गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

समर्पण

तम श्याम तट पर शर्वरी ने
जो रचे थे चित्र सुन्दर
मिट गये वे चंद्र तारे
प्रात के आने को सुनकर.
सब कह दिया था प्रेयसी ने
प्रथम मिलने पर हमारे
अब न जायेंगे कभी हम
पास से हृत के तुम्हारे.
पर ये हृदय कुछ और ही
मुझसे कराना चाहता है
प्रिय प्रेयसी को भूलकर
संन्यास लेना चाहता है.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

मोदी का गुजरात

इंतज़ार के अंतिम पल में ... प्रिय की अप्रिय बात
"अभी नहीं आऊँगी" कहती ... प्रियंवदा अ'वदात.

कोमल शब्दों के भीतर में ... चुभन भरा बल'घात.
सात दिनों का विरह हमारा ... फिर बढ़ता दिन सात.

अमित-स्नेह ले गया खींचकर ... पहले बहिन बरात*.
दिल्ली-जयपुर, जयपुर-दिल्ली ... छोड़ चला गुजरात.

तब से अब तक ठिठुर रही है ... श्वासों की मम वात.
'शीत' कक्ष में घुसपैठी बन ... रहता है दिन रात.

आने को ऋतुराज द्वार पर ... स्वागत उत्सुक गात.
लेकिन प्रिय को रास आ गया ... मोदी का गुजरात.

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

उलझी प्रेमाभिव्यक्ति

स्नेह
अपनी देह से अब न रहा

देह
को है स्नेह अपने प्राण से

प्राण
लेकिन तड़पता है विरह में

विरह
की अनुभूति सच्चा प्रेम है

प्रेम
तुमसे या स्वयं से है अभी

वरन्
मन कब का हुआ निज विरत था.

शनिवार, 28 जनवरी 2012

बसंत-प्रतीक्षा

अशीति प्रहर के बाद
पिकानद आवेगा, उन्माद
भरेगा आँखों में चुपचाप
कुहुक गूंजेगा कोकिल नाद.

ढाक के पिंगल फूल
डाल देंगे आँखों में धूल.
लगी हो जैसे तरु में आग
दूर से देखन में हो भूल.

अशोक पुष्प रतनार
खिलेंगे जब बाला सुकुमार
नृत्य करने के बाद प्रहार
पगों का देगी वो उपहार.

 

शनिवार, 7 जनवरी 2012

मधुर कसक

मैं संकेतों में याद तुम्हें
करता रहता हे मधुर कसक
जिसके द्वारा तुम मिले मुझे
उसका आभारी हृदय-चषक.

आँखों में हो आकार लिये
मानस में छाया रूप बना
नव ढंग सूझते नहीं मुझे
कि व्यक्त करूँ हृत नेह घना.

तुम हो अस्तित्व हमारा है
तुम बिन ये जीवन कारा है
अब तक व्यतीत जो समय हुआ
तेरी यादों में हारा है.

कर पाऊँ न तेरे मैं दर्शन
पर बँधा तुम्हारे हूँ कर्षण
पलभर को भी तेरे प्रभाव
से मुक्त नहीं होता है मन.

हो कसक रूप में तुम जीवित
मुझ तक ही हो अब तक सीमित
पहले उद्धृत करता था मैं
तुमको, अब तुम करती उद्धृत.

बुधवार, 4 जनवरी 2012

सञ्जय दर्शन

मुझसे मेरे मित्र बारह वर्ष के उपरान्त आकर मिले.... उनके साक्षात दर्शन से मन बहुत प्रसन्न हुआ... उनके भारत आगमन से मेरे आग-मन को जो ठंडक पहुँची... वह बहुत ही आनंददायी थी... उनका बातचीत के बीच-बीच में मेरे हाथों को छूना... और कहना इस अनुभूती को लेकर जाना चाहता हूँ... परन्तु मैंने कैमरा होने के बावजूद उनकी छवि को संजोया नहीं..... केवल उन्हें पहले की भाँति कुछ अन्य मीठी स्मृतियों के साथ मन में बिठा लिया. .... जब उनका विवाह नहीं हुआ था, तब उनके विचारों को मैंने उनकी 'बायोग्राफी' लिखकर आकार दिया था.... सोचता हूँ आज उसे ब्लॉग-जाहिर कर दूँ.. और आत्मकथा को आगे विस्तार दूँ....




