यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
गुरुवार, 11 जून 2015
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
काव्य-शिक्षा [आशु कविता – 6]
प्रायः किसी भी
आशु कविता का शरीर प्रयोक्ता के बहुप्रयुक्त शब्दों से तैयार होता है। प्रयोक्ता 'कविता शरीर'
गढ़ने के समय यह भी प्रयास करता है कि वह आकर्षक लगे। इसके लिए वह अपनी
समस्त (अधिकतम) क्षमताओं का उपयोग करता
है। आशुकविता का रचनाकार जिस भी मुख्य कार्यक्षेत्र से जुड़ा होता है, प्रयुक्त शब्दों के मुखों को देखकर पाठक/श्रोता अनुमान
लगा लेते हैं कि उसका मुख्य व्यवसाय क्या है या क्या रहा होगा?
जानकारी के अभाव
में कविता यदि शाब्दिक व आर्थिक अलंकारों से नहीं सज पाती तो उसका
कोई तो गुण ऐसा हो जो उसे सहृदयों में वाहवाही दिलवाये। इसी
कारण नवोदित रचनाकार का जैसा भी सौन्दर्यबोध होता है वह उसके अनुसार ही अपनी कृति को
सज्जित करने का प्रयास करता है। शब्द व अर्थ-सौन्दर्य
की समझ जिस भी अनुपात में हो उसका प्रयोग आशु रचना गढ़ने में वह करता ही है। इसके अलावा
यदि वह कोई अन्य ध्वनिगम* अथवा वक्रोक्तिगम माध्यम अपनाकर स्वकृति को पठनीय व श्रवणीय
बनाता है तो वह भी स्वीकार्य है। [*शब्दों का ऐसा विन्यास हो उच्चारण के उतार-चढ़ाव से
रचना को सरस बनाता हो।]
इस बार मेरी ही एक 'आशु रचना' … कसौटी पर कसने को
तैयार है।
"गुमसुम
पाठी"
मैं 'हूँ'
इसे अनुभव करने के लिए / हर पल हर क्षण
इधर उधर भटकता हूँ
कभी ज़मीन देखता हूँ / तो कभी आकाश
चलते-फिरते शरीर देखता हूँ / तो
कभी लाश
निर्माण और नाश की घटनाओं में
स्वयं को तलाशने की … /
तलाशकर … स्वयं को एक पहचान देने
की
… कोशिश में ही तो
मैं जगह-जगह भटक रहा हूँ।
मैं 'हूँ'
इसे जानने के लिए
कभी मैं उन पर ध्यान देता हूँ
जो मेरा उपयोग जान मेरे पास आते हैं
तो कभी उनपर /
जो मुझसे भयभीत हो मुझसे दूरी बनाते हैं।
मैं 'हूँ'
मैं कभी कुछ हूँ / तो
कभी बहुत कुछ हूँ
मैं डूबते के लिए तिनका हूँ / तो
कभी असहाय के हाथ की लाठी हूँ
दरअसल / 'मैं'
अभिव्यक्ति के विभिन्न मानवीय
माध्यमों में पिछड़े
मूक निर्जीव वस्तुओं का गुमसुम पाठी हूँ।
मूक निर्जीव वस्तुओं का गुमसुम पाठी हूँ।
सोमवार, 23 मार्च 2015
काव्य-शिक्षा [आशु कविता – 5]
त्वरित कविता के विषय में विचार करते हुए इस सत्य को स्वीकार करने में दो मत नहीं होंगे कि "वास्तव में प्रतिभावान कवियों के लिए
तो सभी मार्ग सुंदर-सुगम हैं और अप्रतिभावानों के लिए सभी स्थान दुर्गम।"
'नाट्यदर्पण' के रचयिता जैन आचार्य श्री रामचन्द्र
और श्री गुणचन्द्र ने कहा है – "निर्धन से लेकर राजा तक के व्यवहार के औचित्य
(कारणों) को जो नहीं जानते हैं और कवित्व की कामना भी करते हैं [अर्थात कवि बनना चाहते
हैं] वे विद्वानों के उपहास (मनोरंजन के) पात्र बनते हैं। इस कारण विद्वता के साथ कवित्व
आवश्यक है। कवित्व के बिना कोरा विद्वान लोक में न प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है और
