शनिवार, 27 नवंबर 2010

दर्शन पिपासा

आप धुंधले हो गये 
धुंधली स्मृति की तरह 
उपनयन का अंक मेरा  
बढ़ गया चुपचाप है. 


दर्शन पिपासा है अभी 
कुछ शेष अब भी नयन में 
संग्रह नहीं स्वभाव है 
तुम सतत दिखते ही रहो. 


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उपनयन : यहाँ अर्थ है 'चश्मा' या ऐनक 


शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मधुर स्मृति का बलात कर्म

मेरा मौन में निवास था लेकिन मेरे प्रिय मौन में आपका आगमन हुआ. आपको मेरा मौन भा गया. आपको मेरे मौन के प्रति लोभ हुआ (नीयत बिगड़ गई). आपने धीरे-धीरे मेरे निजी मौन पर आधिपत्य जमा लिया. मैं मौन से बाहर आ गया. इस आपदा को विस्मृत करने के लिये मैंने नाद के आवास में शरण ली. लेकिन मेरा मौन से ही मोह था, सो मैं पुनः मोह के परिवेश में जाने को उत्सुक हुआ. मोह में पुनः निवास पाने के लिये आपने मुझसे कुछ शर्तें रखीं —
पहली शर्त, आपसे मैं परिणय करूँ.
दूसरी शर्त, आपको मैं हमेशा अपने संग ही रखूँ - प्रत्येक परिस्थिति में.


रविवार, 21 नवंबर 2010

स्वर का थर्मामीटर


हमारे शरीर का तापमान जब अधिक होता है तब हम जान जाते हैं कि हमें ज्वर है, वातावरण कुछ गरम हुआ नहीं कि हम कहने लगते हैं कि 'उफ़ गरमी'. जब कोई कुपित होता है तब हम जान जाते हैं कि स्वर में कितना तापमान है. इस प्रकार आपने देखा कि शरीर का, जलवायु का और स्वर के तापमान का अनुमान लगाने में हम सक्षम हैं. स्वर की अपनी भी कुछ विशेषताएँ होती हैं — मधुर, कर्कश, कम्पित, भंग, अस्फुट...

स्वर के तापमान का सही-सही अनुमान लगाया जा सके. इसके लिये हम यदि एक चिह्नित पैमाना बना लें तो सुविधा होगी. 

स्वर का थर्मामीटर

| ............v ............ v ............. v ............ v ............ v ............. v ............ v ............ v ............ v ............. |
0 ........ 10 .......... 20 .......... 30 .......... 40 .......... 50 .......... 60 .......... 70 .......... 80 .......... 90 .......... 100
| ............^ ............ ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............ ^ ............. |

000 = निःशब्द स्वर [भय की पराकाष्ठा]
...........स्वर क्रियाहीन हो जाता है.
...........परिणाम ............[सदमा]

010 = भयातुर स्वर
..........स्वर सिमटने लगता है.
.........परिणाम ............[घबराहट]

020 = शांत स्वर 
........... स्वर अंगडाई लेता लगता है.
............परिणाम ............[संतोष] कई तरह के मानसिक तनावों से मुक्ति

030 = पिशुन स्वर
..........स्वर दबे पाँव चलता है [चुगली]
 ..........परिणाम ............[असंतोष] कई तरह के मानसिक तनावों से मुक्ति

040 = हास्य स्वर
..........स्वर भागता हुआ लगता है.
......... परिणाम ............[संतोष] कई तरह के शारीरिक तनावों से मुक्ति

050 = संयत स्वर 
...........स्वर संभलता हुआ-सा बढता है.
........ ...परिणाम ..........  [धैर्य] मनोबल बढ़ता है.

060 = व्यंग्य स्वर
...........स्वर आड़ा-तिरछा चलता लगता है.
............परिणाम .......... आड़े-तिरछे चलते स्वर को मद्यप-कथन जान लोग उसे हलके में लेते हैं.

070 = निंदा स्वर
..........स्वर फैलने लगता है [आलोचना]
...........परिणाम .......... विशेष पहचान बना पाने का सुख

080 = तिक्त व्यंग्य स्वर 
...........स्वर खिंचने लगता है [कटाक्ष]
............परिणाम ...........[जय-तृप्ति] जीतने की भूख की शांति

090 = अपशब्द स्वर
...........स्वर लडखडाता है[आक्रोश]
..........परिणाम ........... [अशांत मन]

100 = अवरुद्ध स्वर [क्रोध की पराकाष्ठा]
...........स्वर रुक जाता है.
...........परिणाम ...........सदमा या मूर्च्छा

इस पैमाने की अति निम्नावस्था का प्रभाव है निम्न रक्तचाप LBP [Low Blood Pressure]
और अति उच्चावस्था का प्रभाव है उच्च रक्तचाप HBP [High Blood Pressure] 

बुधवार, 10 नवंबर 2010

तिलक हस्त


वो तिलक हस्त 
मस्तक तक आ 
आनंद दे गया था मुझको. 
बेझिझक ताकते 
थे दो चख 
आशी देते मानो हमको. 

थे रिक्त हाथ  
दो टूक बात 
मैं बोल नहीं पाया तुमको. 
हो चतुर आप 
कर बिन अलाप 
छीना तुमने मेरे मन को. 


['दौज-तिलक' जब मैंने काल्पनिक तिलक-हस्त से करवाया और निरंतर ताकते नेत्रों से आशीर्वाद पाया.]

शनिवार, 6 नवंबर 2010

अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ

मित्र ! आज आपको काव्य-जगत में घुमाने से पहले भाषा की एक संकरी गली में घुमाने का मन हो आया है. आप जानते ही हैं कि भाषा मानव के व्यवहार का प्रमुख साधन है. मनुष्य स्वयं परिवर्तनशील है इसलिये उसका प्रमुख व्यवहार 'भाषा' कैसे स्थिर [अपरिवर्तित] रह सकता है. 

भाषा में परिवर्तन की यह प्रक्रिया उसके अंगों [शब्द और अर्थ] को प्रभावित करती है. 


मित्र, गली ज़रा संकरी है इसलिये थोड़ा ध्यान से और संभलकर बढ़ते हैं. जो 'नौसिखिया' विद्वता के घमंड में अंधाधुंध आगे बढ़ता है उसे केवल भाषा के अनर्थ [खरोंचे] ही हाथ लगते हैं. अतः संभलकर. ....

अर्थ-परिवर्तन या विकास की तीन दिशाएँ मानी जाती हैं : 
१] अर्थ-विस्तार [Expansion of Meaning] 
२] अर्थ-संकोच [Contraction of Meaning] 
३] अर्थ-आदेश [Transference of Meaning]  

[1] अर्थ-विस्तार : अर्थ-परिवर्तन का ऐसा प्रकार है जिसमें एक शब्द सीमित अर्थ से निकलकर अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है.
'प्रवीण'  ............ का अर्थ पहले (केवल) .......... वीणा बजाने में Expert होता था, किन्तु धीरे-धीरे इस शब्द के अर्थ का विस्तार हुआ और आज हर प्रकार के वाद्य-यंत्रों को बजाने में Expert, हर प्रकार के अच्छे-बुरे कार्यों के करने में Expert (दक्ष) व्यक्ति को 'प्रवीण' कहा जाता है. भले ही वह कलम चलाने की बजाय माउस की-बोर्ड चलाने में Expert हो. या फिर चाकू बन्दूक चलाने में Expert हो. 
'कुशल' ............. का अर्थ पहले (केवल) ......... कुश के चयन में चतुर एवं निष्णात व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता था. किन्तु आज़ इस शब्द का प्रयोग हर प्रकार के अच्छे-बुरे कार्य में चतुर व्यक्ति के लिये होने लगा है. 
'साहसी' .......... का अर्थ पहले (केवल) .......... डकैतों के लिये प्रयुक्त होता था, पर आज़ यह शब्द हर कार्यों में साहस प्रदर्शित करने वाले के लिये होता है. 
'स्याही' .......... का अर्थ पहले (केवल) .......... काले रंग की ink के लिये होता था, पर आज यह लेखन में आने वाली काले, नीले, हरे, लाल, आदि रंग की हर प्रकार की ink को स्याही कहा जाता है. 
'तैल' ............ का अर्थ पहले (केवल) .......... तिल के तैल के लिये प्रयुक्त होता था, पर आज़ यह हर प्रकार के तैल (तेल) चाहे वह सरसों का हो या आँवले का हो या फिर मिट्टी के तेल के लिये प्रयुक्त होता है. 
'अभ्यास' ....... का अर्थ पहले (केवल) ........ धनुष-बाण चलाने के लिये होता था पर आज यह हर प्रकार की दोहरावट (पुनरावृत्ति) के लिये होता है. चाहे वह कक्षा का पाठ हो, या उसे याद करने की प्रक्रिया हो. 
'गवेषणा' ........ का मूल अर्थ पहले (केवल) ..... 'गाय की खोज करना' था परन्तु अब किसी भी प्रकार की खोज का वाचक बन गया है. 

जयचंद, विभीषण, नारद जैसी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का भी अर्थ-विस्तार हो चुका है.  
आज कन्नौज के राजा के अतिरिक्त हर विश्वासघाती व्यक्ति को जयचंद की संज्ञा से अभिहित किया जाता है. 
रावण का भाई विभीषण आज़ घर के भेदी के रूप में व्याप्त है और 
देवर्षि नारद आज़ उन व्यक्तियों के पर्याय बन गये हैं जो इधर की बात क्षण भर के अंतराल में दूसरी तरफ पहुँचाकर संघर्ष की स्थिति पैदा कर देते हैं. 

कुछ अन्य शब्द जो अपना अर्थ-विस्तार बनाने की फिराक में हैं : 
'नेता' ............. भई वह वादा निभाने में 'नेता' है. उससे कोई उम्मीद मत रखना. ......... मतलब ....... अविश्वसनीय/ ग़ैर-भरोसेमंद 
'मुसलमान' ....... महिलाओं पर बंदिशें लगाने में मैं 'मुसलमान' हूँ. ................ मतलब ............ कट्टर / क्रूर 

[2] अर्थ-संकोच : अर्थ-परिवर्तन का ऐसा प्रकार है जिसमें कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था किन्तु बाद में वह सीमित अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है. 
'गो' ............. शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............... चलने वाला, ............ किन्तु आज़ सभी चलने वाले जीवों को 'गो' न कहकर केवल 'गाय' को ही 'गो' कहा जाता है. 
'जगत' ......... शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............. खूब चलने वाला ....... किन्तु आज़ यह रेलगाड़ी; हवाई जहाज; बस का प्रतीकार्थक न होकर केवल संसार का अर्थ देता है. 
'मृग' ........... शब्द का प्रारम्भिक अर्थ था ............. जंगली जानवर ......... किन्तु आज़ यह केवल एक प्राणी विशेष (हिरन) के लिये रूढ़ हो गया है. 
'सभ्य' .......... का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है सभा में बैठने वाला पर आज़ सभा में बैठने वाला हर व्यक्ति सभ्य नहीं होता. 
'जलज' ........ आज जल से निष्पन्न सभी चीजों को नहीं कहा जाता. केवल कमल के लिये रूढ़ हो गया है. 
...................... 'धान्य' और 'दुहिता' शब्द इसी कोटि के हैं. 
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इस वर्गीकरण का अधिक विस्तार बाद में कभी किया जाएगा.

[3] अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन. अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, अपितु वह पूर्णतया बदल जाता है. मतलब पहले किसी अर्थ में प्रयुक्त होता था, या कसी वस्तु का वाचक (नाम) था; बाद में किसी दूसरे अर्थ अथवा दूसरी वस्तु का वाचक बन गया. यथा 
'असुर' शब्द वेद में देवता का वाचक था, किन्तु बाद में यह राक्षस या दैत्य का वाचक बन गया. 

अर्थादेश की दो स्थितियाँ होती हैं — (१) अर्थोत्कर्ष [अर्थ का उत्कर्ष], (२) अर्थापकर्ष [अर्थ का अपकर्ष] 

कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है बाद में अच्छा हो जाता है, परिवर्तन की यह प्रक्रिया अर्थ का उत्कर्ष कहलाती है. जैसे .......... साहसी, मुग्ध
— साहसी पहले डकैतों के लिये और मुग्ध मूढों के लिये प्रयुक्त होता था किन्तु अब यह क्रमशः अच्छे कार्यों में हिम्मत का प्रदर्शन करने वाले तथा मोहित हो जाने के अर्थ में प्रयुक्त होता है. 

कुछ शब्द पहले अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, पर बाद में बुरे अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं. अर्थ परिवर्तन की यह स्थिति अर्थ का अपकर्ष कहलाती है. जैसे ............ भद्दा, महाराज पंडित आदि. 
— 'भद्दा' शब्द भद्र से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ भला होना चाहिए; 
— 'महाराज' राजाओं के लिये प्रयुक्त होता था पर आज़ भंडारी, भोजन बनाने वाले का वाचक है. 
— 'पंडित' शब्द पहले विद्वान् का वाचक था पर आज मूर्ख ब्राहमण का भी वाचक है. 

'पाखंड' ........ इस नाम का मूलतः संन्यासी सम्प्रदाय था, लेकिन अब इसका अर्थ अपकर्ष हो गया. इसी तरह 'जमादार', 'जयचंद', 'विभीषण' आदि के अर्थ भी हीनतायुक्त हो गये हैं. 
'व्यवहारिका' .... मतलब दासी, किन्तु कुमाऊँनी में इसका अपभ्रंश शब्द ब्वारी है, जो अब 'पुत्रवधू' के लिये प्रयुक्त होता है.  

इस पाठ को काफी छोटा बनाने की कोशिश की गयी लेकिन फिर भी यह लंबा हो गया. इस पाठ में सम्मिलित जानकारियों का स्रोत फिलहाल मुझे मालुम नहीं है. क्योंकि इस पाठ की तैयारी मैंने अपने विद्यार्थी जीवन की कॉपी {पंजिका} से की है. 



बुधवार, 3 नवंबर 2010

मुस्कान मिष्टिका


कैसी लगी मिठायी चखकर
हमको ज़रा बताओ तो
लेकर अधरों पर हलकी
मुस्कान मिष्टिका लाओ तो. 

बहुत दिनों से था निराश मन
आस नहीं थी मिलने की.
लेकिन फिर भी मिला, मिलन
तैयारी में था जलने की. 

आप प्रेम से बोले — "सबसे
अच्छी लगी मिठायी यह".
यही श्रोत की थी चाहत
पूरी कर दी पिक नाद सह. 

मुरझाया था ह्रदय-सुमन 
खिल उठा आपका नेह लिये. 
बैठ गये खुद सुमन बिछाकर 
तितली से, सब स्वाद लिये. 

दीप जलाकर मेट रहा था 
ह्रदय-भवन की गहन अमा. 
किन्तु चाँदनी स्वयं द्वार पर 
आयी बनकर प्रिय...तमा. 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

तुम एक बार फिर से आवो

तुम एक बार फिर से आवो 
कह दूँगा सब मैं झिझक खोल 
अटके जिह्वा पर शब्द कई 
फूला जाता मेरा कपोल. 


संकोच नहीं कहने देता 
लक्ष्मी, तुमसे दो मधुर बोल. 
ओ चारु देवि! करते कर्षित 
विस्फारित लोचन श्याम लोल. 


मन सुखी नहीं रहने देता 
ओ सुन गणेश ग..ग गोल-गोल. 
उपचार कोई-सा बतला दो 
बढ़ जाय आपसे मेलजोल. 


सोमवार, 1 नवंबर 2010

प्रेम-पत्र

ए ! दिन पर दिन बीते जाते
पर तुम ना मेरे घर आते
मैं जोड़ रही तुमसे नाते
पर तुम मुझसे क्यों घबराते.

सूरज से बोल रहीं रातें
मैं आती हूँ करने बातें
पर मेघपटल पर प्रेम-पत्र
तुम छोड़ यहाँ से भग जाते.

भैया-चंद तुमसे दिव लेकर
मुझ पर सुन्दरता बरसाते
पर एक बार भी मेरे घर
तशरीफ नहीं तुम फरमाते.