मंगलवार, 29 मार्च 2011

छंद-चर्चा ...... पाठ 1

किसी रचना के प्रत्येक पाद में मात्राओं अथवा वर्णों की नियत संख्या, क्रम-योजना एवं यति के विशेष विधान पर आधारित नियम को छंद कहते हैं. 

छंद के विभिन्न अंग —
चरण : छंद की उस इकाई को पाद अथवा चरण कहते हैं जिसमें छंद विशेष के वर्णों अथवा मात्राओं का एक सुनिश्चित नियोजन होता है.

वर्ण : मुख से निःसृत प्रत्येक उस छोटी-छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं, जिसके खंड नहीं हो सकते. 

मात्रा (परिमाण) :  वर्णों के उच्चारण में लगने वाले समय को 'मात्रा' कहते हैं. विनती यही गोपाल हमारी. हरौ आज़ संकट-तम भारी. [गुपाल का उच्चारण किया जाने से हृस्व स्वर चिह्नित किया जाएगा, अन्यथा चौपाई में पहले ही चरण में सत्रह मात्रा हो जाने से लय दोष पैदा हो जाएगा ]

क्रम : किसी छंद के प्रत्येक चरण में वर्णों या मात्राओं का एक निश्चित अनुपात से प्रयोग 'क्रम' कहलाता है.

छंद के अंतर्गत 'क्रम का महत्व निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा - 
जहाँ सुमति वहँ सम्पति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना

यह चौपाई छंद का उदाहरण है, जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राओं का नियम है. इस चौपाई के अंतिम दोनों वर्ण दीर्घ हैं. किन्तु इसी उदाहरण को यदि यों कहा जाये – 
जहाँ सुमति वहाँ सम्पति नान, जहाँ कुमति तहाँ विपति निदान

यद्यपि इसमें मात्रा संख्या १६ ही हैं, तथापि इसे चौपाई छंद का शुद्ध प्रयोग नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके अंत में 'दीर्घ' और 'हृस्व' का क्रम होने के कारण इसकी स्वाभाविक गति में व्यवधान पड़ता है. इसीलिए छंद शास्त्रकारों ने चौपाई छंद का लक्षण बताते हुए स्पष्ट किया है कि इसके अंत में 'जगण' अर्थात हृस्व-दीर्घ-हृस्व [लघु-गुरु-लघु] मतलब [ISI] का क्रम नहीं होना चाहिए. 

यति : छंद में जो एक प्रकार की संगीतात्मकता रहती है, उसका कारण ध्वनियों का आरोह-अवरोह होता है. ध्वनियों के इस आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) का आधार बीच-भीच में रुक-रूककर ऊँचा या नीचा बोलना होता है. छंद के प्रत्येक पाद में यथावश्यक विराम की योजना भी इसीलिए रहनी आवश्यक है. इसी विराम योजना को 'यति' कहते हैं. 

गति : छंद में लय-युक्त प्रवाह का होना आवश्यक है. इसी 'गीति-प्रवाह' को गति कहते हैं. 

छंद के अंतर्गत नवोदित आभ्यासिक कवियों को लघु-गुरु का परिचय आवश्यक है. 
गणों को सहज-स्मरणीय बनाने के लिये एक अन्य संक्षिप्त सूत्र भी प्रचलित है – 
"य मा ता रा ज भा न स ल गा"

गण-परिचय — 
गण : तीन-तीन वर्णों के विशेष समूह को गण कहते हैं.  
गण संख्या : आठ प्रकार हैं.
सर्व गुरु — SSS [म गण] .....मातारा 
आदि गुरु — SII [भ गण] .... .भानस
मध्य गुरु — ISI [ज गण] .....जभान
अंत गुरु —  IIS [स गण] ......सलगा
सर्व लघु — III [न गण] .........नसल 
आदि लघु — ISS [य गण] ....यमाता
मध्य लघु — SIS [र गण] .... राजभा 
अंत लघु — SSI [त गण] ......ताराज 

मैं एक रचना की 'छंद कविता' लिखता हूँ विद्यार्थी गण उसका वाचन करके देखें, क्या उन्हें रस मिला? 

छंद कविता  

राजभा नसल यमाता गाल 
राजभा मातारा ताराज 
यमाता सलगा मातारा ल 
राजभा सलगा मातारा ल.

नसल मातारा सलगा गाल 
यमाता भानस सलगा गाल 
राजभा भानस भानस गाल 
यमाता सलगा मातारा ल. 

जभान यमाता सलगा गाल 
जभान यमाता सलगा गाल
जभान जभान यमाता गाल 
यमाता भानस मातारा ल. 

यमाता सलगा सलगा गाल 
राजभा सलगा सलगा गाल 
जभान यमाता मातारा ल 
राजभा जभान  मातारा ल. 


शब्द कविता  

पारिभाषित करने को आज़ 
सम्प्रदायों में होती जंग. 
मतों का पहनाने को ताज 
धर्म को करते हैं वे नंग. 

धर्म को आती सबसे लाज 
छिपाता है वह अपने अंग.
सोचता था पहले कर राज 
रहूँगा सबके ही मैं संग. 

रखा करते जो उसकी लाज 
वही नर-नारी करते तंग. 
विदूषक के वसनों से साज 
चलाते हैं उसको बेढंग. 

अँधेरी नगरी तम का राज 
ईश की करनी करती दंग. 
मिला तमचारियों को ताज 
धर्म हो गया भिखारी-लंग. 


