बोलूँ ना बोलूँ ......सोच रही.
बोलूँगी क्या फिर सोच रही.
मन में बातें ...करने की है
इच्छा, लज्जा पर रोक रही.
कुछ है मन में थोड़ा-सा भय.
संकोच शील में होता लय.
पलकों के भीतर छिपे नयन
मन में संबोधन का संशय.
"प्रिय, नहीं आप मेरे प्रियतम
मन में मेरे अब भी है भ्रम
प्रिय हो लेकिन तुम 'प्रिये' नहीं
ये लज्जा तो केवल संयम."
"क्या संयम पर विश्वास करूँ?
या व्यर्थ मान लूँ इसको मैं?
आनंद मिलेगा अंत समय?
क्या संयम देगा लम्बी वय?"
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर गीत!
बहुत उम्दा!
प्रतुल जी यह कमेन्ट आपकी पोस्ट
"नर की लज्जा बदरंग गाय" के लिए है शायद टिपण्णी देने में थोड़ी देरी है पर अपने भावों से अवगत कारण चाहता था इसलिए इस पोस्ट पे यह टिपण्णी दे रहा हूँ . विषय विरुद्ध टिपण्णी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ .
बिलकुल सही बात उठाई है आपने, नारी कि लज्जा उसका कवच ही है आभूषण नहीं. क्योंकि आभूषण सिर्फ दिखाने के लिए होते है, सौन्दर्य बढ़ाने के लिए होते है. जबकि कवच या वस्त्र सुरक्षा के लिए होते है. अगर कोई नारी लज्जा को मात्र आभूषण के लिए ही अंगीभूत करती है तो दिखावा ही है क्योंकि समय के फेर में आभूषण उतर भी सकते है और नर उसके भावों का गलत अर्थ लेकर सुरक्षा से खिलवाड़ भी कर सकता है ,या नारी स्वयं भी लज्जा रुपी आभूषणो का आवरण हटा कर अपने शील कि सुरक्षा किसी समय विसर्जित कर सकती है.
जबकि लज्जा स्त्री के वस्त्र या कहे कि कवच है तो कतई अतियोशक्ति नहीं होगी, इसे ऐसे समझे कि शरीर पे लज्जा रूपी वस्त्रों का कवच नहीं है और मात्र लज्जा को आभूषणो कि भांति धारण किया है तो क्या शील कि रक्षा हो पायेगी या स्त्री सुन्दर लगेगी बिलकुल नहीं.
जैसा कि तुलसी बाबा ने कहा है कि---
वसन हीन न सोह सुरारी सब भूषण भूषित बर नारी
आपकी रचनाये पढ़ते समय किसी अन्य संसार में आने का भ्रम सा बन जाता है...बड़ी दार्शनिक सोच यहाँ झलकती है...मुझे नहीं लगता कि मै अभी इस स्तर पर हूँ कि आपकी पोस्ट पर कोई समीक्षात्मक टिप्पणी दूं!
बस यही कहूँगा कि जो शब्द जाल आपने फैका है कोई भी उस से बच नहीं सकता उलझे बिना,उलझ कर कुछ नकुछ वो पायेगा ही यहाँ से...
कुंवर जी,
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