रविवार, 19 दिसंबर 2010

कर-अली


कर क्या देखो वातायन से 
इस घर के घुप्प अँधेरे में. 
क्या त्याग दिया तुमको रवि ने 
जो आयी पास तुम इस तम के. 

कर बोली - तुम पहले बोलो, 
क्यों बैठे हो आकर तम में. 
क्या छोड़ दिया है साथ तुम्हारा 
किसी वंचक-सी, सहेली ने? 

हाँ कहकर मैंने धीरे से, 
गरदन को अपने झुका लिया 
वो भाग गयी है छोड़ मुझे, 
ना है कोई मेरी और अली. 

कर बोली - मेरे स्वामी ने 
बनने को हेली बोला है. 
तुम भूल जाओ उस पल को 
जिसमें कि त्वं मन डोला है. 

है अनंत अली मेरे पिय की, 
निज देतीं सबको उजियाला. 
उर-व्यथा भार हलका करके, 
स्नेह देतीं हैं भर-भर प्याला. 

[कर-अली — किरण सखी ]