यदि आप छंद कविता को गा पाते हैं और प्रवाह में कहीं व्यवधान नहीं पाते. तब आपकी रचना गेयता की कसौटी पर खरी है. और यदि उसमें कुछ व्यवधान पाते हैं तब उसे दूर करने का उपाय करें. 

प्रश्न 1 : यदि उपर्युक्त कविता की अंतिम पंक्ति में 'धर्म हो गया भिखारी-लंग' के स्थान पर ' धर्म बन गया आज़ भिखमंग' कर दिया होता तब मुझे क्या परेशानी हो सकती थी? सोचिये.

प्रश्न २ : चार पंक्ति की कोई एक छंद कविता रचें और उसपर शब्दों का अभ्यास करके दिखाएँ.

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर?

शीघ्र ही 'पाठशाला' फिर से शुरू होने वाली है. विषय होगा 'छंद चर्चा'. 

छंद के महात्म्य को पुनः स्थापित करने की मन में जो भावना प्रकट हुई,  वह अकारण नहीं हुई.
— पहला कारण, काव्य के आधुनिक रूप के प्रति मेरा प्रसुप्त आक्रोश.
— दूसरा कारण, मैं उन तम्बुओं को उखाड़ने का सदा से हिमायती रहा हूँ, साहित्य जगत में जिनके बम्बू केवल इसलिये गड़े कि वे कुछ अधिक गहरे दिखायी दें. 'टोली प्रयास' रूप में अपनी अलग पहचान कोशिशें और कविता को तरह-तरह के वादों में बाँटकर ये बम्बू उसे आज एक ऎसी दुर्दशा तक ले आये हैं जहाँ वह फूहड़ मनोरंजन के रूप में ही अधिक पहचानी जाती है. 
जब किसी क्षेत्र का कोई नियम टूटता है और उसकी सराहना करने वालों की तादात अधिक होती है .. तब उस क्षेत्र में अराजकता शीघ्र फ़ैल जाती है.

कविता के क्षेत्र में भी छंद-बंधन टूटते जा रहे हैं. यह टूटन कहाँ तक उचित है इस विषय पर आगे विचार जरूर करेंगे. आज ब्लॉगजगत में डॉ. रूपचंद शास्त्री 'मयंक' एवं श्री राजेन्द्र जी 'स्वर्णकार' छंद-नियमों को मानकर न केवल रचना कर रहे हैं अपितु छंद को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं. पिछले दिनों दोहों के वर्गीकरण पर श्रीमती अजित गुप्ता जी की एक सुन्दर पोस्ट देखने में आयी थी. छंद-ज्ञान प्रचार में उनका योगदान भी मुझे हर्षित कर गया. 

बहरहाल, छंद-चर्चा पर पाठशाला पुनः खोलने का अमित अनुरोध आया तो मैं अपने मन की इच्छा को छिपाकर न रख सका. बस कभी-कभी यह आभास होता है कि मेरा सीमित प्रयास निरर्थक सा है इस कारण ही बीच-बीच में उदासीन हो जाता हूँ. वैसे कुछ अन्य कारण भी बन आते हैं उदासीन होने के, लेकिन सुज्ञ जी जैसे विचारक मुझे संभाल लेते हैं. संजय झा हमेशा अपनी उपस्थिति से यह एहसास कराते हैं कि क्लास पूरी तरह से खाली नहीं है.

एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि मैं 'विषय का पंडित' नहीं हूँ लेकिन फिर भी मुझे 'निरंतर पूछे जाने वाले प्रश्न' कुछ नया सोचने को उत्साहित करते हैं. कृपया इतनी कृपा अवश्य बनाए रखियेगा कि 'प्रश्न' सक्रीय रहें, मृत न होने पायें. 

पाठशाला शुरू करने से पहले मैं अपने आक्रोश को प्रकट कर अभी फिलहाल खाली हो जाना चाहता हूँ :  

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर ?
वेदों की  छंदों में ही रचना क्यूँकर ?
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला ? 
किसलिये  श्लोक रचकर रहस्य ना खोला ? 

क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था ? 
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था ? 
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी ? 
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी ? 

'कवि' हुये वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को . 
आहत पक्षि कर गया था भावुक उनको . 
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा .
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा .

माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू ? 
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू ? 
या रामायण के लिये भी डाका डाला ? 
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला ? 

हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो ! 
क्या अब भी ऐसा हो सकता है ? बोलो . 

अब तो कविता में भी हैं कई विधायें . 
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें . 
अब नहीं छंद का बंध ना कोई अड़चन . 
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन . 

कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये ? 
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये ? 

छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला. 
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला. 
मिल गई छूट सबको बलात करने की . 
कवि को कविता से खुरापात करने की . 

यदि होता कविता का शरीर नारी-सम . 
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम . 

'छायावादी' ... छाया में उसको लाता . 
धीरे-धीरे ... उसकी काया .. सहलाता. 
उसको आलिंगन में .. अपने लाने को . 
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता . 

लेकिन 'रहस्यवादी' करता सब मन का .
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का .
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता. 
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता . 

पर, 'प्रगतीss वादी', भोग लगा ठुकराता . 
कविता के बदले 'नयीS .. कवीता'* लाता. 
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को . 
बेचारी कविता को ... वन्ध्या ठहराता . 

और 'प्रयोगवादी' ...  करता छेड़खानी .
कविता की कमर पकड़कर कहता 'जानीS'
करना 'इंग्लिश' अब डांस आपको होगा . 
वरना ......... मेरे कोठे पर आना होगा . 

