बुधवार, 11 अगस्त 2010

भानु-भामिनी

वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी.
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.

नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.

मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनाना चाहे तिया, कामिनी.

[ वियत — आकाश;
प्रतूलिका — गद्दा;
अभ्यागत — अतिथि;
भानु-भामिनी — सूर्य क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति;
यामिनी — रात्रि;
कंज — कमल;
कंदर्प — कामदेव;
अंध — गहन;
दर्पक — कामदेव, अभिमानी;
द्विज-दर्पण — चन्द्रमा रूपी दर्पण;
द्विज मतलब जिसका दो बार जन्म होता हो; अंडज प्राणी, पक्षी, सर्प; चन्द्रमा; ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो - ये सभी द्विज कहे जाते हैं.
तिया — स्त्री, पत्नी;
कामिनी — कामयुक्ता स्त्री ]
व्याख्या : आकाश में काले मेघों के गद्दे पर 'भानु' नायिका क्रोधोन्मत्त स्त्री की भाँति लेटी हुई सोच रही है — "यदि 'रजनी' अप्सरा बिना सूचना दिए [अर्थात अतिथि बनकर] आयी तो मैं उससे प्रतिकार लूँगी. क्योंकि वह हमेशा वसुधा पर रहने वाले प्रेमियों के हृदयों पर कमल मुकुलित करती [हृदयों को उत्तेजित करती] हुई अपने 'कामदेव' नायक के साथ अंग-प्रदर्शन करती हुई गहन रात्रि में नृत्य करती है."
इस बात की प्रमाणिकता के लिये 'भानु' नायिका सोचती है — "यदि इसमें तथ्य है तो मैं चन्द्रमा रूपी दर्पण से कामदेव के साथ नाचने वाली उस लज्जाहीन रजनी [अप्सरा] को देखूँगी. मैं यह भी पता लगाऊँगी कि क्या वह रजनी [काम्युक्ता स्त्री] मेरे प्रियतम कवि की स्त्री होना तो नहीं चाहती?"
[ मेरी स्मृति में बसे रहने वाले प्रिय मित्र धर्मराज अमित शर्मा जी को समर्पित]