मुषित आपके ही सारे
झष भाव हमारे कंटक में
सेही बन तुम करते बचाव
ऐहिक निज मन को दे चकमे।
सायक बन बैठे भाव सभी
सायक बन बैठे भाव सभी
अरि बनी आज कविता तरंग
पद दलित हुए सपने मेरे
राका भर नाचा था अनंग।
धनु लिए हाथ कटि में निषंग
धनु लिए हाथ कटि में निषंग
हुत करा हृदय कर स्वप्न भंग
आखेट हमारा करने को
तुर बना, पड़ा पीछे अनंग।
मध्या! मनुहार करूँ तुमसे
मध्या! मनुहार करूँ तुमसे
क्षत कर दो कवि का वचन भंग
मादकता मय सारे विचार
नर्तक नयनों से करो नंग।
हीं हीं करता है हास स्वयं
हीं हीं करता है हास स्वयं
कर्षक संयम पर डाल पंक
रजगुणी हो गई वाक् कलम
पातक मन को दे कौन अंक ?
ओ, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
ओ, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
गेही समान आचरण स्वयं
पारस स्पर्श कर दो कलाचि
मैं स्वर्ण बनूँ, हों पाप अलम।
1 टिप्पणी:
मैं स्वर्ण बनूं हो पाप अलम, बहुत सुंदर।
एक टिप्पणी भेजें