न ही लोक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।
"प्राणः कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव
योषिताम्।
त्रैविधवेदिनोsप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः॥
स्त्रियों के लावण्य के समान 'कवित्व' विद्याओं
का प्राण रूप है। इसलिए त्रयी विद्या के जानने वाले [वेदों के विद्वान] भी इस [कवित्व
की प्राप्ति] के लिए सदा उत्सुक रहते हैं।
इस बार एक आशु रचना 'रजनीश बिष्ट जी' की दे रहा हूँ :
"पुराना घर"
मैं ढक लेता हूँ
हर चीज़ जो
मेरे अंदर है
जो कि नाज़ुक है
जिसमें छुपी है
'कहानियाँ'
किस्से वाली
बचपन वाले पागलपन
वो ख़्वाब देखता
बच्चा
मैंने जज़्ब किया है
ज़िंदगियों को
मैंने देखा है
परिवार
जो जूझता रहा
हँसता रहा, रोता रहा
मेरे अंदर थी
पकवानों की खुशबू
जीवन के सब रंग
जन्म
मृत्यु
मेरे ही भीतर
बसे थे सपने
और एक दिन
शायद वो समय
लौट आए।
पर मेरे ताला लगे
दरवाज़े में
जज़्ब है
बहुत-सा समय
यादें साथ लिए।
- रजनीश बिष्ट, दिल्ली
बुधवार, 4 मार्च 2015
काव्य-शिक्षा [आशु कविता – 4]
आशु कविता का जन्म एक तरह के मानसिक दबाव
में होता है। यह मानसिक दबाव सृजनात्मक होता है। यह स्वतः निर्मित हो सकता है और
काव्य-लेखन करवाने वाले सहजकर्ता द्वारा भी निर्मित किया गया हो सकता है।
आरंभ में काव्य-गुरु (आचार्य) सहजात प्रतिभा वाले छात्रों
के साथ आहार्य प्रतिभा वाले छात्रों को भी छंदशास्त्र की शिक्षा देता था।
सहजात प्रतिभा वाले 'सारस्वत' कोटि के कवि कहे गए। जो पूर्व जन्म के संस्कारों
द्वारा मिली अथवा माता-पिता के संस्कारों से मिली (जन्मजात) प्रतिभा से सम्पन्न होते
हैं। आहार्य प्रतिभा दो प्रकार की होती है
– पहली आभ्यासिकी और दूसरी औपदेशिकी।
प्रतिभाओं के इन
आधारों पर आशु कवि भी तीनों प्रकार के हो सकते हैं।
- - सारस्वत आशु कवि
- - औपदेशिक आशु कवि
- - आभ्यासिक आशु कवि
श्रेष्ठ पाठक और श्रोता आशु रचनाओं को पढ़कर और सुनकर ही
अनुमान लगा सकते हैं कि कौन-सी रचनाएँ किस प्रतिभा से अंकुरित हुई हैं।
इस बार एक आशु रचना 'बसंती' जी
की दे रहा हूँ :
"सड़क"
जब अपने चारों तरफ देखती हूँ
तो बड़ा दुःख होता है मुझे
दौड़ में आगे निकलने के चक्कर में
सब भागते ही जाते हैँ, भागते ही जाते हैँ।
उनकी इस भगदड़ से मुझपर क्या बीतती है
किसी को कोई फिक्र नहीं
उनके पैरों की थप-थप
गाड़ी के टायरों की रगड़
लोगों के मुँह की पिचकारी की लाल धार
बार-बार पड़ने वाले हथौड़ों की
मार ने मुझे इतना छेद डाला है
कि उसका दर्द सहा नहीं जाता
पर इस बारे में सोचने का
किसी के पास न तो समय
है और न ही जरूरत।
मुझ पर रात को खड़े होकर
दोस्तों से बात तो कर सकते हैं
चाट-पकौड़ी खा सकते हैं
मुझ पर रोब जमा सकते हैं
पर मेरे दर्द को महसूस करने का
मुझे पहचानने का किसी
के पास न तो समय है
और न ही जरूरत ……
समझदार, जीते-जागते लोगों !
