहार. 

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

जो नहीं कभी सोचा मैंने

जो नहीं कभी सोचा मैंने 
वो भी तुमने कर दिखलाया 
समझा कीचड़ में कमल खिला 
भ्रम था मेरा तम था छाया. 


सरिता तुमको समझा मैंने 
पावन जल की पाया नाला. 
सविता प्राची की समझ तुम्हें 
कपटी मन की पाया बाला. 


कवि ने तुमको कविता समझा 
समझा तुमको जीवन दाता. 
पर यहीं भयानक भूल हुई 
निकली तुम निज काली माता. 


शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

उत्पादक रसों में मिलने वाले चार उत्पत्ति-हेतुत्व

मित्र 
मैं जानता हूँ कि आप अकेले में छिपकर ही घूमना पसंद करते हो. 
फिर भी मैं आपकी स्मृति को साथ लेकर इस काव्य जगत में घूमता हूँ. 
आपसे पिछली कक्षा में चार मूल रसों से उत्पन्न चार अन्य रसों के बारे में चर्चा की थी. 
आज उसी बात को कुछ आगे बढाता हूँ. 

नाट्यशास्त्र के व्याख्याकार अभिनव गुप्त ने चार उत्पादक रसों में क्रमशः चार प्रकार का उत्पत्ति-हेतुत्व बताया है.  [उत्पत्ति-हेतुत्व मतलब उत्पत्ति के कारण] 

[१] इसमें प्रथम प्रकार का उत्पत्ति हेतुत्व 
आभास अथवा अनुकृति से सम्बंधित कहा गया है. यह शृंगार में रहता है. 
उदाहरण के लिये 
एक वृद्ध एवं विकलांग नायक तथा षोडशी नायिका का शृंगार तदाभास मात्र बनकर रह जाता है. और उससे रति न उत्पन्न होकर हास ही उत्पन्न होता है. 
इसी से यहाँ शृंगार को हास्य का उत्पादक कहा गया है. 
[सरल उदाहरण : एक बूढ़ा आदमी जवान बनने के सभी हथकंडे अपनाकर किसी किशोरी से प्रेम की क्रियाओं में लिप्त दिखे तो वह हास्यास्पद हो ही जाता है. वह समाज में हास्य की वजह बनता है.] अब समझे गये ना कि शृंगार से हास्य पैदा होता है. 

[२] द्वितीय प्रकार का उत्पत्ति हेतुत्व फल से सम्बंधित कहा गया है. इसकी स्थिति रौद्र में देखी जा सकती है. रौद्र रस का फल या परिणाम किसी का वध या बंधन आदि होता है. ये वध तथा बंधन आदि पीड़ित पक्ष के लिये करुणास्पद हो जाते हैं. इसी से रौद्र से करुण की उत्पत्ति माननी चाहिए.
[सरल उदाहरण : यदि गृह-कलेश के चलते किसी पति ने क्रोध में अपनी पत्नी की ह्त्या कर दी तब ससुराल पक्ष में अथवा सभी सामाजिक व्यक्तियों में शौक (करुण रस) की उपस्थिति देखी जायेगी.] तो समझ गये ना कि रौद्र से करुण जन्म लेता है. 

[३] तृतीय प्रकार का उत्पत्ति-हेतुत्व भी यद्यपि फल से ही सम्बंधित है, पर यह रौद्र वाले उत्पत्ति-हेतुत्व से भिन्न है. इसमें एक रस दूसरे रस को ही फल मानकर प्रवृत्त होता है. इसका उदाहरण वीर रस है, जो अपने उत्साह से जगत को विस्मित करने के ही लिये प्रयुक्त होता है, और फल रूप में अदभुत रस को जन्म देता है. 
[सरल उदाहरण : मुम्बई के ताज हमले में भारतीय कमांडों ने आतंकवादियों को न केवल घुसकर मारा अपितु एक को ज़िंदा पकड़ भी लिया. इस घटना के सीधे प्रसारण ने समस्त भारतीयों के मन में विस्मय का संचार कर दिया.] इस तरह सैनिकों के वीर कर्म को देखकर टीवी दर्शकों के मन में 'वाह-वाह करता हुआ' अदभुत रस अवतरित हुआ. 