अब तो कविता-परिभाषा बड़ी विकट है . 
खुल्लमखुल्ला कविता के साथ कपट है .
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है .
कविता वादों का ... नहीं कोई सम्पुट है . 

ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है .
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है .
जिसकी निःसृति कवि को वैसे ही होती . 
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव ... पर होती . 

जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है .
कविता भी ऎसी दशा बिना सरहद है .

बुधवार, 23 मार्च 2011

मिल गयी हमारी छिपी बात

मिल गयी हमारी छिपी बात 
लज्जा से गुंठित थे कपाट. 
तेरी सखि शोधक बहुत तेज़ 
रखते तुम क्यों नज़रें सपाट?

हो सरल हृदय करुणाभिसिक्त 
दीठी सखि की है स्यात तिक्त.
पिछली कविता का भेद खोल 
कारण जाना 'मम स्नेह रिक्त'.*

बलहीन कलम कविता विहीन 
हत मीन नयन मेरी ज़मीन.
नट बने भाव आते-जाते.
जीवट पर तेरे है यकीन. 


बुधवार, 16 मार्च 2011

'दर्शन' होली

यौवन कगार पर खड़ा हुआ
प्यासा मन खेल रहा होली
सपनों से, सपने रूठ-रूठ
जाते हैं, जब आँखें खोलीं।

पलकों के अन्दर नयनों से
अंगुली खेलें काज़ल होली
अंगुष्ठ खेलता बहना का
भैया के माथे पर होली।
.

.
.
माधव .. अपनी 'श्री' से खेले
नारी ...  अपनी 'ह्री' से खेले
देवर ... भाभी जी से खेलें
औ' हम ... खेलें 'दर्शन' होली।





शनिवार, 12 मार्च 2011

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल 
'परभृता' की ... तरह है दिल. 
'काग' के ...  घोंसले अन्दर 
छोड़ आया ... जो गया ले. 
'पल सकेंगे ... वे वहाँ पर' 
दिल यही ... संदेह पाले. 
आप हो ... 'भावज' दुलारे 
मम हृदय के ... नयन तारे. 
रख सकूँगा ... दूर तुमको 
कब तलक? — मैं सोचता हूँ.


मंगलवार, 8 मार्च 2011

मैं धनिक बन गया कर विलाप

ओ कलम! आप निज बाल-प्रिया.
बचपन से तुमसे खेल किया. 
शर छील प्रथम माँ ने तुमको 
मेरे मृदु हाथों सौंप दिया. 

पहले 'अक्षर' फिर 'शब्द' खेल 
खेले मैंने, थे आप गेल*. 
तुमने बदले हैं रूप कई 
तब से अब तक सब लिया झेल. 

तुम हो कैसा मो..हनी दंड. 
दुःख में भी आँसू बने छंद. 
तुम बाँध रही मेरे विचार 
जो अभी तलक थे खंड-खंड. 

कवि कर के ओ सुन्दर कलाप* 
शत कोटि-कोटि युग जियो आप. 
तुमने मोती कर दिये अश्रु 
मैं धनिक बन गया कर विलाप. 

___________
गेल* = साथ
कलाप = अलंकार
धनिक = धनी 



रविवार, 6 मार्च 2011

आपके घर की हवा चली

आपके घर की हवा चली 
मिली राहत हेमंत टली 
पिकानद* हल्दी अंगों पर 
लगाकर लगती है मनचली. 

शिशिर तो खेल रहा स्वच्छंद 
बहिन मुख पर मलता हैं रंग 
सभी को छूट मिली है आज़ 
फाग खेलन की हो निर्बन्ध. 

मुझे मदमत्त कर रही है 
आपको छूकर आयी पौन.
कौन आलिंगन देगा आज़ 
पिया बैठी है होकर मौन. 

सुहाता वसन आपका आज़ 
कली खिलती हैं सारी साज 
देह को, फिर से आयी लाज 
राज करता है अब ऋतुराज. 

____________
*पिकानद = बसंत ऋतु

गुरुवार, 3 मार्च 2011

बिछड़कर मिल पाया है कौन?

सुनो जाने से पहले पौन! 
हमें अब देगा श्वासें कौन?
आप यदि जावोगे इस तरह 
करेगा हमसे बातें कौन?

याद है मुझको पहली बार 
आपने सहलाये थे केश 
घटा के, जो आई थी पास 
पहनकर शिष्या की गणवेश. 

बना हैं नहीं कभी भी चित्र 
पौन, निर्गुण हो या तम, इत्र. 
धूलि ने पा तेरा आभास 
बनाया है सांकेतिक चित्र. 

कहा तुमने मुझसे इक बार 
कमी तुममें केवल है प्यार 
किया करते हो प्राची से, 
नव्य का ना करते विस्तार. 

अश्रु पलकों पर हैं तैयार 
विदा देने से पहले भार 
डालते हैं वे नयनों पर 
व्यथित मेरे सारे उदगार.

शोध करने वाली ओ पौन! 
विदा देते हैं तुमको मौन! 
मिलेंगे ना जाने फिर कहाँ? 
बिछड़कर मिल पाया है कौन? 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

किया कवि का तुमने अपमान

अरी ओ विष कन्या नादान. 
चली वापस जा तू आपान. 
नहीं पा सकती अब तू पार. 
चाहे कर ले षोडश शृंगार. 

जबरदस्ती अधरों का पान. 
किया कवि का तुमने अपमान. 
इंदु-सी लगती, मद्य-स्नात!
बिंदु का होगा वज्राघात. 

