मंगलवार, 14 सितंबर 2010

शटल-चरित्र

है शुष्क नहीं बाहर का तल
ये समझ चुका है अंतस्तल. 
मैं तो भीतर की बात करूँ 
संवादों में ना है 'कल-कल'. 

'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल. 
जो शुष्क हो रहा है पल-पल, 
पिघलेगा नहीं तो झेलेगा 
संवादों की बौद्धिक दलदल. 

दलदल का बाहर स्निग्ध पटल
दृग फिसल रहे, पग नहीं अटल. 
मनोरंजन ही करता 'चरित्र' 
बनकर दो रैकेट बीच शटल. 

एक नया रूपक : 
* 'स्त्री-बौद्धिकता' मतलब 'शटल चरित्र' 
जब कोई स्त्री बुद्धि-प्रधान बातें करती है. तब वह वैचारिक-भूमि पर पुरुष बुद्धियों के रैकटों के बीच शटल कोक की तरह मनोरंजन देती है.

** 'दलदल का बाहर स्निग्ध पटल' : 
एक दलदल ऎसी भी जिसकी ऊपरी परत फिसलन भरी हो और अंदरूनी दलदली हो. 
दोहरा नुकसान, हलकी हों तो जाने से फिसल जाएँ. भारी हों तो जाने से धँस जाएँ. 
पहले हलकी [दृष्टि] गयी, फिसल गयी.  
बाद उसके भारी-भरकम कदम बढ़े, वे भी धँस गये.

*** 'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल.
.... इसे बाक़ी तीन पंक्तियों से अलग पढ़ना है, एक सूत्र की तरह. 

[दिव्या जी द्वारा पिछली पोस्ट में की गयी काव्य-टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया]