रविवार, 11 दिसंबर 2011

छिद्र-प्रकाश

दिवस का होकर रहे प्रकाश 
नहीं किञ्चित मन हुआ निराश 
काश! अंतरतम में भी आ'य 
छींट-सा छोटा छिद्र-प्रकाश. 

द्वार कर लिये दिवा ने बंद 
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद 
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य 
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

'प्रशंसा' से प्रिय 'निंदक' राग
'दिवस' से गौर 'तमस' अनुराग 
'सुमन' कैसे पहचाना जा'य
विलग होकर 'स्व' पंक्ति पराग.

बंद हैं किसके लिये कपाट?
विचरते जो पथ देख सपाट?
आप भी तो आते हो ना'य  
बैठने, छिद्रों वाली खाट.

* ना'य .... नहीं
कोशिश तो की है कि मन के अस्पष्ट भाव श्लिष्ट अर्थी बनें और वो कह पायें जो अनुरागी चित्त चाहता है. दूसरी बात, आ'य जा'य ना'य चिल्ला'य जैसे शब्दों को एक विशेष बलाघात के साथ बोलने पर ही ठीक लगेगा.

18 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

छिद्र प्रकाश में भी द्वंद्व है।

Smart Indian ने कहा…

बहुत खूब! दो पुरानी पंक्तियाँ याद आ गयीं:
छोड़ फूलों को परे, काँटे जो उठाते हैं
ज़ख्म औ दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं

मदन शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.

Unknown ने कहा…

द्वार कर लिये दिवा ने बंद
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

बहुत सुंदर ,गुरूजी, आनंदविभोर बधाई

Amit Sharma ने कहा…

बहुत ही आनंददायी भाव रचे है आपने गुरूजी ! बार बार पढ़ें जा रहा हूँ,
इसी भाव की गूँज में कुछ अनुगूँज भी सुनाई दी है सो लिख रहा हूँ , ------

प्रतुल प्रचुर प्रयत उच्चरित प्रश्लिष्ट प्रवर्तन-राग
दिव्य दिवस सन्निकट प्रकट अमित अनुराग



महान साधक प्रतुल द्वारा नित्य संयम साधना सहित प्रचुर परिमाण में युक्तियुक्त रूप से प्रवर्तन राग गाया जा रहा है. साधक की महान साधना के फलस्वरूप वह महान दिन आने वाला है जब अमित काल तक बना रहने वाला आपसी अनुराग प्रकट होगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ हे निरामिष ! द्वंद्व कहाँ नहीं है...

— शाक+आहार के प्रचार में मांसाहारियों से द्वंद्व...[वैचारिक द्वंद्व]

— सद+आचार के प्रचार में भ्रष्टाचारियों से द्वंद्व ... [शारीरिक द्वंद्व]

— सत्व+प्यार के प्रचार में अंध+प्यारियों से द्वंद्व .... [भावनात्मक द्वंद्व]

........ मैं तो दिव्यप्रकाश के लिये प्रत्येक स्रोत की तरफ दृष्टि लगाए हूँ... मुझे तो बंद कपाटों की दरारों से किञ्चित प्रकाश मिल जाने से भी संतुष्ट होना आता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ मदन जी, प्रेमपूर्ण संवाद करने को जितना समय मिले उतना ही कम है.... अति कार्य-व्यस्तता और घरेलु इन्टरनेट की धोखाधड़ी ने मुझे अपनों से ही दूर कर दिया है... अब-यदा-कदा ही पाठशाला आना हो पाता है.

फिर भी आपका प्रेम हर बार मुझे मिलता है ... प्रतिउत्तर विलम्ब से देने के लिए क्षमाभाव रखियेगा.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुश्वंश जी, आपको प्रेमी हृदय के क्षीण-स्वर भी सुनायी दे जाते हैं... इसका मुझे भान है .. इसलिये आप प्रेम के उस स्तर को भी अनुभूत कर सकते हैं... जब वियोग और करुण भाव में भी रस मिलने लगता है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रिय अमित जी,

नहीं हुआ आगमन प्रेम का, रूठ गया अनुराग.

दिवस बीतते एक-एक कर, अमा अमित विराग.
आपके प्रेम से अभिभूत हूँ.... कुछ कहते नहीं बन रहा...

राग का आगमन न हुआ ....
अनुराग ने भी अपने शब्द लौटा लिये....
अब केवल विराग ही है जो साथ निभा रहा है....

"मित्र मेरा एक ही वियोग है... शेष स्वार्थ सिद्ध करते लोग हैं..
वियोग आ देता मुझे ... 'प्रेरणा'... काव्य की.... व्यर्थ सारे भोग हैं..

Smart Indian ने कहा…

बाकी सब ठीक है, पहले यह बताओ कि मेरी 11 दिसम्बर की टिप्पणी क्या हुई?

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

कई बार पढ़ चुका हूँ, गज़ब लिखते हो प्रतुल जी और अमित की रचना के भी क्या कहने..।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ हे संशयात्मक अनुराग ! अब आपको अनुरागियों पर भी विश्वास न रहा.... अनुरागियों को तो प्रसाद में जो भी मिल जाता है उसे हृदय से स्वीकार कर लेते हैं.
आपकी ११ दिसम्बर की काव्यात्मक टिप्पणी या तो स्वयं नौ दो ग्यारह हुई या फिर गूगल देवता के कोप का भाजन बनी... मैंने तो १३ दिसम्बर को उसकी तेरहवीं मात्र ही की थी.
मृत शरीरों और व्यर्थ चिह्नों को मिटाता चलता हूँ नहीं तो वे घोर प्रेमी जनों के मन में घर कर लेती हैं.
_________________
सोच रहा हूँ..... "उलटा चोर कोतवाल को डाँटे" ......... मुहावरे का प्रयोग क्या यहाँ हो सकता है?

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कुछ तो बात जरूर है....
सञ्जय अनेजा जी की टिप्पणी मेरे इन्बोक्स में तो दिखायी दे रही है लेकिन ब्लॉग के टिप्पणी-पंगत से नदारद है ... न जाने ये कौन-सा ग्रहण है? कौन दोषी है इसका?
चंद्र को ग्रसने वाला राहू अथवा सूर्य को ग्रसने वाला केतू या फिर कोई ओर ??
कहीं बेचारे छिद्र-प्रकाश को तो किसी की नज़र नहीं लग गयी.... कोई 'नया असुर' ग्रसने को उतावला तो नहीं हो उठा???

Smart Indian ने कहा…

"उलटा चोर कोतवाल को डाँटे" का "प्रयोग" तो बेशक़ हो सकता है परंतु वह "सही" न होगा।
:)

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता.. पढ़ कर आनंद आया..!

Amit Sharma ने कहा…

प्रतुल जी , हो सकता है कुछ टिप्पणिया "स्पाम " के खड्डे में गिर रहीं हों !!!!! अतः डैशबोर्ड पर टिपण्णी आप्शन पर क्लिक करकें देखें, और कोई टिपण्णी वहाँ पड़ी कराह रही हो तो उसका उद्धार करें :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रकाशित करने का तरीका बताने के लिये आभारी हूँ... अमित जी,
कई टिप्पणियाँ स्पाम में ही थीं.... कई तो काफी पुरानी थीं... मार्गदर्शन के लिये धन्यवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

पुष्पेन्द्र जी,
हमारे संबंध में सुगंध का नया पुष्प खिला... आनंद मुझे भी मिला.