मंगलवार, 16 सितंबर 2014

संन्यासी सुत

सौंदर्य सुधा घट में भरते 
हे देव, आप क्योंकर हाला 
क्यों बना रहे कोमल तन को 
बालाओं के बंकिम भाला। 


था हुआ कभी आहत मैं भी 
है पीर अभी उसकी भारी 
मैं निर्माता बन हटा तभी 
तो लगा आपने ली बारी। 


अब तलक ओट से देखी थी 
अवगुंठनमय अवनत नारी 
विपरीत लगा प्रतिघात भवन 
में देखी जब सूरत प्यारी। 


हे देव, जानता हूँ मैं सब 
तुममें मुझमें है भेद बहुत 
तुम संयम के बुत हो तो मैं 
संन्यासी संयम का हूँ सुत। 


4 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर ।

राज चौहान ने कहा…

अच्छी भावपूर्ण रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

राज चौहान
http://rajkumarchuhan.blogspot.in

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

सुशील जी, आपकी ही राशि के प्रशंसासूचक शब्द 'सुंदर' लगते हैं।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

राज चौहान जी, आपने रचना का आस्वादन किया। प्रशंसा की। आभारी हूँ।