मित्र संजय राजहंस [चित्र फेसबुक से साभार]



कुछ कहूँ

अपने विषय में

और अपनी सोच के अनुसार

उन सबके विषय में

जो रहे थे साथ कुछ दूरी बनाकर

और वे भी

जो न पलभर भूलते थे साथ मेरा

किन्तु घेरा है अभी तो

गत रुपहली यादगारों का हृदय में

— उन्हें कह लूँ.



बाद उनके फिर कहूँगा

आपके-अपने विषय में.



जब नहीं जाना था मैंने -

'प्रेम क्या है'

और क्या है -

प्रेम के उन्माद में दिन-रात जगना

प्रिय विरह में काम-स्वर से

- तपना, कराहना, कँपकँपाना

तब रात की निद्रा से पहले

कल्पना कर सिहर जाता -

'एक सुन्दर खिलखिलाती कामिनी की

जो सुनहरी केश बिखराए खड़ी रहती सिरहाने.





और तब से

मैं योरोपी गौर वर्णी

पुष्ट अंगी बालिका से

बंध जोडन चाहता हूँ.



यादों के दस्तावेज़ में

बचपन अभी भी है सुरक्षित.

घर के पास में ही था शिवालय.

नित्य प्रातः पूजता था लिंग

शिव को जल चढ़ाकर

और अपनी पाठशाला

के सभी लड़के बनाते मित्र मुझको

कुछ फ़ल बढ़ाकर.



गाँव भर के

बड़े-बूढों और जवानों

का बना मैं रेडियो था.

- खेल, राजनीति की खबर सब

मैं उन्हें विश्लेषण तरीके से सुनाता.



गाँव की ही एक बाला

प्रेयसी थी

अग्र जन्मे सहोदर की

पर मुझे सौन्दर्य उसका

और उसको स्यात मेरा

खींचता था सम परस्पर.



किन्तु जीवन

एक रस में नहीं चलता

बाबूजी ने

गाँव की उस पाठशाला से हटाकर

श्रेष्ठ शिक्षा हेतु मुझको

क्रिश्चेन स्कूल डाला.



कुछ समय

अपने प्रियों की

याद अकसर ही सताती

थी मुझे पर

पास आती

दो नवेली सखी

जिसको मैं प्रिय लगने लगा था

- स्मृति से उद्भूत पीड़ा

मोचती, उसको भुलातीं.



स्कंध पर धर हाथ

उनको मैं बताता

दायित्व का निर्वाह

जिसको है सताता

वो हटाता

हाथ.. सूज़न, अये अनीता.



इस तरह 'सुख'

सूत्र में हो बद्ध

- मेरे पास रहता

और पुनरावृत्ति में

'विश्वास' मेरा

हर विषय, हर सोच में

घटता रहा है.



वाक् कौशल पर टिका

- व्यक्तित्व मेरा

किन्तु उसके मूल में है

आँकड़ों का उर्वरक

औ' ज्ञान सिंचित

चिर पिपासा.



एक भाषा जानता मैं

था अभी तक

दूसरी तुमने सिखा दी.

एक थी जिससे

स्वयं को व्यक्त करता

और विनिमय हुआ करता

था विचारों का उसी से.

दूसरी नयनों के पथ से

अश्रुओं के साथ मिलकर

जो बहा करती निरंतर.

श्याम लोचन देख तेरे

सीख पाया - स्वप्न मेरे.



माँ! तुम्हारी भक्ति की सौंगंध

मुझको - 'जो कहूँगा, सच कहूँगा'.

अंश तेरा मैं स्वयं को मानता हूँ.

सो दीख पड़ता अंश तेरा ही सभी में'

इसलिये माँ

देखता जब भी

तुम्हारी छब जिसमें

या संभावित सुमाता

- मैं विनत होता

'शरीरज भाव फुल्लित'

शब्द जिह्वा पर थिरकते

पर, भटकते देख पायी

सिर्फ कीचड़

आँख मेरी

पर न तेरी याद ने

मुझको उबारा.



शेष ... फिर कभी...

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

दर्शन लोकपाल

'अनशन' है आरम्भ हमारा
'प्राशन' बिलकुल नहीं कराओ.
जब तक दर्शन लोकपाल बिल
पास न होगा, पास न आओ.


दर्शन में भी भेदभाव हो
तो कैसा अनुराग बताओ?
कटु तिक्त अथवा कषाय हो
दर्शन लोकपाल बिल लाओ.

