गुरुवार, 15 नवंबर 2012

'नमस्ते ...भैया!'

एक राह में
बार-बार मिलने से
मैं परच गया उससे।
 
चाहा बात करूँ उससे
परिचय से
स्नेह हुआ जिससे।
 
एक बार मैं
असमंजस में था
कि क्या बात करूँ मिलने पर।
 
सहसा वह
बोल पड़ी मुझसे - 'भैया'
'कहाँ खोये रहते हो, शरम से कुछ न कहते हो।'
 
चाल रोक कर
उन शब्दों का
जिनमें मिला हुआ था स्नेह सुधा-सा
- श्रवण कर लिया
- 'भैया' शब्द स्वीकार कर लिया
सहसा मुख से शब्द निकल गया 'बहना !'
 
बार-बार फिर
जब भी मिलते
हँसते, फिर भी बात न करते
वह थोड़ा रुकती चलते-चलते
शरम से कर देती झुक कर 'नमस्ते ...भैया!'