शनिवार, 7 मई 2011

छंद-चर्चा ................... पाठ-३


पिछले पाठों में हम छंद-विषयक कुछ महत्वपूर्ण बातें छोड़ कर आगे बढ़ आये थे और पहले उन बातों को पूरा कर लेते हैं... छंद में लय-युक्त प्रवाह का होना बेहद आवश्यक है. इसी 'गीति-प्रवाह' को गति कहते हैं. 

एक कविता कहता हूँ, उसका गीति-प्रवाह देखिएगा... मैं यदि कविवरश्रेष्ठ राजेन्द्र स्वर्णकार जी की तरह ऑडियो पोस्ट से जोड़ने का ज्ञान रखता तो अवश्य गाकर इसे आपको उपलब्ध कराता.. क्योंकि मेरी अधिकांश कवितायें गेय हैं. मुक्त-छंद में लिखी कविताओं का पाठ भी एक विशेष प्रकार की गीति की अपेक्षा रखता है. उसमें प्रायः विचारों की अभिव्यक्ति स्वर के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है. 

कविता का शीर्षक है : 'मरण-विचार'

विनय अर्चन या..चना व्यर्थ। 
कलम सर्जन* सो..चना व्यर्थ। 
नुपुर नर्तन शो..भना व्यर्थ।  
नहीं इनका अब कोई अर्थ।  

कथन पिय का घू..मना व्यर्थ।  
मिलन उन का झू..लना व्यर्थ।  
सुमन चुनना चू..मना व्यर्थ।  
नहीं इनका अब कोई अर्थ।  

नयन पलकें झप..कना व्यर्थ।
रुदन आँसू टप..कना व्यर्थ।
भवन उनके पहुँ..चना व्यर्थ।
नहीं इनका अब कोई अर्थ।

दिया उनको जो उन..के अर्थ। 
लिखा उस पर जो, क्या था अर्थ?
अभी तक है मुझको वो याद। 
हमारे बीच रही जो शर्त। 

शिखर पर तुम हो मैं हूँ गर्त।  
विनय करता पर मिला अनर्थ। 
याद कर कर तेरी हो गया।    
विरह में मैं आधे से अर्ध।  

मिलन कुछ पल का विरह अपार। 
यही मुझको देता है मार।  
बिना उनके निज नयन अनाथ।  
बची दो ही आँखें हों चार।  

कपट करना उनका व्यापार।  
लिपट जाना उनका उदगार।  
मरण तो अब जीवन के लिये 
जरूरी-सा बन गया विचार। 
मरण तो अब जीवन के लिये 
जरूरी-सा बन गया विचार। 
___________
* सर्जन = सही शब्द सृजन 


दग्धाक्षर : गणों की ही तरह कुछ वर्ण भी अशुभ माने गये हैं, जिन्हें 'दग्धाक्षर' कहा जाता है.
कुल उन्नीस दग्धाक्षर हैं — ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ,  त, थ, झ, र, ल, व, ष,  ह। 
— इन उन्नीस वर्णों का पद्य के आरम्भ में प्रयोग वर्जित है. इनमें से भी झ, ह, र, भ, ष — ये पाँच वर्ण विशेष रूप से त्याज्य माने गये हैं. 
छंदशास्त्री इन दग्धाक्षरों की काट का उपाय [परिहार] भी बताते हैं. 
परिहार : कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता. यदि मंगल-सूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है.

उदाहरण : 
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज़.
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज. 
इस दोहे के आरम्भ में ज-गणात्मक शब्द [121] है जो अशुभ माना गया है किन्तु देव-वंदना के कारण इसकी अशुभता का परिहार हो गया है. 

प्रश्न : क्या छंदशास्त्रीयों के अनुसार 'मरण-विचार' नामक कविता अशुभ वर्ण आरंभी है? 
प्रश्न : 'दग्धाक्षर' का अन्य कल्पित अर्थ बतायें, क्या हो सकता है? क्यों छंद-शास्त्री दग्धाक्षर से इतना घबराया करते थे? 
प्रश्न : क्या स्वरों का हमारे स्वास्थ्य पर अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ता है? 

पिछली कक्षा में 'भाषा-विज्ञान' विषय भी हमने शामिल कर लिया था. इस बार केवल एक कारण को खोलकर बता देते हैं कि कोई शब्द धीरे-धीरे क्योंकर अपना उच्चारण या रूप बदल लेता है. 
[१] वाक् यन्त्र की विभिन्नता : विश्व के प्रत्येक मनुष्य की शारीरिक रचना जिस प्रकार भिन्न-भिन्न है, उसी प्रकार उनका वाक्-यन्त्र भी एक-दूसरे से थोड़ा-बहुत जरूर भिन्न मिलेगा. परिणामस्वरूप वाक्-यन्त्र से उच्चरित ध्वनियों में भी अंतर पड़ जाता है. एक ही ध्वनि का स्वरुप एक व्यक्ति के उच्चारण में जैसा होगा वैसा दूसरे के उच्चारण में नहीं मिलेगा. शुरू-शुरू का यह थोड़ा अंतर धीरे-धीरे बढ़कर पूर्णतया बदल जाता है. सभी भाषा वैज्ञानिक इस कारण को अभी अधिक तवज्जो नहीं देते...

प्रश्न : भाषा वैज्ञानिक किसे कहते हैं? 
ऑप्शन : 
— जो भाषा में तरह-तरह के देसी-विदेशी शब्दों को शामिल करने की कोशिश करे. 
— जो भाषा को एरोप्लेन में बैठाकर अंतरिक्ष की सैर कराकर लाये.
— जो भाषा के विकास पर तार्किक चिंतन दे. 
— जो भाषा का आदिम रूप खोजने में जुटा रहे.