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वंचना

मैं सुप्त लुप्त था अपने से 
शैया पर दृग अंचल करके 
सहसा पिय ने स्पर्श किया 
पलकों पर, आई हूँ सजके 
लाई हूँ शीतलता तन में 
अब मुक्त करो नयनों को तुम 
कह बैठ गयी वह शिरोधाम 
शैया पर निज, होकर अवाम.

मैं सिहर उठा यह सोच-सोच 
अनदेखे ही पिय मुख सरोज 
अधरों का वार कपोलों पर 
अब होगा, लोचन बंद किये 
मैं पड़ा रहा इस आशा में 
बाहों के बंधन से बँधकर 
क्या उठा लिया जाऊँगा अब.

जब सोचे जैसा नहीं हुआ 
पलकों का द्वारा खोल दिया
पिय नहीं, अरे वह पिय जैसी 
दिखती थी केवल अंगों से. 
मैं समझा, पलकें स्वयं झुकीं 
वह आ बैठी बेढंगों से. 

पर पिय तो मेरी स्वीया सी 
जो नित प्रातः करती अर्चन
चरणों पर आकर आभा से 
कर नयन मुक्त, करती नर्तन.
जो आई थी लेकर दर्शन
झट हुआ रूप का परिवर्तन.
वो! सचमुच में थी विभावरी
थी उदबोधित*-सी निशाचरी.

नेह को न छल सकता छल भी 
चाहे छल में कितना बल भी 
हो न सकता उर हरण कभी 
क्योंकि निज उर तो पिय पर ही.
__________________
* उदबोधिता = एक नायिका जो पर-पुरुष के प्रेम दिखलाने पर उस पर मुग्ध होती है.

[आवृत काव्य — रचनाकाल : १७ फरवरी १९९१]

रविवार, 11 दिसंबर 2011

छिद्र-प्रकाश

दिवस का होकर रहे प्रकाश 
नहीं किञ्चित मन हुआ निराश 
काश! अंतरतम में भी आ'य 
छींट-सा छोटा छिद्र-प्रकाश. 

द्वार कर लिये दिवा ने बंद 
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद 
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य 
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

'प्रशंसा' से प्रिय 'निंदक' राग
'दिवस' से गौर 'तमस' अनुराग 
'सुमन' कैसे पहचाना जा'य
विलग होकर 'स्व' पंक्ति पराग.

बंद हैं किसके लिये कपाट?
विचरते जो पथ देख सपाट?
आप भी तो आते हो ना'य  
बैठने, छिद्रों वाली खाट.

* ना'य .... नहीं

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

अन्तर्द्वन्द्व

यह मेरे काव्य-अभ्यास के दिनों की एक कविता है .... "अन्तर्द्वन्द्व". इसकी रचना १९९० के मध्य में हुई, यह अभी तक छिपी हुई थी... मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने पढ़ा हो!


"दिन नियत कर हम मिलेंगे
चांदनी रात होने पर.
जाने साथ बने कैसा
स्नेहमयी बात होने पर."

"चुनी चांदनी ही क्यूँ?
अंधेरी रात भी होती."
- मेरे मन के विचारों यूँ,
तुम न आवाज दो थोती.

शीतांशु की रश्मियों से
शीत मिलती शील को.
शशि बिन बलते दीयों सा
ताप देता शील को.

"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

"क्या आप रोक न पाते
मिलन के उर विचारों को?"
- मेरी तरफ से दूर करो,
तुम इन दुर्विचारों को.

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का."

