यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
विपरीत से तुम सीध में आओ
विपरीत से तुम सीध में आओ.
अरी! पीठ न तुम मुझको दिखाओ.
मैं तुम्हें बिन देखकर पहचान लेता हूँ.
कल्पना से मैं नयन का काम लेता हूँ.
एक बार फिर कवि से आँख मिलाओ.
अयि! मुझे तुम नेह का फिर गीत सुनाओ.
कल्पना-विमान फिर से भेज देता हूँ.
"कंठ में आना" — तुम्हें सन्देश देता हूँ.
कल्पना-विमान पर तुम बैठ आ जाओ.
अयि! प्रिय कविते! कवि ह्रदय में बस जाओ.
जिह्व का आसन तुम्हें उपहार देता हूँ.
बस प्रिये! मैं आपसे रस-प्यार लेता हूँ.
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6 टिप्पणियां:
हे परम कवीश,सत्य हो वागीश
दे निज अनुभव,कवित हो संभव
कंठ आ विराजे, बजे ज्ञान बाजे
रसना अमित गान हो देस काजे
हे परम कवीश,सत्य हो वागीश
दे निज अनुभव,कवित हो संभव
कंठ आ विराजे, बजे ज्ञान बाजे
रसना अमित गान हो देस काजे
nice
अच्छी विचारणीय प्रस्तुती /
वाह!बहुत ही सुन्दर कविता!
कुंवर जी,
प्रतुल जी,
दीप ने आपकी इतनी तारीफ़ की है कि आना पड़ा, और अब स्वेच्छा से आते रहना पड़ेगा।
बहुत अच्छा लगा आपकी रचनायें पढ़ना।
आभार स्वीकार करें।
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