शनिवार, 31 जुलाई 2010

कवि और श्रोता

कवि की
निज कल्पना से
कर रहा यह कौन परिणय?
या सतीत्व भंग करती
स्वयं सती कल्पना मम?

छवि ही
निज वासना से
मगन है मदमत्तता में?
किवा विवशतावश पड़ी
बाहें अपरचित कंठ में?

भड़की
कवि की लेखनी
तब ईर्ष्या और क्रोध से.
पर शांत हो पूछा कवि ने
अये! अपरचित कौन हो?

***
"कवि! मैं
छवि का दास हूँ.
मैं श्रोत का प्रयास हूँ.
पर अय कवि!
क्यों कर बनी है कल्पना सुवासिनी^."

"क्या कल्पना-छवि देखना ही
बस हमारा काम है?
क्या कल्पना की क्रोड़ में
निषिद्ध निज आराम है?"
***

[*श्रोता का कवि को स्पष्टीकरण और उससे प्रश्न  ]
[^सुवासिनी — पिता या पति के घर रहने वाली अक्षता नवयुवती/ सधवा स्त्री ]

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कपोल-लली-२

खोलो अवगुंठन नहीं लली
तुम हो कपोल की कुंद कली.
लावण्य लूटने को मेरी
आँखें बन आती आज अली.

ओ रूप-पराग-गर्विते! सुन,
तुम अवगुंठन में बंद भली.
मत सोचो कभी निकलने का
बाहर बैठे निज नयन छली.

[कपोल-लली — लज्जा, अली — भ्रमर]

बुधवार, 21 जुलाई 2010

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे

दृग नहीं पीठ पीछे मेरे
पढ़ सकूँ भाव मुख के तेरे.
चाहूँ देखूँ तुम को लेकिन
बैठा हूँ मैं मुख को फेरे.

अनुमान हाव-भावों का मैं
मुख फेर लगाता हूँ तेरे.
सौन्दर्य आपका है अनुपम
संयम को घेर रहा मेरे.

लेता है मेरा ध्यान खींच
बरबस लज्जा-लूतिका* जाल.
लगता है चूस रहा तेरा
रक्तपा*-रूप निज रक्त-खाल.

* [रक्तपा – जोंक, खून पीने वाली, डायन, पिशाचन; लूतिका – मकड़ी]

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दीप-सत्ता आयेगी

निश्चित निकलकर
कुछ समय के बाद मेरे कंठ से
निज चित्त की अतृप्तियों को
तृप्त कर पहनाएगी.
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.

भविष्य की प्रतीक्षा में
स्नात होते वाक्-पथ.
नेह-पुष्प-वाटिका में
रुक गए हैं काम-रथ.
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
दिक् दर्शिका के नाम से
दिखायेंगी आकाश को.
................... दीप-सत्ता आयेगी.

[*अमित जी! अर्थ नहीं बताउँगा, बताया तो अन-अर्थ हो जाएगा.
अनायास डॉ. अमर जी स्मृति भी हो आयी, मंगलवार जो है. उन्होंने मंगल का दिन चुना है काव्य-रस पान के लिये. ]

रविवार, 18 जुलाई 2010

अवगुंठित विभायें

क्यों छिपा रखा है घटाओं ने शशि को?
रोक क्यों रखा पहाड़ों ने हवा को?
क्यों दबा रखी हैं ह्रदय ने कल्पनाएँ?
......................... क्या प्यार है उनसे सभी को?

ओढ़ रखी क्यों धरा ने तन पर चादर?
पहन क्यों रखा निशा ने तिमिर-लहँगा?
डाल क्यों रखा नयन ने पलक-पर्दा?
......................... क्या लाज आती बिना उनके?

कंठ डाली है प्रभा ने अंशुमाला.
लाद सिन्धु ने रखा है पानी खारा.
समेट रखी फूलों ने सुगंध सारी.
......................... क्या गर्व होता निज गुणों पर?

भरा है मेरी भुजाओं में अमर बल.
मोड़ सकती कलम मेरी काव्यधारा.
यशस्वी होकर दिखा सकता अभी मैं.
......................... मैं प्रतिभा ना छिपाना चाहता.

आलोचना-प्रत्यालोचना

कलम-कुल में भी हुई कलह!


................सुधामय सुविचारों की लय
................हुई तो फ़ैल गई अतिशय
................गंध, मलयाचल से जैसे
................चली आई हो मारुत मौन.

................सभी को भली लगी लेकिन
................कुछों ने मुख टेड़ा कर लिया
................कहा – हम इन्द्रजीत हैं और
................हमीं ने गंधी को भेजा.