बंदनी छीन बिंदु पी आज. 
चिता चिंता की देगी साज. 
बिंदु बोलेगी - आओ बाज 
अरी मैं ही तेरी सरताज. 

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

कभी-कभी तो मिलना होता है तुमसे उल्लास लिये


निःशब्द बोल

आये आकर चले गये तुम मुझसे बिन कुछ बात किये. 
मैं तो सोच रहा था बोलूँ पर तुम ही थे मौन पिये! 
शब्द नहीं थे मुख में मेरे फिर भी तुमसे बोल दिये. 
'पियो पिये' संकेत किया मैंने पय पीने के लिये. 
नहीं तुम्हें इतनी आशा थी मुझसे मैं कुछ बोलूँगा. 
इसीलिए मुख फेर लिया पहले से ही आभास लिये. 
रही सदा मुझ पर निराशता* तुमको देने के लिये. 
आज़ स्वयं देने को सब कुछ बैठा हूँ अफ़सोस किये. 
सोच रहा अब तक मैं कैसे था बिन प्राणों के जिये. 
कभी-कभी तो मिलना होता है तुमसे उल्लास लिये. 


सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

काव्यशास्त्री से विमर्श


आचार्य परशुराम जी ने 'मनोज' नामक ब्लॉग पर काव्यशास्त्रीय चर्चा में वीर और रौद्र रस का विशद वर्णन किया. http://manojiofs.blogspot.com/2011/02/52.html 


मन की जिज्ञासा थी कि किसी काव्यशास्त्री से पूछूँ कि निम्न पंक्तियों में रस कौन-सा है? 

"है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा
इसलिये मातृ वध की होती है इच्छा.
जब-जब माता जमदग्नि पूत छलेगी
मेरी जिह्वा परशु का काम करेगी."
आचार्य जी, यहाँ मातृ-वध में कौन-सा रस है?
वीर अथवा रौद्र अथवा कोई रस का आभास? 

आचार्य जी ने प्रतिउत्तर दिया : 
"भगवान परशुराम द्वारा मातृ-वध क्रोधवश नहीं किया गया था, अपितु पित्रादेशवश। क्योंकि जब पिता ने वर माँगने के लिए कहा तो उन्होंने वर माँगा था कि माँ जीवित हो जाय ओर उक्त घटना उन्हें याद न रहे।
अतएव इसे वीर रस (धर्मवीर) का उदाहरण कहना चाहिए।

मुझे कभी किसी काव्यशास्त्री से विमर्श का अवसर नहीं मिला, सो डरते-डरते पूछा है...
आचार्य परशुराम जी, कृपया मुझे कुतर्की न मानना और न ही अहंकारी, मैं केवल जिज्ञासु हूँ. 
क्षमा भाव के साथ कहना चाहता हूँ — 
आचार्य जी, 'उत्साह' वाले स्थायी भाव से 'विस्मय' जन्म लेता है और वीर से अदभुत रस उत्पादित होता है. 
क्या मातृ-वध में 'उत्साह' स्थायी भाव माना जाये? आपने इस कृत्य को धर्मवीर की श्रेणी बताया. 
लेकिन शास्त्रीय नियमों के अनुसार यह उदाहरण अपवाद बन गया है. 
क्रोध के बिना वध संभव नहीं हो पाता बेशक वह धर्म-युद्ध में किये गये वध हों. 
मुझे यहाँ रौद्र रसाभास लगता है. क्या ऐसा नहीं है? 



— : रसाभास : —

जहाँ रस आलंबन में वास 
करे उक्ति अनुचित अनायास 
जसे परकीया में रति आस. 
हुवे उक्ति शृंगार रसाभास. 

अबल सज्जन-वध में उत्साह 
अधम में करना शम-प्रवाह. 
पूज्यजन के प्रति करना क्रोध 
विरक्त संन्यासी में फल चाह. 

वीर उत्तम व्यक्ति में भय 
जादू आदि में हो विस्मय. 
बलि में हो बीभत्स का हास 
वहाँ होता रस का आभास. 

रसाभास — रसाभास की स्थिति वहाँ आ जाती है जहाँ पर किसी रस के आलंबन या आश्रय में अनौचित्य का समावेश हो जाता है. यदि कसी व्यक्ति में निर्बल या साधु संतों के वध में उत्साह की योजना की जाती है तो वहाँ वीर रस न होकर रसाभास होगा क्योंकि रस के समस्त अवयवों के कारण उक्ति रसात्मक तो हो जायेगी किन्तु उसमें अनौचित्य आ जाने के कारण तीव्रता में कमी आ जायेगी. इसी प्रकार नायिका में उपनायक या किसी अन्य पुरुष के प्रति अनुराग की अनुभूति या गुरुपत्नी, देवी, बहिन, पुत्री आदि के प्रति रति का वर्णन शृंगार रस के अंतर्गत नहीं आ पायेगा. इसी परकार अन्य रसों के संबंध में भी जानना चाहिए. विरक्त या संन्यासी में शोक का होना दिखाया जाना, पूज्य व्यक्तियों के प्रति क्रोध व्यक्त करना, उत्तम एवं वीर व्यक्ति में भय का निदर्शन, बलि आदि में बीभत्स का चित्रण, जादू आदि में विस्मय का चित्रण, और नीच व्यक्ति में निर्वेद का वर्णन आदि क्रमशः करुण रसाभास, रौद्र रसाभास, भयानक रसाभास, बीभत्स रसाभास, अदभुत रसाभास और शांत रसाभास होगा. 

