सुमन, तुम मन में बनी रहो!
आकर अंतर में मेरे तुम खिलो और मुसकाओ.
स्वर्ण केश, स्वर्णिमा वदन पर मुझको हैं मन भाते.
वचन आपके सुनकर मेरे कान तृप्ति हैं पाते.
सुनो दूसरी गुड़िया प्यारी, पहली मुझे भुलाओ.
जिधर कहीं दुर्गन्ध लगे नेह देकर के महकाओ.
सुमन, तुम मन में बनी रहो!
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जिसके सहोदरा 'बहन' नहीं होती वह कभी 'प्रेम' को सही ढंग से पहचान नहीं पाता... फिर भी 'मन' वर्षों से समय-समय पर कइयों से बंधन माने बैठा है... आज उसे उदघाटित करने का मन है :
एक पत्र जो मैंने कभी पोस्ट नहीं किया [कोलिज के समय में 'मधु पाण्डेय' जी की स्मृति में लिखा था] —
मधु जी, चरण-स्पर्श.
आपने 'अग्रज' क्या बनाया, आपने मुझे शिष्टता के दायरे में कैद कर लिया, चपल-बालक मन को मर्यादा के खूँटे से बांध दिया. अवस्था में दो-एक वर्ष अवश्य बड़ा हो सकता हूँ किन्तु मस्तिष्क की जो प्रोढ़ता आप में पाता हूँ वह मुझमें लेशमात्र नहीं — यह मेरा विनम्रतापूर्ण वचन नहीं, वास्तविकता है.
मेरा संयम खोखला है — बाह्य शांति के भीतरी झंझावात से एकान्तिक साधना यदा-कदा ही फलीभूत होती है. मेरा योग 'आसन' मात्र है. संभवतः कुछ और भी लक्षण मिल जाएँ, पर मेरा मस्तिष्क आपकी गुणों से बड़ी हुई सुन्दरता पर रीझ गया है [क्या 'रीझ' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त तो नहीं, यदि है तो क्षमा] आपकी सुन्दरता, आपकी शिष्टता, आपका सीमित [लिमिटिड] चापल्य और सुमन* का आदर-भाव, बाल-सुलभ सरलता, अकामी प्रेम, बनावटी मान [रूसना], खिल-खिल हँसी, इधर-उधर की अप्रासंगिक बातें ... मेरे मोह का कारण बनकर मुझसे समय-असमय मूर्खता कराया करते हैं. कभी लिखने बैठ जाता हूँ, कभी फोन के पास जाकर आपसे बात कराने वाले नंबर दबाने की सोचने लगता हूँ, किन्तु संयम नाम का खोखल अपने को ठोस सिद्ध करने में जो लगा रहता है. वह आज भी अपनी वास्तविकता को जग-जाहिर न होने देगा.
— भैया
[लगातार वर्षा हो रही है, एफ.एम्. चल रहा है, चंद्रिका छिटकी हुई है.] ९ दिसंबर १९९७ समय रात्रि १:१०]
*सुमन : मधु जी की छोटी बहन
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न जाने कितने ही पत्र इस तरह के हैं जो मन के कोने में छिपे हुए हैं ... धीरे-धीरे अवसर मिलने पर देने की हिम्मत करूंगा. आज किसी के दूरभाषी वार्तालाप से मुझे वर्षों बाद अभाव-पूर्ती महसूस हुई.... आभार.