[वैसे कलह मानसिक शान्ति को समाप्त कर देती है. लेकिन कलम परिवार की कलह से साहित्यिक-प्रेमी, काव्य-रसिक, बतरस-पायी सभी आह्लादित होते हैं. आलोचना का अपना एक सुख है, बस आलोचना तार्किक हो, किसी(लेखक) के विचारों में आलोचना ही वह माध्यम है जो पाठक को भी रचना में भागीदार बना सृजन का सुख देती है.]

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

तरल नयन*

सजल नयन मनहुँ सरित.
युगल पलक जनहुं पुलिन.
सजन सुमिरन नित बहित.
शिथिल तन पर मुख मलिन.
अधर हुलसत तन सिहर.
लटकत लट कमर तलक.
उर पर उग युगल कमल,
कस फिर-फिर निखिल वसन
सतत विकसित, मद शयन.
चकित पिय अवनत नयन.

[*तरल नयन — वह वर्णवृत जिसमें 4 नगण हों अर्थात 12  मात्राएँ हृस्व स्वर की हों.  प्रत्येक चरण में ऐसा हो. ]

सोमवार, 12 जुलाई 2010

उषा नयन-बाण

तारकों-सी तरुणियों के
प्रभावान हृदयों को
तुष्ट करने के लिये
उनके निशा-से पीड़कों को
दूर करने के लिये
अमर्ष-हास रूप धर
व नयनों की शिंजनी में
तनाव तनिक दे दिया
करते हुए विभीषिका
न चाहत की मारने की
निशा-सी व्यथाओं को
मृषा की पियाओं को
क्योंकि तारक-तरुणियों का
निशा-सी व्यथाओं में
अचल भान होता है.

तब भाग निशा प्राची से
छिप गयी प्रतीची में
पर, ताव अधिक देने से
खंडित हुयी रज्जु, चाप की.

शिंजनी की संधि का
प्रयास शुरू हो गया
किन्तु, हाय! व्यर्थ ही गया.

हा! अंततः ग्रंथि लगी
उषा-कमान-रज्जु में.
अब रोती उडु-तरुणियाँ
देख उषा नयनों को.

[अमर्ष-हास — क्रोध की हँसी; मृषा की पिया — मिथ्या की प्रेमिका]
[विशेष बात — इसमें कर्ता का अंत में उल्लेख आया है.]

शनिवार, 10 जुलाई 2010

तुम मान किये बैठो अपना

मैं संयम में बैठा तम में
तुम मान किये बैठी भ्रम में
मैं आऊँगा लेने तुमको
तुम सोच रही होगी मन में.

है मान तुम्हारा क्षण-भंगुर
मेरे संयम से अब अंकुर
फूटे, यौवन मर्यादा के
उर नहीं मिलन को है आतुर.

घन कोपभवन तेरा अपना
जिसमें पी का देखा सपना
आवेगा लेने संभवतः
तुम मान किये बैठो अपना.

ये मान तुम्हें मरवा कर ही
छोड़ेगा, सुन लो लिपि-शरणा*!
पर नहीं ह्रदय अब टस-से-मस
मेरा होगा, सुन मसि-वरणा*!

[*शब्द संकेत : 'लिपि-शरणा' और 'मसि-वरणा' लेखनी के लिये किये गए संबोधन हैं.]

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कंठ में बाँध रहा हूँ पाश

ह्रदय के कोमल भावों पर
लगाता हूँ फिर से प्रतिबंध.
कंठ में बाँध रहा हूँ पाश
कहीं न फैले नेह की गंध.

किया जब तक तेरा गुणगान
बढ़ाया तुमने मेरा मान.
उलाहना क्यों देते हो अब
किया करते हो क्यों अपमान?

आपसे भी सुन्दर गुणवान
किया करते मुझसे पहचान
दूर कैसे कर दूँ उनको
गाऊँ न क्यों उनका गुणगान?

आप ही न केवल बलवान
रूप, गुण-रत्नों की हो खान.
किया करता सबका सम्मान
सभी लगते मुझको भगवान्.