भावाभास — किसी भाव में अनौचित्यपूर्ण वर्णन में भावध्वनि न होकर भावाभास आ जाता है. विश्वनाथ ने किसी वेश्या आदि में लज्जाभाव के चित्रण को भावाभास माना है. रसवादी आचार्यों का स्पष्ट अभिमत है कि इस प्रक्रिया में अनैतिकता, अस्वभाविकता, अव्यावहारिकता आ जाने से अथवा अपूर्णता के कारण रस, रस नहीं रह जाता बल्कि वह रसाभास हो जाता है और इसी प्रकार उस स्थिति में कोई भाव, भाव न रहकर भावाभास हो जाता है. 

प्राचीन आचार्यों का मानना था कि अनौचित्य के कारण आस्वादन के समय भाव का सुखद आस्वादन नहीं हो पाता और भावाभिव्यक्ति भाव का आभास मात्र करवाकर शांत हो जाती है. कुछ स्थलों पर तो वह घृणित उक्ति बन जाती है. कुछ इसे काव्यशास्त्रियों ने ही नहीं, बल्कि सृजनशील कलाकारों ने भी हृदय से स्वीकार किया है. 






— : वीर रस और रौद्र रस में अंतर : —

उत्साह वीर का संबंधी
औ' क्रोध रौद्र का है बंदी. 
बंदी अनिष्टकारी होता 
औ' वीर नहीं करता संधी*. 

उत्साह उमंग में झूम-झूम 
बढ़ता जाता मंदी-मंदी. 
है लक्ष्य सफलता का लेकिन 
कर क्रोध हुई मेधा अंधी. 






रविवार, 6 फ़रवरी 2011

शारद-हंस


चाहता हूँ आपस में आप 
पास आकर दोनों मिल जाओ.
अरे! तुम रंग रूप से नयी 
विश्व को शीतलता पहुँचाओ. 

निशा के सुन लो कर-भरतार 
दिवाकर को करना लाचार. 
आप से लेकर शीतल प्यार 
उष्णता का कर दे परिहार. 

मिलो तो लागे नया बसंत 
बिछड़ जावो तो भी दुःख अंत 
हुवे, लौटे मुख पर मुस्कान 
देख तुमको खिल जावें दंत. 

सुन्दरी लगने लागे लाज 
राजने लागे सर अवतंस. 
नष्ट होवे मानस का क्रोध 
तैरने आवे शारद-हंस. 



कवि कोटियाँ - 4

रचना की मौलिकता कि आधार पर कवि के चार भेद हैं : 
१] उत्पादक कवि — अपनी नवीन उदभावना के आधार पर मौलिक रचना प्रस्तुत करता है. 
२] परिवर्तक कवि — दूसरे कवियों की रचना में कुछ उलटफेर करके अपनी छाप डाल उसे अपनी रचना बना लेता है. 
३] आच्छादक कवि — कुछ साधारण हेर-फेर से ही दूसरों की रचना छिपाकर उसे अपनी ही कहकर प्रसिद्ध कर देता है. 
४] संवर्गक कवि — प्रकट रूप से खुल्लमखुल्ला दूसरे के काव्य को अपना कहकर प्रकाशित करता है. 

इन कवियों में वास्तव में उत्पादक को ही कवि मानना चाहिए, अन्य तो नकलची, चोर या डाकू हैं, कवि नहीं.  

फिलहाल इतना ही, अन्य भेद अगले अध्याय में ...

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

चिंता


हे चपल बालिके !  मस्तक पर 
आकर क्यों टेढ़ी चाल चलो? 
क्यों निज रसमय अभिशापों से 
वृद्धावस्था का जाल बुनो?

हे व्याल प्रिये ! डस छोड़ दिया. 
तुमने तन में विष घोल दिया. 
यादों के दुर्दिन द्वारों को 
क्यों निर्मम होकर खोल दिया? 

अरी भ्रू मध्य ठहरी रेखा ! 
अप्सरा रूप तुममें देखा. 
तुमने आशा बनकर, मुझको 
ठग लिया, छली, मिथ्या लेखा ! 

[इस बार केवल कविता, चिंता के कारण कुछ सूझ नहीं रहा.]

रविवार, 30 जनवरी 2011

संबंध क्लिष्ट


फिर से कर जाना चाहता है अंतर, मौन में प्रविष्ट. 
आचरण जब होने लगता है अति-शिष्ट या विशिष्ट. 
अथवा तनावों के मध्य होने लगता है संबंध क्लिष्ट. 
निर्वाह न कर सकेगा स्नेह का अंतर हमारा, मेरे इष्ट. 
करना पड़ता है विवशता में एकपक्षीय व्यवहार का अनिष्ट. 
______________________________________________

कवि-कोटियाँ - 3

प्रतिभा और व्युत्पत्ति के दोनों ही के आधार पर राजशेखर [संस्कृत काव्यशास्त्री] ने तीन भेद किये हैं. 
[१] शास्त्र कवि — इस तरह के कवियों में अध्ययन और ज्ञान अधिक रहता है, किन्तु रस और भाव की सम्पत्ति अधिक नहीं रहती. 
[२] काव्य कवि — इस तरह के कवियों में में कवित्व अधिक रहता है, अध्ययन और ज्ञान उतना नहीं रहता जितना कि शास्त्र कवि में रहता है. 
[३] उभय कवि — इस तरह के कवियों में दोनों ही बातों का समान महत्व रहता है. 