थोड़ा समय निकालो और
मुझ निर्जीव के बारे में भी सोचो ……
- बसंती, दिल्लीसोमवार, 16 फ़रवरी 2015
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015
काव्य-शिक्षा [ आशु कविता - ३ ]
आशु कविता का नवोदित कवि क्या सबसे पहले अत्यंत कोमल मनोभावों को कविता की
विषयवस्तु बनाता है? वह अपनी अभिव्यक्ति में किसी ऐसे अनुभवजन्य विचार को पोषित
करता है जिसने प्रकृति निरीक्षण के समय अन्तर्मन में जड़ें जमा ली थीं? इस बार
उत्तराखंड चमोली के आशु रचनाकार श्री बख्तावर सिंह रावत की रचना जस-की-तस दे रहा
हूँ। रचना पर बात करने के लिये इच्छुक पाठक आमंत्रित हैं।
"मधुमक्खी"
यदि मैं मधुमक्खी होती
फूलों से ढ़ूँढ़-ढ़ूँढ़ केसर लाती
केसर लाकर छत्ता और शहद बनाती
जहाँ मन करता वहाँ घूमकर आती
घूम-घूमकर तरह-तरह का रस लाती
जहाँ दिखे सुन्दर फूलों की फुलवारी
वहाँ जाती हूँ मैं बारी-बारी
जितना सुन्दर फूल खिले
उतना सुन्दर शहद मिले [मीठा]
शहद बनाकर करती हूँ कार्य महान
जिसे खाने से आती शरीर में जान
शहद खाने के अलावा आता है
पूजा पाठ के कार्यों में काम
खूब शहद खायो स्वस्थ बन जाओ
फूल की क्यारी बनाकर मस्त बन जाओ
मधुमक्खी हूँ मैं मधुमक्खी हूँ
केवल शहद ही नहीं आता काम
छत्ता आता है मोम बनाने का काम
उसका भी है सुन्दर दाम
जो घर मेरा बनायेगा
अच्छा-अच्छा दाम पायेगा
जो फूलों की रक्षा करेगा
उतना ही सुन्दर शहद भरेगा
जितना ज़्यादा शहद भरेगा
उतना स्वस्थ शरीर रहेगा
मधुमक्खी हूँ मैं मधुमक्खी हूँ
शहद बनाने का करती हूँ काम
जिसे मिलते हैं सुन्दर दाम।
बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
चित्र-मुग्ध अध्याय
"अम्मा पास बैठना है"
"अम्मा पास बैठना है" - बेटी की
ये कामना है। घेरा बच्चों का बना है। घुसना उसमें कब मना है!
अम्मा ने किस्सा बुना है।
सारे बच्चों ने सुना है। बेटी ने वो ही चुना है, जो रह जाता अनसुना है!'सचमुच' का आभार
किस्सों का संसार - बैठे-बैठे संचार। हो किस्सा मज़ेदार – सुनने को सब तैयार॥
तन्मयता व्यापार - में चलता नहीं उधार। बेटी
मचली तो मैंने गोदी से दिया उतार॥
''जाना है'' कहकर जाती जाने कितने ही बार। 'झूठमूठ' को होता 'सचमुच' का आभार॥
बुधवार, 28 जनवरी 2015
काव्य-शिक्षा [ आशु कविता-२ ]
जब भी 'आशु कविता' की बात होती है तो लगता है ऐसी रचना के बारे में कहा जा रहा है जो रचनाकार ने तुरत गढ़ी।
विद्यार्थी जीवन
में ऐसे कई अवसर बनते हैं जब (मुख्यतः परीक्षा के दौरान और वाद-विवाद प्रतियोगिता के समय) विद्यार्थी इसका प्रदर्शन कर रहा होता है या कहें, आशु प्रतिभा के आस-पास घूम रहा होता है। वहाँ इस
प्रतिभा को सीधे-सीधे पहचाना नहीं जाता। यदि पहचाना जाता भी है तो एक अन्य रूप में। ऐसे विद्यार्थियों को
मेधावी,हाज़िर जवाब, प्रत्युत्पन्न मति आदि विशेषण देकर उनकी उस छिपी प्रतिभा से साक्षात्कार नहीं
कराया जाता जो होती सभी में है। मात्रा और गुणवत्ता का स्तर हमारी सोच से
न्यूनाधिक हो सकता है।
मन में प्रश्न
है : आशुत्व क्या है?