एक बात और मित्र, रौद्र और वीर में अंतर समझ लेना जरूरी है ..... जहाँ वीर रस में केवल अपने उत्साह से जगत को अचंभित करना फल माना जाता है वहीं रौद्र रस में शत्रु वध आदि को ही फल समझा जाता है. एक में केवल अपना कौशल दिखाना उद्देश्य है दूसरे में अनिष्ट कर देना ही उद्देश्य है. 

[४] मित्र आपका प्रश्न था कि वीभत्स को कैसे भयानक का उत्पादक कहा गया है? 
अभिनव ने चतुर्थ उत्पत्ति-हेतुत्व को समान-विभावत्व से सम्बंधित बताया है. इसकी स्थिति वीभत्स में देखी जा सकती है. वीभत्स रस के रुधिर-प्रवाह आदि विभाव, मरण, मूर्च्छा आदि व्यभिचारी तथा मुख सिकोड़ना आदि अनुभाव भयानक में भी होते हैं. अर्थात अंगों का काटना तथा खून का बहना आदि देखकर एक पक्ष में भय की भी उत्पत्ति होती है. इसी कारण से वीभत्स रस को भयानक का उत्पादक कहा गया है. 
हाँ यह बात सही है कि हर बार हमारी घृणा (जुगुप्सा) भय में नहीं बदलती. फिर भी दोनों के विभाव, अनुभाव और संचारी भाव एक समान ही हैं. अगली कक्षा में इनके बारे में विस्तार से बताऊँगा.
[सरल उदाहरण : किसी घायल के नासूरों को देखकर अथवा किसी कोढ़ी के गलते अंगों को देखकर अनायास किसी स्वस्थ व्यक्ति के मन में घृणा के भाव आ सकते हैं और परिस्थितिवश  उसे रात्रि को उसके पास रुकना पड़े तो वह भाव भय में भी बदल सकता है.] तो इस तरह वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है. 




शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

पलकों ने खोला दरवाजा


पलकों ने खोला दरवाजा 
तो पुतली ने बोला - "आजा, 
क्यों शरमाते भैया राजा! 
मैं नेह लिये आयी ताज़ा". 

कल सोने से पहले बोली -
"भैया, बन जाओ हमटोली. 
मेरी उठने वाली डोली 
फिर खेल न पायेंगे होली". 

चल खोजें अपना भूतकाल 
मैं रोली थी तुम रवि-भाल. 
भू पर फैला था छवि-जाल. 
पर राका बन आ गई काल. 

हल होने दें सीधा-सादा. 
मैं करती हूँ तुमसे वादा.  
यदि पाऊँगी कुछ भी ज़्यादा 
हम बाँटेंगे आधा-आधा. 

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

तुम एक अगर होती तो मैं

[कच-देवयानी का एक प्रकरण : जिसमें कच के देवयानी के प्रति मनोभाव]

तुम एक अगर होती तो मैं
तुमसे ही कर लेता परिणय.
खुद में नारी के रूप सभी
कर लिये आपने पर संचय.


तुझमें देखूँ मैं कौन रूप
मैं असमंजस में बना स्तूप.
तुमको छाया मानूँ अथवा
मैं मानूँ तुमको कड़ी धूप.


मैं दो नदियों के बीच मौन
संगम जैसी पावन धारा.
तुम मलयगिरी की हो सुगंध
मैं हूँ व्योम गंधित तारा.

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

रसों की स्वाधीनता और पराधीनता ................. मित्र से बातचीत

मित्र,

आपको याद होगा आपसे बातचीत में एक बार मैंने रस-चर्चा की थी. और उसमें कुछ मूल और कुछ उत्पन्न रसों के विषय में बताया था. तब मेरा वर्षों से छूटा अन-अभ्यास और आपकी भोजन-प्रतीक्षा के कारण उस चर्चा से मिल रहे बतरस-सुख का भंग हो गया था. आज उस पाठ को दोहराता हूँ.

नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने शृंगार, रौद्र, वीर, तथा वीभत्स; इन चार रसों को उत्पादक अर्थात मूल रस माना है. शेष चार हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक को क्रमशः उक्त रसों से उत्पन्न होने वाला कहा गया है.

शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अदभुत तथा वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है. एक तालिका के द्वारा हम इसे फिर से समझते हैं :

स्वाधीन रस ___________________________ पराधीन रस

....शृंगार ................................................................. हास्य ....

......वीर ................................................................. अदभुत ....

..... रौद्र .................................................................. करुण .....

..... वीभत्स .......................................................... भयानक .....

जो शृंगार की अनुकृति है वही हास्य रस कहा जाता है, जो रौद्र का कर्म है वही करुण रस है तथा वीर का कर्म अदभुत रस है. साथ ही, वीभत्स का दर्शन ही भयानक रस कहा जाता है.

मित्र, आगे बढ़ने से पहले, अब प्रयुक्त शब्दावली में जो जटिलता हो पहले उसे पूछ लेना. और फिर जो मन में प्रश्न उठते हों उनका निवारण कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा.

इतना विश्वास जानो कुछ ही समय पश्चात आपसे एक श्रेष्ठ कविता का सृजन करवा ही दूँगा. बस आप धीरे-धीरे मेरे साथ इस काव्य-जगत में घूमते रहो.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

काव्य-चर्चा .............. मित्र से बातचीत

प्रिय जिज्ञासु मित्र विचारशून्य साधक दीप जी, 
मैं नहीं चाहता मेरी शृंगारिक शैली आपको क्षणिक हर्ष देकर आपके जीवन का अनमोल समय क्रय कर ले. फिर भी चाहता हूँ कि आप कभी काव्य-जगत में घूम कर तो देखें, जाने की इच्छा न कर पायेंगे. 
आप कहते हैं कि आपने कवितायी और अलंकारों की दीवारों के पार कभी नहीं झाँका. मैं आपको इन ऊँची दीवारों के पार लिये चलता हूँ. आपकी यह यात्रा सीढ़ी-दर-सीढ़ी होगी मतलब धीरे-धीरे.
इस दौरान मैं केवल उन काव्यशास्त्रीय आचार्यों की बात ही दोहराऊँगा जो स्थापित हैं. यदा-कदा मेरी स्थापनाओं की मौलिकता के दर्शन भी होंगे जिसका किसी कौने में उल्लेख भी करता चलूँगा.
तो आज से तैयार हैं ना आप? यह काव्य-पाठशाला काव्य-रसिकों के लिये भी खुली हुई है.  
_______________________.
अभिमान से रति का जन्म होता है और जब रति व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट होती है 
तब उसे शृंगार रस कहते हैं. 


मित्र, पहले स्थायी भावों के बारे में जान लेते हैं...
— सुख के मनोकूल अनुभव का नाम ............... रति है.
— हर्ष आदि से मन का जो विकास होता है ............ हास है. 
— प्रिय के विनाश से मन की विकलता ............... शोक है. 
— किसी शोकातिशायी वस्तु के देखने से उत्पन्न चित्त विस्तार ............ विस्मय है. 
— किसी प्रतिकूल परिस्थिति में समुत्पन्न तीक्ष्णता ............ क्रोध है.
— ह्रदय में उत्पन्न पौरुष ............... उत्साह है. 
— किसी चित्र अथवा भयंकर दृश्य को देखने से चित्त की व्याकुलता ........ भय है. 
— गंदी वस्तुओं के निन्दात्मक भाव .............. जुगुप्सा हैं. 


— निर्वेद संचारीभाव का उल्लेख फिर कभी करेंगे. 
     साधु भावों  को सामाजिक भावों से पृथक रखना ही श्रेयस्कर है.