रविवार, 18 सितंबर 2011

छंद चर्चा .... मात्रिक छंद ........... पाठ ७

प्राचीन आचार्यों ने एक मात्रा से लेकर बत्तीस मात्राओं तक के पाद वाले छंदों का वर्णन किया है। सुविधा के लिये इनकी ३२ जातियाँ बना दी गई हैं और प्रस्तार-रीति द्वारा प्रत्येक जाति में जितने छंद बनने संभव हैं, इनकी संख्या का उल्लेख भी कर दिया गया है, जो कि इस प्रकार है — 
मात्रा (प्रतिपाद) ................ जाति ......................... छंद प्रस्तार संख्या 
....... 1 ............................. चान्द्रिक .................... 1
....... 2 ............................. पाक्षिक ..................... 2
....... 3.............................. राम .......................... 3
....... 4 ............................. वैदिक ....................... 5
....... 5 ............................. याज्ञिक ..................... 8
....... 6 ............................. रागी ......................... 13
....... 7 ............................. लौकिक .................... 21
....... 8 ............................. वासव ....................... 34
....... 9 ............................. आँक ......................... 55
....... 10 ........................... दैशिक ....................... 89
....... 11 ........................... रौद्र ........................... 144
....... 12 ........................... आदित्य .................... 233 
....... 13 ........................... भागवत .................... 377
....... 14 ........................... मानव ....................... 610
....... 15 ........................... तैथिक ...................... 987
....... 16 ........................... संस्कारी ................... 1597
....... 17 ........................... महासंस्कारी ............ . 2584
....... 18 ........................... पौराणिक .................. 4181
....... 19 ........................... महापौराणिक ............  6765
....... 20 ........................... महादैशिक .................. 10946
....... 21 ........................... त्रैलोक ........................ 17711
....... 22 ........................... महारौद्र ....................... 28657
....... 23 ........................... रौद्रार्क ........................ 46368
....... 24 ........................... अवतारी ..................... 75025
....... 25 ........................... महावतारी .................. 121393
....... 26 ........................... महाभागवत ................ 196418
....... 27 ........................... नाक्षत्रिक ......................317811
....... 28 ........................... यौगिक ........................514229
....... 29 ........................... महायौगिक ..................832040
....... 30 ........................... महातैथिक ...................1346269
....... 31 ........................... अश्वावतारी ...................2178309
....... 32 ........................... लाक्षणिक ....................3542578

आप सोच रहे होंगे ... इन जातियों के नामकरण का आधार क्या है? कैसे इतनी संख्या में छंद-प्रस्तार हो जाते हैं? ... दरअसल हम जो भी काव्य-रचना करते हैं... वह किसी न किसी वर्ग में आती है... यदि हम इस श्रेणी के वर्गीकरण पर शोध करें तो अवश्य अपनी मात्रिक काव्य-रचना को पहचान पायेंगे कि वह किस जाति के किस प्रस्तार-भेद में आयेगी..... जितना सरल है अपनी किसी काव्य-रचना की जाति पहचानना .. उतना ही कठिन है उसका अनुक्रमांक ढूँढ़ना.... क्योंकि इस क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य या तो अलिखित रहा है अथवा संभव है कि यवन व मलेक्ष्यों के आक्रमणों में स्वाहा हुआ हो! ... जो हुआ सो हुआ पर अब नए सिरे से इस क्षेत्र में शोध की आवश्यकता बन पड़ी है... इस विषय पर भी कभी चर्चा करने का मन है. अस्तु, आज के विषय पर लौटता हूँ ...

विभिन्न संख्याओं के प्रतीक रूप में प्रयुक्त होने वाले संज्ञा शब्दों के आधार पर ही उपर्युक्त छंद-जातियों के नाम रखे गये हैं. 
उदाहरण — 
संख्या  ............संख्या सूचक शब्द ....................................................................छंद जाति नाम 
.. 1 ................चन्द्र ......................................................................................... चान्द्रिक 
.. 2 ................पक्ष (कृष्ण, शुक्ल) .................................................................... पाक्षिक 
.. 3.................राम (रामचंद्र, बलराम, परशुराम) ............................................... राम 
.. 4 ................वेद (ऋक्, यजु, साम, अथर्व) ..................................................... वैदिक 
.. 5 ................यज्ञ (ब्रह्म, देव, अतिथि, पितृ, बलिवैश्य) .................................... याज्ञिक
.. 6 ................राग (भैरव, मल्हार, श्री, हिंडौल, मालकोश और दीपक कखेड़ा) ............. रागी 
.. 7 ................लोक ........................................................................................ लौकिक 
.. 8 ................वासु ......................................................................................... वासव
.. 9 ................अंक (१ से ९ तक) ..................................................................... आँक 
...10 ...............दिशाएँ ................................................................................... दैशिक 
...11 ...............रुद्र ........................................................................................ रौद्र 
...12 ................आदित्य (सूर्य, अर्क) ............................................................. आदित्य 
...13 ................भागवत (इसमें १३ स्कंध हैं)  ................................................. भागवत 
...14 ................मन्वंतर ............................................................................... मानव 
...15 ................तिथि (प्रथमा से अमा या पूनो तक) ....................................... तैथिक 
...16 ................संस्कार ............................................................................... संस्कारी 
...18 ................पुराण ................................................................................. पौराणिक 
...24 ................अवतार .............................................................................. अवतारी
...27 .................नक्षत्र ................................................................................ नाक्षत्रिक 
...32 .................लक्षण ............................................................................... लाक्षणिक 