मन में भाव आते
ही उसे व्यक्त करते-करते अपने विचार को आकार देते जाना आशुत्व है? अथवा
विचार को व्यक्त
करते-करते मुखसुख के अनुसार विराम अल्पविराम की व्यवस्था बना पाना आशुत्व है?
बोलते हुए यह मुखसुख कैसे-बनता जाता है ?
बोलते हुए यह मुखसुख कैसे-बनता जाता है ?
[2]
"मज़दूर"
मैं मेहनतकश मज़दूर हूँ
देखो फिर भी मैं कितना मज़बूर हूँ
जिन कपड़ों, महलों, गहनों,
गाड़ियों को मैंने बनाया है
सोचो फिर मैंने, क्या-क्या पाया है
मेरे वजह से आपके घरों में, जो सुरमाई है
कभी सोचा आपने, इसको बनाने वाले ने क्या पायी है
बात मेरे हकों का करके यहाँ अपने घर को भरने का दस्तूर है।
(देखो फिर भी मैं कितना मज़बूर हूँ)
- राकेश, लखनऊ
शुक्रवार, 16 जनवरी 2015
काव्य-शिक्षा [आशु कविता -१]
आपको अब तक काव्य-शास्त्रियों
और काव्य-मर्मज्ञों द्वारा काव्य शिक्षा की बातें केवल कागज़ी ही दिखायी दीं होंगी। काव्य से विमुख रहे व्यक्ति के जीवन
में काव्य शिक्षा का आरंभ सही रूप से कैसे किया जाए? क्या प्रत्येक व्यक्ति में
'कवि' होने की संभावना है? क्या भाव के स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति संवेदनशील है?
क्या हमारे सूक्ष्म अनुभवों की भावुक अभिव्यक्ति कविता है या फिर भावुक अनुभवों की
सूक्ष्मता से की जाने वाली अभिव्यक्ति कविता कही जाती है?
इस माह चार दिवसीय कार्यशाला
में एक घण्टा 'कविता' लेखन को मिला। सभी पचास साथियों ने काव्य शिक्षा के इस सत्र
का भरपूर आनंद लिया। इस सत्र में उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर पाने का प्रयास हुआ।
आपके समक्ष बारी-बारी सभी रचनाकारों की जस-की-तस कविताएँ दी जायेंगी। सभी रचनाकारों
की ये पहली-पहली आशु कविताएँ हैं और अधिकतर ने पहली बार ही लिखी हैं। अभी तक इन
रचनाओं में कोई काट-छाँट नहीं हुई है। सुधार की अपार संभावनाएँ हैं। सभी रचनाकार
अपेक्षा भी करते हैं कि उनकी रचनाओं पर भरपूर प्रतिक्रिया मिले।
[1]
"पैंसिल"
अगर आप
एक पैंसिल बनकर
किसी की खुशी
ना लिख सको तो,
एक अच्छा रबड़ बनकर
किसी के दुःख मिटा दो।
आशु कवि - आलोक उपाध्याय
रविवार, 11 जनवरी 2015
तनाव भाव
करूँगी पी जैसा बरताव
तभी उनका अब सा स्वभाव
बदल पाएगा, मुझसे मेल
बढ़ाने का होगा तब चाव।
घाव पर घाव हुआ न स्राव
रक्त का, मन पर बहुत तनाव
किया करता मुझको बलहीन
कहीं जल में न होऊँ विलीन।
रविवार, 14 दिसंबर 2014
बिंदु
छीन कर रेखा से कुछ अंश
बना दूँगा उसके सब ओर
गोल घेरे में वृत्तायन
बढ़ाउँगा उसमें निज वंश॥
बिंदु को रेखा से कर हीन
स्वयं में कर लूँगा मैं लीन
बिंदु से बिंदू एक नवीन
बनाउँगा होकर लवलीन॥
बिंदुओं को आपस में एक
कभी कर दूँगा फिर से रेख
बिंदुओं से रेखा का मेल
कराकर खेलूँगा मैं खेल॥
शनिवार, 6 दिसंबर 2014
शनिवार, 29 नवंबर 2014
पौरुषीय व्रीड़ा
देखकर भी मैं गर्दन मोड़
लिया करता हूँ होकर मौन
नयन करते रहते हैं दौड़
धरा को पाता हूँ न छोड़।
भ्रमण करते रहते भ्रम में
नयन पलकों में घुस अंदर
परन्तु पूछ रहा मन मौन -
"कौन आया है आश्रम में?"