........ इस तरह उभय कवि सर्वोत्तम और शास्त्र कवि केवल अपनी ही दृष्टि में उत्तम समझे जाते हैं शास्त्र कवि आत्ममुग्ध अधिक होते हैं. हमेशा छंद और काव्य-गुणों व दोषों में उलझे रहकर कविता का रसपान न स्वयं कर पाते हैं न ही रसिकों को लेने देते हैं. फिर भी इनकी अहमियत शास्त्रीय ज्ञान के कारण विद्वानों में बनी रहती है. काव्य कवियों को चिंता नहीं होती कि वे अपने भावों को किस छंद में ढाल रहे हैं. मंजे हुए इस तरह के कवि स्वतः ही अपने भावानुकूल छंद का चयन कर अपनी अभिव्यक्ति-ऊर्जा रेचित करते हैं. 

[ कवि कोटियों का अन्य आधारों पर अगले अध्याय में विश्लेषण किया जाएगा.  ]


सोमवार, 24 जनवरी 2011

– : स्मृति आज़ कर रही तुमसे नेह : –

त्रय दिवस बीतने बाद प्रिये! 
कर रहा स्मृति को लिपिबद्ध. 
मैं शुष्क प्रेम अपने वाले 
कुछ तत्त्व दिखा देता हूँ सद्य. 

त्वम वस्त्र पुराने नवल सभी 
कर-अधर द्वयं के संगी हैं. 
एकांत, श्रांत, मन भ्रांत कभी 
होता तो मोचन अंगी हैं. 

तलहटी पाद पीड़ा में भी 
तुम हुए समाहित सेवा से. 
स्मृति आज़ कर रही तुमसे नेह 
जुट गये विषय अच्छे-खासे. 
______________________
कविता की पृष्ठभूमि : 
मेरी पत्नी को मुझसे शिकायत रही कि मैंने कभी कोई कविता उनपर नहीं लिखी. आज़ मुझे एक डायरी मिल ही गयी जिसमें उनपर कुछ ऐसा लिखा था जो उनकी दृष्टि से छिपा रह गया था. बात उस समय की है जब वे किसी कारणवश विवाह के प्रथम वर्ष में ही अपने जन्म-घर गई हुई थीं. तीन दिवस बीत चुके थे, मन मंद-मंद कराह कर रहा था. तलवों में हो रही पीड़ा किसी की स्मृति का संबल लिये थी. 

+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

कवि-कोटियाँ - 2

काव्य सेवन के आधार पर भावक या आलोचक के चार भेद माने गये हैं. आरोचकी, सतृणाभ्यवहारी, मत्सरी और तत्त्वाभिनिवेशी. 

आरोचकी — 
वह है जिसे अन्य किसी का काव्य अच्छा नहीं लगता. 

सतृणाभ्यवहारी — 
वह है जो समस्त कविता कही जाने वाली छंदोबद्ध रचना को पढ़ता है. 

मत्सरी — 
वह है जो दूसरों के उत्तम काव्य को न पढ़ता है और न सुनकर प्रशंसा करता है, केवल दोषों को देखता है. 

तत्त्वाभिनिवेशी — 
वह है जो काव्य के तत्त्व में प्रवेश कर उसे पहचानता और ग्रहण करता है. 


शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कहो कुछ बेशक आप नहीं


इस जीवन की यही विषमता
साफ़ कहो तो मिले विफलता
हम तुमसे कुछ कहें —
फेरते मुख को आप कहीं
कहो कुछ बेशक आप नहीं .

छूट गया मिलना-जुलना सब
पुनः मिलेंगे शायद न अब
जितना तुमसे दूर चलूँ
आ जाता लौट वहीँ
कहो कुछ बेशक आप नहीं .

धुरी आप मेरे चिंतन की
भले न हो किञ्चित निज मन की
एक रूप में रूप सभी —
दिख पड़ते मुझको यहीं
कहो कुछ बेशक आप नहीं .

____________________________________________

कवि-कोटियाँ 

क्षेमेन्द्र ने भाव-अपहरण करने वाले छह प्रकार के कवियों का उल्लेख किया है. 
कवि का उपकार करने वाली कारयित्री या रचनात्मक प्रतिभा तीन प्रकार की होती है :

सहजा, 
आहार्या और 
औपदेशिकी. 

इसी के आधार पर कवियों की तीन कोटियाँ निश्चित की जा सकती हैं. 

पहली 'सारस्वत', 
दूसरी 'आभ्यासिक' और 
तीसरी 'औपदेशिकी'. 

सारस्वत — इस कोटि में वे कवि आते हैं जिनकी कवित्वशक्ति 'सहजा' प्रतिभा के द्वारा पूर्वजन्म के संस्कारवश कवि-कर्म में प्रवृत्त होती है.  

आभ्यासिक — इस कोटि में वे कवि आते हैं जिनकी कवित्वशक्ति आहार्य [अर्जित] बुद्धि के द्वारा इसी जन्म के अभ्यास से जाग्रत होती है. 

औपदेशिक — इस कोटि  के कवि वे हैं जिनकी काव्य रचना उपदेश के सहारे होती है. 


शनिवार, 15 जनवरी 2011

अमरता का संगीत

अश्रुओं से जब मैं दिन-रात 
स्वयं को करुणामय संगीत 
सुनाया करता अब वो बात 
नहीं वैसी होती परतीत. 

आपका है मुझ पर अधिकार
किया क्योंकि तुमने उपकार. 
आपका मिलना बारंबार 
कल्पना में आ देना प्यार. 

