गुरुवार, 27 मई 2010

लज्जा के नीड़ में चपलता का बसेरा

अब टिकते नहीं फिसलते हैं
मुख पर जाकर मेरे दो दृग.
पहले रहती थी नीड़ बना
लज्जा, अब रहते चंचल मृग.

चुपचाप चहकती थी लज्जा
बाहर होती थी चहल-पहल. 
चख चख चख चख देखा करते
कोणों को करके अदल-बदल.

अब नहीं रही वैसी सज्जा
औ' रही न वैसी ही लाली.
बस उछल-उछल घूमा करते
मृग इधर-उधर खाली-खाली.

[जब से लज्जा के आवास में चपलता ने डेरा जमाया है लज्जा चहकना भूल गयी है और इस चपलता को नारी की जागृति समझा जा रहा है, बौद्धिकता माना जा रहा है, सहमती और समर्पण में अंतर कर उसे उसके दिव्य गुणों से पृथक करने का प्रयास हो रहा है. 'सहमती' में नारी की गरिमा को और उसके 'समर्पण' में पुरुष के वाक्-जाल को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है.]