नाम है वही परन्तु बिम्ब
ज़रा सा लगता हैं कुछ भिन्न
देखकर जानूँ कैसे मैं
अभी तक हूँ मैं संयम में।
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014
पुरा-स्मृति
भूल गए हो क्रिया 'बाँधना'
जबसे गाँठ पड़ी मन में
कोमल धागे खुले रह गए
इस बारी फिर सावन में।
छोड़ दिया है आना-जाना
घर में और विचारन में
नेह निमंत्रण बुले रह गए
इस बारी फिर आँगन में।
संबंधों में मिष्टी घोलना
होता है अपनेपन में
चषक-पियाले धुले रह गए
इस बारी उद्यापन में।
लौट आने की शुभ्र सूचना
दे देते उच्चारन में !
करतल-बंदी सुले रह गए
आवेशित हो तारन में।
डुबकी ली थी स्मृति में तेरी
डूब गया मझधारन में
बुद बुद बुद बुलबुले रह गए
स्वर यह भी संचारन में।
* करतल-बंदी = मोबाइल
शुक्रवार, 26 सितंबर 2014
याचना
मुषित आपके ही सारे
झष भाव हमारे कंटक में
सेही बन तुम करते बचाव
ऐहिक निज मन को दे चकमे।
सायक बन बैठे भाव सभी
सायक बन बैठे भाव सभी
अरि बनी आज कविता तरंग
पद दलित हुए सपने मेरे
राका भर नाचा था अनंग।
धनु लिए हाथ कटि में निषंग
धनु लिए हाथ कटि में निषंग
हुत करा हृदय कर स्वप्न भंग
आखेट हमारा करने को
तुर बना, पड़ा पीछे अनंग।
मध्या! मनुहार करूँ तुमसे
मध्या! मनुहार करूँ तुमसे
क्षत कर दो कवि का वचन भंग
मादकता मय सारे विचार
नर्तक नयनों से करो नंग।
हीं हीं करता है हास स्वयं
हीं हीं करता है हास स्वयं
कर्षक संयम पर डाल पंक
रजगुणी हो गई वाक् कलम
पातक मन को दे कौन अंक ?
