शनिवार, 27 नवंबर 2010

दर्शन पिपासा

आप धुंधले हो गये 
धुंधली स्मृति की तरह 
उपनयन का अंक मेरा  
बढ़ गया चुपचाप है. 


दर्शन पिपासा है अभी 
कुछ शेष अब भी नयन में 
संग्रह नहीं स्वभाव है 
तुम सतत दिखते ही रहो. 


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उपनयन : यहाँ अर्थ है 'चश्मा' या ऐनक 



दूसरे शब्दों में :
तुम फिर छिप जावोगे आकर 
ऎसी आशा न थी मुझको 
तुम इतराते आये पलभर 
वैसे भी आना था तुमको. 
तुम इतने निष्ठुर तो न हो 
जो भूल मुझे जल्दी जाओ 
दर्शन तो अब जी-भर दे दो
ईश्वर जाने फिर कब आओ. 


___________
प्रश्न : अब मेरे स्वर का तापमान कितना है? 

23 टिप्‍पणियां:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

आदरणीय बंधुवर प्रतुल वशिष्ठ जी
नमन !
अभिनंदन !
अभिवादन !

सच, बड़ी गड़बड़ हो रही है …उपनयन के अंक बढ़ने से तो कतिपय अन्य विकट स्थितियां उत्पन्न होने की आशंकाएं हैं, सम्हल जाएं ।

जहां तक रचना का प्रश्न है , अनेकानेक दीर्घकाय रचनाओं पर यह लघु कविता भारी प्रतीत होती है ।

दर्शन पिपासा है अभी
कुछ शेष अब भी नयन में

कहना है, उनसे साक्षात् निवेदन से सफलता संभव है … !
संग्रह नहीं स्वभाव है
तुम सतत दिखते ही रहो

यहां आ'कर हम निरुत्तर हैं भ्राताश्री !

हां, रचना के रसपान से बहुत आनन्दित- आह्लादित हुए हैं , और इसके लिए हम आपके ॠणी हो गए हैं …
अस्तु !

शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार

सुज्ञ ने कहा…

गुरु जी,

अनुनय विनय का कोई स्वर न मिला

फिर…………
050 = संयत स्वर
...........स्वर संभलता हुआ-सा बढता है.
........ ...परिणाम .......... [धैर्य] मनोबल बढ़ता है.

सुज्ञ ने कहा…

गुरुजी,

आप धुंधले हो गये
धुंधली स्मृति की तरह
उपनयन का अंक मेरा
बढ़ गया चुपचाप है.

उपनयन का अंक, अर्थार्त ऐनक की गोद तो नाक है, जो अभिमान सूचक है।:)

यदि वे धुंधली स्मृति बन गये तो मेरा स्वाभिमान उभर आया? :))

ZEAL ने कहा…

उम्दा रचना -बधाई !

Amit Sharma ने कहा…

080 = तिक्त व्यंग्य स्वर
...........स्वर खिंचने लगता है [कटाक्ष]
............परिणाम ...........[जय-तृप्ति] जीतने की भूख की शांति

Amit Sharma ने कहा…

आज की परीक्षा में तो बिना तैयारी ही बैठा हूँ ...............सब राम भरोसे है

kunwarji's ने कहा…

raam raam ji...

kunwar ji,

केवल राम ने कहा…

संग्रह नहीं स्वभाव है
तुम सतत दिखते ही रहो.
सुंदर ..शुक्रिया
चलते -चलते पर आपका स्वागत है

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

गहरे भाव वाली इस सुंदर सी कविता को पढ़कर अच्छा लगा.

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

aap to amritghat urel rahe hain....priye jano par....

pichli post par jo apne kah diya....
thori glani ho rahi hai.....ab balak
kya kare