[ओ प्यारी! प्रेम को आपने समझा नहीं, सो अब मैं फिर से कोमलतम भावों पर प्रतिबंध लगाता हूँ और अपना समग्र माधुर्य कंठ के भीतर ही छिपा रखूँगा, वह भी एक फंदा लगाकर, जिससे उसकी गंध भी बाहर ना आये.]
[ओ प्यारी! जब तक मैं आपके साथ काव्य-सृजन में लगा रहा आप मुझे सम्मान देते रहे, (लेकिन अब यह क्या, मैंने बेड परि-इच्छाओं से नेह क्या किया, आपने मेरे चरित्र पर ही उँगली उठाना शुरू कर दिया, कभी घनानंद के एकनिष्ठ प्रेम की दुहाई देकर, तो कभी स्वयं को द्रोपदी और मेरे क्षणिक प्रेम को उलूपी/सुभद्रा के पार्थीय प्रेम समान अनुभूत कराकर उसे एक प्रकार-से वासनामयी ठहराया.)  आपका ये उलाहना मेरा अपमान ही तो है.] **
[सुनो प्यारी, इस साहित्य जगत में केवल आप ही गुनी नहीं हो, कई और भी है, जो मुझसे पहचान बढ़ाने को उतावले रहते हैं. उन सबको कैसे विस्मृत कर सकता हूँ. मैं उनका गुणगान, उनका बखान क्यों ना गाऊँ. (आपको जलन होती है तो जलो).] 
[प्यारी! आप गुनी हो, रूपवती हो, आप द्वारा सृजित विचार बहुमूल्य होते हैं. फिर भी मैं सभी लेखनियों का सम्मान करता हूँ और सभी में उस ईश्वरीय प्रेरणा का अंश मानता हूँ. इस कारण मुझे सभी ईश्वर लगते हैं.]

{** वैसे अमित जी ने कलम पक्ष से जो बातें रखीं वे कलम-कुल को जीवंत कर रही हैं. उन्होंने मेरी प्यारी की ओर से जो त्यागमयी भाषा बोली, वह प्रशंसनीय है. बाद में तो मसि-सहेली ने एकाकार होने की बात कहकर मन जीत लिया. लेकिन क्रोधवश बाद की बातों पर देर से ध्यान गया. सच हैं कि क्रोध में संतुलन बिगड़ जाता है. हे अमित जी, क्षमा चाहता हूँ, आपने कलम-पक्ष को तो सही से रखा लेकिन मेरा पक्ष बलहीन होकर खड़ा नहीं रह पाया. सो क्रोध को प्रभावी बना दिया. यह एक तरीका है अपनी कमजोरियों को छिपाने का.}

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कवि तो केवल शब्द-भिखारी

[मेरा प्रत्योत्तर]
अरी! रूठ मत मुझसे प्यारी.
भाव नहीं अपना व्यभिचारी.
तुझको ही हर कलम-वपु में
पाया मैंने है संचारी.

एक बेड* शिक्षा-व्यापारी
उनकी परि-इच्छाएँ** कुँवारी
उनके मोह जाल में मैंने
समय दिया था बारी-बारी.

लेकिन तेरी भय बीमारी
अविश्वास करती है भारी.
ह्रदय-वृक्ष के शब्द-फलों का
सार छिपाया सबसे प्यारी.

तुम मेरी स्थूल अर्चना
मैं तेरा हूँ शब्द-पुजारी.
यदा-कदा टंकण से भी मैं
तुझको पूजा करता प्यारी.

मसी-सहेली! अब तो तेरी
पूजा करते अमित-पुजारी.
कवि केवल लिपि-राह चलाता
वो ले जाते चिंतन गाड़ी.

कृष्ण और सुदामा में से
वरण करो ओ लिपि-कुमारी!
कवि तो केवल शब्द-भिखारी
तर्क-वितर्क के अमित-मदारी.

[ *बेड — BEd , **परि-इच्छाएँ — परीक्षाएँ ]

मसी-सहेली का उलाहना  -----------

एहो प्रियवर! रुष्ट हूँ तुम से जाओ
बितायी कहाँ इतनी घड़ियाँ बतलाओ
निज पाणी-पल्लव की द्रोण-पुटिका में भरकर
उर-तरु के मधुर फल का सार किसे पिलाया

मैं वधु-नवेली मिलन आस में सिकुड़ी सकुचाई
भय मन में क्या उनको नगरवधू कोई भायी
भय शमन करो आस पूर्ण करो करो त्रास निर्वाण
कवि आलिंगन मसि का करो हो अमित निर्माण
[अमित जी द्वारा रचित इस कलम-उलाहने के कारण
प्रतिक्रिया भी पाणि-पल्लवों के थिरकन का परिणाम है.]

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मसी-सहेली !

अरी!
अकेली देख तुम्हें
पाणि-पल्लव हिलने लगते.
उर-तरु से शब्दों के फल
आ-आकर के गिरने लगते.

वधु-नवेली बनकर मेरे
पास आप आती सकुचा.
पहले भय, लज्जा फिर मुख पर
मिलन-भाव सकुचा पहुँचा.

मसी-सहेली!
प्रेम किया करता है कवि तुमसे इतना.
नहीं एक पल रह सकता
तेरा आलिंगन किये बिना.