रविवार, 3 अक्तूबर 2010

रसों की स्वाधीनता और पराधीनता ................. मित्र से बातचीत

मित्र,

आपको याद होगा आपसे बातचीत में एक बार मैंने रस-चर्चा की थी. और उसमें कुछ मूल और कुछ उत्पन्न रसों के विषय में बताया था. तब मेरा वर्षों से छूटा अन-अभ्यास और आपकी भोजन-प्रतीक्षा के कारण उस चर्चा से मिल रहे बतरस-सुख का भंग हो गया था. आज उस पाठ को दोहराता हूँ.

नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने शृंगार, रौद्र, वीर, तथा वीभत्स; इन चार रसों को उत्पादक अर्थात मूल रस माना है. शेष चार हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक को क्रमशः उक्त रसों से उत्पन्न होने वाला कहा गया है.

शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अदभुत तथा वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है. एक तालिका के द्वारा हम इसे फिर से समझते हैं :

स्वाधीन रस ___________________________ पराधीन रस

....शृंगार ................................................................. हास्य ....

......वीर ................................................................. अदभुत ....

..... रौद्र .................................................................. करुण .....

..... वीभत्स .......................................................... भयानक .....

जो शृंगार की अनुकृति है वही हास्य रस कहा जाता है, जो रौद्र का कर्म है वही करुण रस है तथा वीर का कर्म अदभुत रस है. साथ ही, वीभत्स का दर्शन ही भयानक रस कहा जाता है.

मित्र, आगे बढ़ने से पहले, अब प्रयुक्त शब्दावली में जो जटिलता हो पहले उसे पूछ लेना. और फिर जो मन में प्रश्न उठते हों उनका निवारण कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा.

इतना विश्वास जानो कुछ ही समय पश्चात आपसे एक श्रेष्ठ कविता का सृजन करवा ही दूँगा. बस आप धीरे-धीरे मेरे साथ इस काव्य-जगत में घूमते रहो.