pranam.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी
आपने बात को सही से पकड़ा. अनुनय-विनय का स्वर 'स्वर-थर्मामीटर' में नहीं दिया गया.
ध्यान रखें ... बहुत-सी चीज़ों के अनुमान मेधावी छात्रों को स्वयं लगाने होते हैं.
अनुनय-विनय का स्वर एक ही स्थान पर दबे-पाँव उछल-कूद करता सा लगता है
अतः यह पिशुन और हास्य स्वर के ऊपर स्थान पायेगा. जिसका तापमान
040 और 050 के मध्य होगा.
स्वर में संभलने का कुछ प्रयास भी निहित है, सो आपने उसे संयत के करीब बताकर तकरीबन सही उत्तर दिया.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी,
जब स्वर की उछल-कूद शोर करने लगे तब वह जिद कहलाती है.
रूठने, मान करने आदि के स्वर भी संयत स्वर के तापमान से नीचे ही आयेंगे.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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अमित जी,
शायद आपने वैकल्पिक अवतरण को देखकर अनुमान लगाए हैं. उसमें भी आपको 'इतराये' और 'निष्ठुर' शब्दों को देखकर स्वर के खिंचने का आभास हुआ है.
आपके अनुमान सही हैं. उसमें अपने प्रिय के प्रति उलाहना ही है. जिसमें व्यंग्य कुछ तिक्त हो गया है.
क्योंकि मैं अपने मनोभाव सही-सही व्यक्त कर पाया इस कारण मुझे जय की तृप्ति हुई.
सम्पूर्ण काव्य-अवतरण में अपने प्रिय के प्रति कटाक्ष ही है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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परम आदरणीय राजेन्द्र जी,
मेरा स्पष्टीकरण :
ऐसा था कि कुछ दिनों से आकाश में बादल काफी छाये रहे, सूर्य दर्शन नहीं दे रहे थे, वे दिखते भी थे तो धुँधले-धुँधले. एक दिन अचानक थोड़ी देर के लिये आये और आकर फिर धुंधलके में जा छिपे.
मेरा दर्शन-पिपासु मन कराह उठा. इस शीत में दर्शन-इच्छा से ही तप्त हो लेता हूँ. संबंधों में गरमाहट बेहद जरूरी है आपसी व्यवहार में. वे सर्दियों में इस तरह का व्यवहार प्रायः करते हैं. अपनी स्पष्ट छवि के साथ छेड़छाड़ उनको रुचने लगा है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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सुज्ञ जी आपने दो बातें कहीं :
[१] उपनयन का अंक, अर्थात ऐनक की गोद तो नाक है, जो अभिमान सूचक है।
@ आपने 'अंक' का न्यारा अर्थ लगाकर आनंद द्विगुणित कर दिया.
मैंने भी तो यही किया था. उपनयन का न्यारा अर्थ लगाया 'ऐनक'
अब तो 'उपनयन का अंक' मिलकर के बिलकुल ही न्यारा अर्थ पा गया है.
'ऐनक की गोद' अर्थात नाक अर्थात अभिमान.
___________
तो लीजिये एक नया अर्थ ही कर देते हैं :
मैंने जब आपको विस्मृत करना चाहा तब मेरा अभिमान उभर आया. अथवा
जब आप मुझसे मिलकर दूर हुए तब मेरे उपनयन की गोद भर (बढ़) गयी. अर्थात आप दूर जाकर भी मेरे पास ही रहे. अपने अंश रूप में.

[२] यदि वे धुंधली स्मृति बन गये तो मेरा स्वाभिमान उभर आया?
@ जब कवि कहता है कि 'संग्रह नहीं स्वभाव है' केवल तब ही लगता है कि दर्शन पिपासु कवि स्वाभिमानी है.
अन्यथा धुंधली स्मृति को तो वह अपने गुप्त प्रयासों से निरंतर उभारता ही रहता है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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संजय जी,
आप ग्लानि कतई नहीं करें. आपने केवल त्रुटियों पर ध्यान दिलाया था. ग्लानि तो मुझे हुई थी.
जब कोई प्रिय व्यक्ति बुजुर्गों को धुंधला दिखने लगता है तब उन्हें लगता है कि उनके चश्मे का नंबर बढ़ गया है.
बस इतना ही निहितार्थ था मेरे कहने का. अमृतघाट तो हम सभी के प्रयासों से निर्मित होगा.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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कुँवर जी
आपके रामराम में समस्त अर्थ समाये हैं.

'राम' शब्द केवल एक बार उच्चारने से संबोधन बन जाता है ....... केवल 'राम'
दो बार उच्चारने से ......... वही राम ................ अभिवादन बन जाता है.
और तीन बार उच्चारने से .. राम राम राम ... 'तौबा-तौबा' का पर्याय हो जाता है.
जब चार बार उच्चारते हैं ........ तब वह जाप कहलाता है.
सच में राम शब्द की महिमा अपरम्पार है.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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विजेंद्र जी
आपकी संतुलित प्रशंसा दर्शाती है कि किस बात को कितनी तवज्जो दी जानी चाहिए.
व्यक्ति का स्वभाव उनकी टिप्पणियों में निहित होता है. आप गंभीर चिन्तक हैं. किसी भी बात का गहरायी से चिंतन करते हैं.
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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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चलते-चलते
केवल राम जी का आभार करता हूँ.

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Amit Sharma ने कहा…

पुनः स्वागत है गुरूजी !
हमारी भी दर्शन पिपासा शांत हुयी

सुज्ञ ने कहा…

बहुत देर कर दी गुरूजी,

दर्शन पिपासा तो शान्त हुई, पर थे कहाँ गुरुदेव?

जन्म-दिवस पर आशिर्वाद पिपासा रह गई, अब पधारिये न।

Rahul Singh ने कहा…

कागा सब तन खाइयो ... की राह पर.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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कागा सब तन खाइयो ... की राह पर.
@ नहीं, दर्शन पिपासा इस राह पर कतई नहीं है.
यहाँ मेरे अभीष्ट 'सूर्य' को राहू ग्रस न ले .. अब मुझे यह चिंता सताने लगी है.
अभी तक तो बादल छँटने की प्रतीक्षा कर रहे थे ... कवि मन और उपनयन.
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पाठशाला के विद्यार्थियों को समझाने को :
कागा सब तन खाइयो .... मतलब

आखिरकार कौआ
अपने द्वारा शिकार किये जीव के
सभी अंगों को
धीरे-धीरे अथवा
समय-समय पर
जीभ का स्वाद बदलने को
खा ही जाता है.

.... क्या यह दर्शन-पिपासा कुत्सित है? राहुल जी.

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