अहा! तुम ही हो मेरे मीत 
नहीं भूलूँगा तेरी प्रीत 
मृतमय है मेरा तन-साज 
अमरता का हो तुम संगीत. 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

मौन रहने से बिगड़ गई

मौन रहने से बिगड़ गई 
बात, जो चार दृगों के बीच 
नेह की करती थी सृष्टि 
देह से दूर रही दृष्टि. 

कौन दोनों के बीच नयी  
प्रेम की करवाये संधी*.
ग़लतफहमी दोनों के बीच 
फैसला करती, बन अंधी. 

न्याय पावेगा सच्चा कौन 
खड़े हैं दोनों ही निर्दोष. 
दंड भुगतेगा इसका कौन 
छिपे हैं दोनों के ही कोष. 

_____________
संधी — सही रूप 'संधि' है. 

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

सचमुच यह तो अन्याय बड़ा

सचमुच यह तो अन्याय बड़ा 
कोमल हृत भी हो गया कड़ा
जिसमें निवास कर विनय मरा 
सौभाग्य किवा दुर्भाग्य बड़ा. 

जो नयन नील नभ में घूमे 
वे आज़ देखते शुष्क धरा 
हो जा यौवन अब जरा युक्त 
नयनों को खलता रंग हरा. 

यदि कर सृजन से करें दगा 
तो होगा कवि का कौन सगा. 
नूपुर को तेरे जंग लगे 
यदि पग नर्तन से करें दगा. 

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

सूर्यग्रहण

"तू ज़्यादा मत इतराया कर
तू मेरे पास ना आया कर."
सविता कहती — "हे धृष्ट मयंक! 
क्यों लगते हो तुम मेरे अंक. 
सारी की सारी आभा निज 
ले लेते हो कर देते रंक. 
न स्वयं किसी को बतलाते -
'क्या लिया आपने कर रातें'
मुझको अपनी बातों से तुम 
बहकाते, निज आभा पाते 
पर सच है, सच्ची नेक बात 
सम्मुख सबके आयेगी ही 
बोलो ना बोलो मेरी जय 
आगे पूजी जाऊँगी ही."

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

कल्पनाशक्ति तेज़ करा लो.S..S...S....

नहीं कहूँगा 
मैंने कोई 
नहीं किया अपराध. 
किन्तु आपको 
सुनना होगा 
मेरा यह संवाद -
"एक पक्ष का प्रेम सदा 
होता आया है पाप. 
पक्ष दूसरे के भी मैंने 
कभी सुने पदचाप."

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पल्लव का पुंज


सुना मैंने, पल्लव का पुंज 
बनाया था जो मेरे लिये. 
उसे तुमने ही अपने पास 
रख लिया गलने के ही लिये. 

दीप वाले काले तम में 
छिप गये तुम पल्लव के पुंज 
हमारी यादों को तुम त्याग 
चल दिए मिलने को पिक-कुञ्ज. 

वही केवल पल्लव का पुंज 
हमारे लिये बचा अवशेष. 
आप तो रहते हो स्वच्छंद 
हमारे लिये बना परिवेश. 

रविवार, 19 दिसंबर 2010

कर-अली


कर क्या देखो वातायन से 
इस घर के घुप्प अँधेरे में. 
क्या त्याग दिया तुमको रवि ने 
जो आयी पास तुम इस तम के. 

कर बोली - तुम पहले बोलो, 
क्यों बैठे हो आकर तम में. 
क्या छोड़ दिया है साथ तुम्हारा 
किसी वंचक-सी, सहेली ने? 

हाँ कहकर मैंने धीरे से, 
गरदन को अपने झुका लिया 
वो भाग गयी है छोड़ मुझे, 
ना है कोई मेरी और अली. 

कर बोली - मेरे स्वामी ने 
बनने को हेली बोला है. 
तुम भूल जाओ उस पल को 
जिसमें कि त्वं मन डोला है. 

है अनंत अली मेरे पिय की, 
निज देतीं सबको उजियाला. 
उर-व्यथा भार हलका करके, 
स्नेह देतीं हैं भर-भर प्याला. 

[कर-अली — किरण सखी ]

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

हवामहल


वात बात करती सपनों से 
ऐसा हो निज राजमहल. 
जिनमें द्वार कई छोटे हों 
किरणों की हो चहल-पहल. 

एक द्वार हो मुख्य, उसी पर 
लटके परदा फूलों का. 
खुल जाये मेरे आने पर, 
देकर बस हलका झोंका. 

बस वेणु आवाज़ गूँजती 
हो कानों में मधुर-मधुर. 
त्रसरेणु पग घुंघरू पहने 
नाच करे छम-छम का स्वर. 

दूर-दूर तक मेरी गाथा 
गाती हो हर इक जिह्वा -
"देखो आयी राजमहल से 
रानी के यश की गंधा." 

त्रसरेणु — प्रकाश में दिखलाई देने वाले सूक्ष्मतम कण, धूलिकण, प्रकाश-वाहक कण, परमाणु. 

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जलन

सहसा आये थे ...... देह साज 
मिलने को, जाने कौन व्याज. 
अधिकार जमाने .... पुरा-नेह 
मानो करते थे .... मौन राज. 


फिर भी .. कर व्यक्त नहीं पाए 
निज नेह,.. मौन के मौन रहे. 
कब तलक रहे जीवित आशा 
मेरी, .. इतनी चुप कौन सहे? 


चुप सहने को .. मैं सहूँ सदा 
पर कैसे छलमय मान सहूँ? 
तुम करो बात जब दूजे से, 
मैं जलूँ, 'जलन' किस भाँति कहूँ? 



