शनिवार, 1 दिसंबर 2012

तुम नक़ल, वो है असल 'आह'

 
ओ चन्द्रमा - सम प्रियतमा 
कै से क रूँ - तुम को क्षमा
है क्या मिला - जीवन जला 
तुम हो प र न्तु है अमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
मे रा प रा जि त प्रेम है 
उस पर बिगड़ता क्षेम है 
तुम व्यर्थ शीतलता धनी 
तन राख से उड़ता धुँआ।
ओ चन्द्रमा ...
 
हूँ देखता तुमको निरंतर 
नयन चल पाते कहाँ 
है दैव को स्वीकार कैसा
तुम वहाँ और मैं यहाँ।
ओ चन्द्रमा ...
 
वे दिन पुराने याद आते 
जागते जब थे निशा
होकर निशाचर घूमते 
था जीव तुझसे ही थमा।
ओ चन्द्रमा ...
 
ते रे द र्श न में मु झे 
मिलती रही पिय बेपनाह 
फिर भी कसक बाक़ी रही 
तुम नक़ल, वो है असल 'आह'
ओ चन्द्रमा ...


 
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अब से काव्य का सस्वर पाठ कर सकूँगा। कविता को पाठक अपनी रुचि अनुसार विलंबित, मध्यम या द्रुत गति से पढ़ता है। इसमें कवि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। जो पारंगत कवि होते हैं वे अपने शब्दों की बुनावट वैसी ही रखते हैं जैसी वे चाहते हैं। अर्थात उनकी चयनित शब्दावली गति की ओर स्वतः धकेल देती है। इसका अर्थ ये हुआ कि कविता में निहित 'गीति' शब्दों पर निर्भर है।
 
मेरे ब्लॉग का दूसरा युग 'सस्वर' आरम्भ हो रहा है। इस नवीनता को अपनाने में मेरे सहयोगी रहे हैं : अर्चना चावजी जी और संजय अनेजा जी। मैं कृतज्ञ भाव से उनका आभार व्यक्त करता हूँ।