शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

काव्य-शिक्षा [ आशु कविता - ३ ]

आशु कविता का नवोदित कवि क्या सबसे पहले अत्यंत कोमल मनोभावों को कविता की विषयवस्तु बनाता है? वह अपनी अभिव्यक्ति में किसी ऐसे अनुभवजन्य विचार को पोषित करता है जिसने प्रकृति निरीक्षण के समय अन्तर्मन में जड़ें जमा ली थीं? इस बार उत्तराखंड चमोली के आशु रचनाकार श्री बख्तावर सिंह रावत की रचना जस-की-तस दे रहा हूँ। रचना पर बात करने के लिये इच्छुक पाठक आमंत्रित हैं।


"मधुमक्खी"













यदि मैं मधुमक्खी होती
फूलों से ढ़ूँढ़-ढ़ूँढ़ केसर लाती
केसर लाकर छत्ता और शहद बनाती
जहाँ मन करता वहाँ घूमकर आती
घूम-घूमकर तरह-तरह का रस लाती
जहाँ दिखे सुन्दर फूलों की फुलवारी
वहाँ जाती हूँ मैं बारी-बारी
जितना सुन्दर फूल खिले
उतना सुन्दर शहद मिले [मीठा]
शहद बनाकर करती हूँ कार्य महान
जिसे खाने से आती शरीर में जान
शहद खाने के अलावा आता है
पूजा पाठ के कार्यों में काम
खूब शहद खायो स्वस्थ बन जाओ
फूल की क्यारी बनाकर मस्त बन जाओ
मधुमक्खी हूँ मैं मधुमक्खी हूँ
केवल शहद ही नहीं आता काम
छत्ता आता है मोम बनाने का काम
उसका भी है सुन्दर दाम
जो घर मेरा बनायेगा
अच्छा-अच्छा दाम पायेगा
जो फूलों की रक्षा करेगा
उतना ही सुन्दर शहद भरेगा
जितना ज़्यादा शहद भरेगा
उतना स्वस्थ शरीर रहेगा
मधुमक्खी हूँ मैं मधुमक्खी हूँ
शहद बनाने का करती हूँ काम
जिसे मिलते हैं सुन्दर दाम।

- बख्तावर सिंह रावत, चमोली, उत्तराखंड

3 टिप्‍पणियां:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

बख्तावर सिंह जी के अभिव्यक्त भावों को हम 'आशु कविता' न कहें तो क्या कहें ?
कैसे कोई रचना अपनी 'आशुपने' को दर्शाती है?

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

मुझे आशु कविता प्रायः सरस बतकही जैसी लगती है । इसका स्वरूप कुछ-कुछ वैसा होता है जैसे शीघ्रता के लालच में कोई मेड़-मेड़ न जाकर बीच खेत से मझाकर निकल जाय । सम्भव है कि कविता के संस्कृत स्वरूप से पूर्व ऐसी ही कविता कहने का चलन रहा हो ।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कौशलेन्द्र जी, आशु कविता के स्वभाव को आपने क्या खूब चित्रांकित किया है! वाह !!

शीघ्रता में मेड़-मेड़ न जाकर बीच खेत से मझाकर निकल जाना। अद्भुत है आपकी दृष्टांत शक्ति। और आशु कविता के आदि रूप के विषय में आपने जो संभावना व्यक्त की है वह पहली बार में ही स्वीकार कर लेने योग्य है। आभारी हूँ चर्चा हेतु उपस्थित होने के लिए।