शनिवार, 27 नवंबर 2010

दर्शन पिपासा

आप धुंधले हो गये 
धुंधली स्मृति की तरह 
उपनयन का अंक मेरा  
बढ़ गया चुपचाप है. 


दर्शन पिपासा है अभी 
कुछ शेष अब भी नयन में 
संग्रह नहीं स्वभाव है 
तुम सतत दिखते ही रहो. 


_______________
उपनयन : यहाँ अर्थ है 'चश्मा' या ऐनक 


शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मधुर स्मृति का बलात कर्म

मेरा मौन में निवास था लेकिन मेरे प्रिय मौन में आपका आगमन हुआ. आपको मेरा मौन भा गया. आपको मेरे मौन के प्रति लोभ हुआ (नीयत बिगड़ गई). आपने धीरे-धीरे मेरे निजी मौन पर आधिपत्य जमा लिया. मैं मौन से बाहर आ गया. इस आपदा को विस्मृत करने के लिये मैंने नाद के आवास में शरण ली. लेकिन मेरा मौन से ही मोह था, सो मैं पुनः मोह के परिवेश में जाने को उत्सुक हुआ. मोह में पुनः निवास पाने के लिये आपने मुझसे कुछ शर्तें रखीं —
पहली शर्त, आपसे मैं परिणय करूँ.
दूसरी शर्त, आपको मैं हमेशा अपने संग ही रखूँ - प्रत्येक परिस्थिति में.


रविवार, 21 नवंबर 2010

स्वर का थर्मामीटर


हमारे शरीर का तापमान जब अधिक होता है तब हम जान जाते हैं कि हमें ज्वर है, वातावरण कुछ गरम हुआ नहीं कि हम कहने लगते हैं कि 'उफ़ गरमी'. जब कोई कुपित होता है तब हम जान जाते हैं कि स्वर में कितना तापमान है. इस प्रकार आपने देखा कि शरीर का, जलवायु का और स्वर के तापमान का अनुमान लगाने में हम सक्षम हैं. स्वर की अपनी भी कुछ विशेषताएँ होती हैं — मधुर, कर्कश, कम्पित, भंग, अस्फुट...

स्वर के तापमान का सही-सही अनुमान लगाया जा सके. इसके लिये हम यदि एक चिह्नित पैमाना बना लें तो सुविधा होगी. 

स्वर का थर्मामीटर

| ............v ............ v ............. v ............ v ............ v ............. v ............ v ............ v ............ v ............. |
0 ........ 10 .......... 20 .......... 30 .......... 40 .......... 50 .......... 60 .......... 70 .......... 80 .......... 90 .......... 100
| ............^ ............ ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............. ^ ............ ^ ............. |

000 = निःशब्द स्वर [भय की पराकाष्ठा]
...........स्वर क्रियाहीन हो जाता है.
...........परिणाम ............[सदमा]

010 = भयातुर स्वर
..........स्वर सिमटने लगता है.
.........परिणाम ............[घबराहट]

020 = शांत स्वर 
........... स्वर अंगडाई लेता लगता है.
............परिणाम ............[संतोष] कई तरह के मानसिक तनावों से मुक्ति

030 = पिशुन स्वर
..........स्वर दबे पाँव चलता है [चुगली]
 ..........परिणाम ............[असंतोष] कई तरह के मानसिक तनावों से मुक्ति

040 = हास्य स्वर
..........स्वर भागता हुआ लगता है.
......... परिणाम ............[संतोष] कई तरह के शारीरिक तनावों से मुक्ति

050 = संयत स्वर 
...........स्वर संभलता हुआ-सा बढता है.
........ ...परिणाम ..........  [धैर्य] मनोबल बढ़ता है.

060 = व्यंग्य स्वर
...........स्वर आड़ा-तिरछा चलता लगता है.
............परिणाम .......... आड़े-तिरछे चलते स्वर को मद्यप-कथन जान लोग उसे हलके में लेते हैं.

070 = निंदा स्वर
..........स्वर फैलने लगता है [आलोचना]
...........परिणाम .......... विशेष पहचान बना पाने का सुख

080 = तिक्त व्यंग्य स्वर 
...........स्वर खिंचने लगता है [कटाक्ष]
............परिणाम ...........[जय-तृप्ति] जीतने की भूख की शांति

090 = अपशब्द स्वर
...........स्वर लडखडाता है[आक्रोश]
..........परिणाम ........... [अशांत मन]

100 = अवरुद्ध स्वर [क्रोध की पराकाष्ठा]
...........स्वर रुक जाता है.
...........परिणाम ...........सदमा या मूर्च्छा

इस पैमाने की अति निम्नावस्था का प्रभाव है निम्न रक्तचाप LBP [Low Blood Pressure]
और अति उच्चावस्था का प्रभाव है उच्च रक्तचाप HBP [High Blood Pressure] 

बुधवार, 10 नवंबर 2010

तिलक हस्त


वो तिलक हस्त 
मस्तक तक आ 
आनंद दे गया था मुझको. 
बेझिझक ताकते 
थे दो चख 
आशी देते मानो हमको. 

थे रिक्त हाथ  
दो टूक बात 
मैं बोल नहीं पाया तुमको. 
हो चतुर आप 
कर बिन अलाप 
छीना तुमने मेरे मन को. 


['दौज-तिलक' जब मैंने काल्पनिक तिलक-हस्त से करवाया और निरंतर ताकते नेत्रों से आशीर्वाद पाया.]