अन्य जातियों के नाम भी इन्हीं संख्यावाचक शब्दों के संयुक्त रूप पर आधारित हैं अथवा किसी विशेषण द्वारा उनका संकेत किया गया है. यथा : 
— १० मात्राओं की जाति = दैशिक ; २० मात्राओं की जाति = महादैशिक 
— २४ मात्राओं की जाति = अवतारी ; ७ संख्यासूचक शब्द = अश्व (सूर्य रथ के घोड़े, जो सात दिनों या वारों या सात रश्मि-रंगों के प्रतीक हैं. इस तरह ३१ मात्राओं की जाति 'अश्वावतारी' का नामकरण किया गया.


शनिवार, 10 सितंबर 2011

अश्रु-भस्म

शांत जल से 
शांत थे मन भाव 
आये थे तुम 
आये थे अनुभाव 

शांत मन में 
सतत दर्शन चाव 
स्वर नहीं बन पाये 
मन के भाव

जल गये सब 
जड़ अहं के भाव
बह गया मन 
मैल - प्रेम बहाव

लगाव से 
विलगाव तक का 'गाव'
दृग तड़ित करता 
कभी करता अश्रु-स्राव

प्रेम - मिलना
प्रेम - पिय अभाव
प्रेम में आते
दोनों पड़ाव

सतत चिंतन
प्रेम की है रस्म
दिव्य औषध
बनते अश्रु-भस्म.
_________________ 
*गाव ........ गाने की क्रिया


मंगलवार, 30 अगस्त 2011

दो उरों के द्वंद्व में

दो उरों के द्वंद्व में 
लुप्त बाण चल रहे 
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता.

नयन बाण दोनों के 
आजमा वे बल रहे 
बाणों की भिड़ंत में 
स्वतः चार हो रहे.

बाणों की वर्षा से 
हार जब दोनों गये 
मात्र एक बाण छोड़ 
संधि हेतु बढ़ गये.

नागपाश बाहों का 
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह-घाव दोनों के 
कपालों पर बन गये.

दोनों ही हैं 'अस्त्रविद'
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है 
दोनों सृष्टि हेतु हैं 
न करें तो विनाश है.

दोनों तो हैं संधि-मित्र 
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में 
मनु पुत्र उत्पन्न हों.






रविवार, 21 अगस्त 2011

स्वगत प्रश्न

यदि मैं अंधकार में कलम पृष्ठ पर रखकर लिखता चला जाऊँ। अनुमान से अक्षरों को क्रमशः स्थापित करता, पंक्तियों की सिधाई का ध्यान रखता तो कार्य की सफलता में विलम्ब न हो – और हृदय की तात्कालिक अभिव्यक्ति भी हो जाये। 
? यदि ऐसे में अक्षर अक्षर से टकरा जाएँ या पूरी पंक्ति पंक्ति पर ही चढ़ जाय तो मेरी कुशलता दोषी होगी अथवा मेरा अन्धकार को कोसना ठीक होगा _


रविवार, 14 अगस्त 2011

बिना सन्दर्भ सौन्दर्य प्रशंसा ... संशय का कारण

यदि मैं आपकी 
अकस्मात् बिना सन्दर्भ 
सौन्दर्य की प्रशंसा करने लगूँ 
तो आपके मन में 
सर्वप्रथम कौन-सा भाव आयेगा 
— क्या संशय तो नहीं? 
स्यात मेरी सोच, मेरी भावना पर.
किवा, प्रशंसा सुनकर 
लज्जा करना उचित समझोगे?
— हाँ, यदि आप 
स्वयं की दृष्टि में भी 
सुन्दर हो 
तो अवश्य लजाओगे.
क्या आप वास्तव में सुन्दर हो? 
आप अपने सौन्दर्य के विषय में क्या धारणा रखते हैं? — जानने की इच्छा है.

क्या विरह भाव के
धारण करने के लिए 
'प्रिय-पात्र' का 
निर्धारण या रूढ़ किया जाना 
संगत है/ उचित है?
? किंकर्तव्य_

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जिसके सहोदरा 'बहन' नहीं होती वह कभी 'प्रेम' को सही ढंग से पहचान नहीं पाता !

