रविवार, 26 सितंबर 2010

हम से मत मिलो अरी बाले!

"स्नेहित कम केश क़तर काले. 
हम से मत मिलो  अरी बाले! 
लज्जित ललाम लोचन के निज 
तारक ने  तोड़ दिये ताले." 

"स्वनज निज मीत प्रीत पाले 
शब्दों में मुझको उलझाले. 
यदि रहें ना तारक नयनों में 
तो मैं प्रस्तुत, मुझको ला ले."

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

आनंद गंध

अहा! हो गयी अब ह्रदय में 
दुःख चिंता शंका निर्मूल. 
हृत वितान में घूमा करती 
दिव करने वाली सित धूल. 


नहीं शकुन अपशकुन जानती 
अड़चन हो चाहे दिकशूल. 
जब आनंद गंध फैली हो 
बंद नहीं हो सकते फूल. 

बुधवार, 22 सितंबर 2010

नव रस के तुम ही रसराज

द्वय पक्षी होकर भी रति का 
बना हुआ स्वामी शृंगार. 
विप्रलंभ संयोग दलों का 
ये कैसा अश्रुत सरदार. 


एक पक्ष में मिलन, दूसरे 
में बिछडन का है व्यापार. 
संचारी त्रयत्रिंशत जिसमें 
करते रहते हैं संचार. 


और नहीं रस ऐसा कोई 
जिसमें सुख-दुःख दोनों साथ. 
बस केवल रति का ही स्वामी 
जो अनाथ का भी है नाथ. 


हे हे शृंगार! है हर मन में 
तेरा ही प्रभुत्व तेरा ही राज. 
अंतहीन विस्तार आपका 
नव रस के तुम ही रसराज. 


मंगलवार, 21 सितंबर 2010

पेचीदा खेल

मिला पहले दिन ही आभास 
आपके आने में उल्लास. 
छिपा देता मुझको संकेत 
बसाना है अब प्रेम-निकेत. 


बहानों का हो पर्दाफ़ाश 
पता चल जाएगा क्यों वास.
किया क्या करने को उत्पात 
बोलते हो क्यों मीठी बात. 


हर्षता का  पीड़ा से मेल 
खेलते क्यों पेचीदा खेल 
छलावा देकर मुझको आप 
बंद हो जाओगे उर-जेल. 

सोमवार, 20 सितंबर 2010

हृल्लास-मूल

जीने से मरना लगे भला
कविता ने कवि को बहुत छला.
हिचकियाँ जिलाया करतीं जो
वो आज घोंटती स्वयं गला.


कारण कवि को कल्पना साथ
पाया कविता ने आज मिला.
पर कलम हाथ में नहीं देख
स्मृतियाँ कम्पित कर गईं हिला.


अब, हाय-हाय हृल्लास मुझे
मारेगा मेरे दोष दिखा.
क्या ह्रास करूँ हृल्लास-मूल
कौटिल्य भाँति मैं खोल-शिखा.

शनिवार, 18 सितंबर 2010

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?

क्या कहूँ आपको निर्भय हो?
जिसमें ना वय संशयमय हो.
कहने में पिय जैसी लय हो.
जिसकी हिय में जय ही जय हो.

या बहूँ धार में धीरज खो?
तज नीति नियम नूतनता को.
बस नारी में देखूँ रत को?
रसहीन करूँ निज जीवन को?

क्या सहूँ ह्रदय की संयमता?
घुटता जाता जिसमें दबता.
नेह, श्रद्धा, भक्ति औ' ममता
क्या छोड़ सभी को सुख मिलता?

अय, कहो मुझे तुम भैया ही.
मैं देख रहा तुममें भावी
सपनों का अपना राजभवन.
तुमसे ही मेरा राग, बहन.

किस तरह समय में परिवर्तन
आयेगा — ये कैसे जानूँ?
संबंध आपसे जो अब है
बदलेगा — ये कैसे मानूँ?

सब रूप आप में ही अवसित
दिखते हैं मुझको नारी के .
क्या करूँ आपको मैं प्रेषित
हिय भाव सभी संचारी के?


शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

अय पौन! कौन हो? सच कहना

ये कौन केश में हाथों की
उँगली सब डाले सहलाता?
ये कौन देह को छूकर के
चोरी-चोरी है भग जाता?

ये कौन गाल पर अधरों का
मीठा चुम्बन है दे जाता?
ये कौन ह्रदय से क्लेशों को
छीने मुझसे है ले जाता?

