शनिवार, 24 अप्रैल 2010

उडाओ ना समीर में रेत

अरी! तू सुन्दरता में छिपी, छ्लेगी कब तक ऐसे ही.
कभी ना कभी दिखेगा रूप, आपका अन्दर वाला भी.
करी तुमने मर्यादा भंग, किया छल अपनों के ही संग.
छेड़खानी समीर के साथ करी तुमने होकर के नंग.
केश उपमेय गगन की घटा, चली आई क्यों केश कटा.
जिसे सहलाया करता पवन, उसे तुम समझे रहा 'पटा'.
दिया जिसने तुमको निज नेह, उसी पर करती हो संदेह.
पवन तो रहता सबके साथ, नहीं तन है उसका ना गेह.
नहीं तुमने जाना कुछ भेद, पवन-प्राणों में किया अभेद.
प्राण हर कर पावोगी पवन, आपकी भूल, मुझे है खेद.
श्याम मन से ऊपर से श्वेत, अरी ओ घटा आज तो चेत.
करो ना मर्यादा को भंग, उडाओ ना समीर में रेत.