सुमन, तुम मन में बनी रहो!
आकर अंतर में मेरे तुम खिलो और मुसकाओ.
स्वर्ण केश, स्वर्णिमा वदन पर मुझको हैं मन भाते.
वचन आपके सुनकर मेरे कान तृप्ति हैं पाते.
सुनो दूसरी गुड़िया प्यारी, पहली मुझे भुलाओ.
जिधर कहीं दुर्गन्ध लगे नेह देकर के महकाओ.
सुमन, तुम मन में बनी रहो!
+++++++++++++++++++++++++++++++++

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

तुम पर मेरी राखी उधार...

तुम पर मेरी राखी उधार...
लूँगा जीवन के अंत समय, 
होगा जब यादों को बुखार.

इस पल तो है संकोच मुझे, 
दूँ क्या दूँ क्या अनमोल तुम्हें?
वर्षों से किया नेह संचय 
मन में मेरे है बेशुमार...
तुम पर मेरी राखी उधार...
निर्मल तो है पर है चंचल 
मन, याद करे हर बार तुम्हें
अब भी हैं नन्हें पाप निरे, 
आवेगा जब उनमें सुधार
मैं आऊँगा लेने, उधार 
राखी, तुम पर जो शेष रही.
भादों में आवेगी बयार...
तुम पर मेरी राखी उधार...

[ये है कोमल भावों का 'तुकांत' साँचा... गीति शैली में]

बुधवार, 3 अगस्त 2011

छंद-चर्चा ... हमारे भाव-विचारों के साँचे ............. पाठ ६

नयी काव्य रचना निर्मित करने से पहले कवि के समक्ष एक महती समस्या होती है. अपने विचार-प्रवाह को व्यवस्थित रूप से व्यक्त करने की. यदि विचार कोमल भावों के हुए तो वह अपने लिये साँचों का चयन सहजता से कर लेते हैं और यदि विचार कोमलेतर (कठोर, शुष्क आदि) भावों के हुए तो उनके लिये साँचों के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी होती है. 
अतिशय वात्सल्य, अतिशय प्रेम, अतिशय आदर, अतिशय श्रद्धा जैसे भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः कवि साँचे चयन करने को उतावला नहीं रहता और न ही नवीन साँचों को गढ़ने का प्रयास करता है.  यह भी सत्य है कि वह अपने श्रद्धेय, प्रिय अथवा वात्सल्य-केंद्र को अचंभित करने को कभी-कभी स्व-भावों का नूतन साँचे में लिपटा 'विस्मय-उपहार' देता दिखाई अवश्य पड़े किन्तु इस तरह के अत्यंत दुर्लभ क्षण होते हैं. नवीन साँचों के निर्माण की इच्छा और कम प्रयुक्त साँचों में भावों को भरने की चुनौती स्वीकार करना उसकी महत्वाकांक्षा की उच्चता को दर्शाता है. कोमलेतर भाव यदि मात्रिक और वार्णिक छंदों (साँचों) में ढलते हैं तो वे अत्यंत असरकारक होते हैं. यदि 'आक्रोश' प्रवाहयुक्त है और वह कोई उपयुक्त छंद पा जाये तब उसका प्रभाव अमिट होगा.

कोमल भाव का तुकांत साँचा :
"मन बार-बार पीछे भागे 
लेने मधुरम यादों का सुख.
पर अब भविष्य चिंता सताय
मन लगे छिपाने अपना मुख."

कोमल भाव संवाद साँचे में :  
"अये ध्यान में न आ सकने वाले अकल्पित व्यक्तित्व! 
आने से पूर्व अपना आभास तो दो ...
थकान से मुंद रही है पलकें 
निद्रा में ही चले आओ 
अपनी आभासिक छवि के साथ."

कोमलेतर भाव के साँचों में हम प्रायः 'गद्य कविता' को देखते हैं, यथा : 
व्यवसाय मुझे निरंतर 
असत्य भाषण, छल 
और अभद्र आचरण करने का 
अवसर दे रहा है. 
वास्तव में 
अर्थ की प्राप्ति में 
मैं पहले-सा नहीं रहा.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

याचक के भाव

'प्रतीक्षा' का हूँ मैं अभ्यस्त
दिवस बीता, दिनकर भी अस्त
पलक-प्रहरी थककर हैं चूर
आगमन हुआ नहीं मदमस्त.

बैठता हूँ भूखों के संग
बनाता हूँ याचक के भाव
मिले किञ्चित दर्शन उच्छिष्ट
प्रेम में होता नहीं चुनाव.

ईश, तेरा ही मुझमें अंश
अभावों का फिर भी है दंश
'जीव' की सुन लो आर्त पुकार
ठहर ना जाये उसका वंश.