ये कौन मौन होकर अपनी
सुन्दर बातों को कह जाता?
अय पौन! कौन हो? सच कहना.
क्या हो मेरी प्यारी बहना?


मंगलवार, 14 सितंबर 2010

शटल-चरित्र

है शुष्क नहीं बाहर का तल
ये समझ चुका है अंतस्तल. 
मैं तो भीतर की बात करूँ 
संवादों में ना है 'कल-कल'. 

'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल. 
जो शुष्क हो रहा है पल-पल, 
पिघलेगा नहीं तो झेलेगा 
संवादों की बौद्धिक दलदल. 

दलदल का बाहर स्निग्ध पटल
दृग फिसल रहे, पग नहीं अटल. 
मनोरंजन ही करता 'चरित्र' 
बनकर दो रैकेट बीच शटल. 

एक नया रूपक : 
* 'स्त्री-बौद्धिकता' मतलब 'शटल चरित्र' 
जब कोई स्त्री बुद्धि-प्रधान बातें करती है. तब वह वैचारिक-भूमि पर पुरुष बुद्धियों के रैकटों के बीच शटल कोक की तरह मनोरंजन देती है.

** 'दलदल का बाहर स्निग्ध पटल' : 
एक दलदल ऎसी भी जिसकी ऊपरी परत फिसलन भरी हो और अंदरूनी दलदली हो. 
दोहरा नुकसान, हलकी हों तो जाने से फिसल जाएँ. भारी हों तो जाने से धँस जाएँ. 
पहले हलकी [दृष्टि] गयी, फिसल गयी.  
बाद उसके भारी-भरकम कदम बढ़े, वे भी धँस गये.

*** 'कल-कल का स्वर' जीवन हलचल.
.... इसे बाक़ी तीन पंक्तियों से अलग पढ़ना है, एक सूत्र की तरह. 

[दिव्या जी द्वारा पिछली पोस्ट में की गयी काव्य-टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया]

सोमवार, 13 सितंबर 2010

मत करो स्वयं को शुष्क शिला

मत करो स्वयं को शुष्क शिला 
मेरे नयनों से नयन मिला. 
फट पड़े धरा देखूँ जब मैं 
तुम हो क्या, तुमको दूँ पिघला. 


संयम मर्यादा शील बला 
तेरे नयनों में घुला मिला. 
फिर भी चुनौति मेरी तुमको 
मैं दूँगा तेरा ह्रदय हिला. 


मैं कलाकार तुम स्वयं कला 
तुम तोल वस्तु मैं स्वयं तुला. 
तोलूँगा तुमको पलकों पर 
चाहे छाती को रहो फुला. 


'मंजुल मुख' मेघों में चपला 
मैं आया तेरे पास चला. 
मंजुले! खुले भवनों में क्यों 
तुम भटक रहीं निज भवन भुला. 

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

हमने है ले लिया क्षणिक सुख

हमने है ले लिया क्षणिक सुख
देख आपको फिर प्रफुल्ल.
जब थे नयनों से दूर बहुत
यादें करती थीं खुल्ल-खुल्ल.


हम दुखी रहे यह सोच-सोच
तुम बैठ गये होकर निराश.
अथवा आते हो नहीं स्वयं
भयभीत कर रहा नेह पाश.


जैसे बदले हैं भवन कई
तुमने दो-दो दिन कर निवास.
वैसे ही क्या अब बदल रहे
चुपचाप छोड़ निज उर-निवास.


फिर भी लेते हैं ढूँढ नयन
तुमको, चाहे कर लो प्रवास.
होते उर में यदि भवन कई
तुम भवन बदलते वहीं, काश!

शनिवार, 4 सितंबर 2010

प्रेमोन्माद

'राहत' 
कैसे पाऊँ दुःख में 
आँसू सूखे खेवक रूठे 
नयनों की नैया डूब रही 
पलकों के बीच भँवर में. 


'आहत' 
तस्वीरें रेंग रहीं 
तन्वंगी आशाएँ बनकर 
तम, छाया है या निशामयी 
जीवन ठहरा है मन पर?


'चाहत' 
की चमड़ी ह्रदय से 
उतरी है तेरी यादों की 
मन पर मांसज-सी चिपकन है 
चमड़ी चढ़ती उन्मादों की. 



[प्रेम में असफल हुए एक पागल-प्रेमी की मनोदशा का चित्र]
इसमें कुछ पंक्तियों में अनुप्रास का छठा भेद 'अन्त्यारम्भ अनुप्रास' है.