यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
स्वीकार
मुझसे तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ.
तुम दो जो तुमसे सके बने.
मुझपर तो श्रद्धा बची शेष.
बदले में करता वही पेश.
छोडो अथवा स्वीकार करो.
चाहे अपनत्व का करो लेश.
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