ओ, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
ओ, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
गेही समान आचरण स्वयं
पारस स्पर्श कर दो कलाचि
मैं स्वर्ण बनूँ, हों पाप अलम।
शुक्रवार, 19 सितंबर 2014
दर्शन-प्राशन
लम्ब उदर के हो जाने से
कर ना पाता हूँ जो आसन
उसे तुरत करती है बेटी
सुन्दरतम ये 'दर्शन प्रासन'*।
कर्मकाण्ड वाला क्रम पूजन
आता है किञ्चित जो रास न
उसे नक़ल करती है बेटी
मनमोहक ये 'दर्शन प्रासन'।
ये है उचित और वो अनुचित
देता रहता हूँ जो भासन*
उसे ध्वस्त करती है बेटी
चख-उद्घाटक 'दर्शन प्रासन'।
* प्रासन = प्राशन
* भासन = भाषण
मंगलवार, 16 सितंबर 2014
संन्यासी सुत
सौंदर्य सुधा घट में भरते
हे देव, आप क्योंकर हाला
क्यों बना रहे कोमल तन को
बालाओं के बंकिम भाला।
था हुआ कभी आहत मैं भी
है पीर अभी उसकी भारी
मैं निर्माता बन हटा तभी
तो लगा आपने ली बारी।
अब तलक ओट से देखी थी
अवगुंठनमय अवनत नारी
विपरीत लगा प्रतिघात भवन
में देखी जब सूरत प्यारी।
हे देव, जानता हूँ मैं सब
तुममें मुझमें है भेद बहुत
तुम संयम के बुत हो तो मैं
संन्यासी संयम का हूँ सुत।
सोमवार, 8 सितंबर 2014
भाव-स्फोट
जब नदी उफान पर होती है, किनारे तोड़कर अपने आसपास के क्षेत्रों में तबाही लाती है तब केवल एक ही उपाय बचता है - उसके शांत होने की प्रतीक्षा।
वैसे ही , जो परस्पर आत्मीय होते हैं या लम्बे समय तक एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहे होते हैं अथवा रक्त सम्बन्धी होते हैं। 'भाव' के स्तर पर उनमें भी भयावह उठा-पटक हो जाती है, क्रोध मन-मस्तिष्क की समस्त विकृतियाँ उगल रहा होता है, सम्बन्ध बिगड़ते हैं, तब मात्र एक ही उपाय रह जाता है - स्थितियों के सामान्य होने की प्रतीक्षा।
'पुरानी डायरी' के पन्ने पलटते हुए आज मैंने 'समय विशेष' में बने भाव के दर्शन किये --- [यहाँ आपको संचारी भावों की मूसलाधार बारिश होती दिखेगी ३३ में से अधिकांश भावों का आना-जाना बहुत तीव्रता से हुआ है।]
स्वसा सम _______,
नमस्ते ! आपका स्मरण निरंतर करता हूँ। आपकी शिष्ट मधुरम क्षणिक किलक हृत में आई शुष्कता को दूर करती है, मस्तिष्क में बसे अहंकार पर चोट करती है।
अति व्यस्त समय में भी आप जटिल विचारों और तनावों के बीच कौंधकर 'चोट पर मरहम' सा आराम देते हो। आपको प्रतीक्षा रही इस पत्र की किन्तु इसे पत्र रूप देने में मेरी कार्य व्यस्तता ही व्यवधान बनी रही। अब इसे दूर करने की शीघ्रता पर विचारता हूँ।
हर 'माँ' माँ होती है। 'पिता' भी पिता होते हैं। दोनों आदरणीय हैं। दोनों का अपमान मेरी कल्पना में भी नहीं हो सकता किन्तु मेरा स्वभाव विश्वासों और मान्यताओं के अंधत्व पर व्यंग्योक्ति करने का रहा है। सो छोड़े नहीं छूटता। यदि मेरे स्वभाव से किसी को पीड़ा पहुँचती है तो मेरे सम्पूर्ण चरित्र और कार्यों पर दृष्टि डाल मूल्यांकन करें। अन्यथा मैं बार-बार बड़ों की कोपदृष्टि से ग्रस्तता रहूँगा।
यहाँ मेरे जन्मपिता और माता द्वारा माता तुल्य अन्य माँ के सम्मान को ठेस पहुँची। जीवन पर्यन्त क्षमा माँगू तो भी ग्लानि नहीं मिटेगी।
इसी अनुभूति के साथ …
आपका भ्रातसम
_______
जो प्रिय थे बालपन से अब तलक
काल्पनिक विलगाव जिनका असह्य था
गर्व होता था कि वे माता-पिता
हैं हमारे, मैं उन्हीं का पुत्र हूँ।
आज स्मृत होता सभी उनका किया
एक झटके में घृणा जिनसे हुई।
ईश ! उनकी बुद्धि में सबके प्रति
प्रेम, ममता, विनम्रता का भाव दो।
अब नहीं वो भाव मन में घूमता
ग्लानिवश छिपता फिरे अथवा कहीं।
देह का व्रण औषधि से मिट गया
किन्तु हृत का व्रण कभी न शुष्क हो। "
सदस्यता लें
संदेश (Atom)