हो रहा है मुझको संदेह
आप क्यों करते मुझसे नेह
आपका नित आना-जाना
देखता है ऊपर से मेह.
आप पीते थे अमृत पेय
नेह था सदा आपको देय
अरे अब विष का क्योंकर पान
अरे अब विष का क्योंकर पान
किया करते हो नेह से हेय.
पलक पूरित आखें पलभर
आपको कर जाती थीं गेय
किन्तु जबसे त्यागा तुमने
लाज का वसन, मुझे संदेह !
16 टिप्पणियां:
sunder abhivyakti ...
सटीक अभिव्यक्ति!!
किन्तु जवाबदार हमारा प्रिय व्यक्ति नहीं………हमारा अपना मोह हमें दुखी करता है। न लगाव की अति होती न बिछोह इतना दर्दनाक होता। अपनी ही गलती में कहाँ संदेह है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
लिंक आपका है यहीं, मगर आपको खोजना पड़ेगा!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आभार ||
आप क्यों करते मुझसे नेह....
एक गहन प्रश्न, अति सुंदर
एक अर्थ पूर्ण प्रश्न वाचक अभिव्यक्ति .
acchi rachna.badhayee sweekarein
प्रिय से ही जीवन बना प्रेय
हो मन अशंक,फिर मिले श्रेय!
अनुपमा जी,
मैंने 'संदेह' व्यक्त किया और आपने उसे सराहा..लगा कि आप संवेदनाओं का सम्मान कर रहे हैं.
@ सुज्ञ जी, मेरे पिता आजकल मुझसे रुष्ट हैं और मैं उनसे [किसी कारण से]... लेकिन वे मेरे प्रिय हैं [किसी कारण से]. जब वे क्रोधवश सम्पूर्ण स्त्री जाति के लिये कुछ हीनतर वक्तव्य देते हैं... तो क्षोभ होता है... फिर भी वे मुझे बहुत प्रिय हैं.
मेरा मोह मुझे दुखी करता है जब पत्नी की अपेक्षा वाला व्यवहार(दुर्व्यवहार) पिता से नहीं करता. और जब अनायास माता-पिता का अनादर करता हूँ तो पत्नी के द्वारा डांट दिया जाता हूँ कि "मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था."
अब लगाव ही तो पूँजी है किसी सामाजिक के लिये ... बिछोह पर कष्ट होता ही है. क्या करूँ.
हाँ, गलती(?) बेशक अपनी हो... फिर भी उसे दूसरी जगह (दूसरे में) खोजने में ही सुविधा होती है.
@ डॉ. रूपचंद्र जी,
जानता हूँ आप हमेशा पीठ थपथपाने और अवसर देने के पक्षधर हैं. यह आपका खालिस गुरु साहित्यकार वाला रूप है.
@ रविकर जी, आप अपनी समस्त ऊर्जा कविताई में झोंके हुए हैं.... आपका आकर कमेन्ट बॉक्स में 'भार' रख जाना बहुत है. :)
@ अरुण जी, मुझे आपके नाम के 'पर्याय' की प्रतीक्षा है जो मेरे गहन प्रश्नों का उत्तर भी है.
@ वीरूभाई जी,
सारे अर्थ अपूर्ण रह जाते हैं जब संदेह की देह का दर्शन धुंधला ही रह जाता है और अभीष्ट आगंतुक अनुमान तक नहीं लगाता कि कोई प्रतीक्षारत भी है.
@ डॉ. आशुतोष जी, आप हमारे उन स्वरों को तो सुन लेते हैं जो मुख से निकलते हैं.... लेकिन आप उन स्वरों को नहीं सुन पा रहे हैं जो नहीं निकल रहे.. अच्छी बात है ...आपका बधाई सन्देश अपनी रचना के बस्ते में डाल देता हूँ.
@ कुमार राधारमण जी,
जब वैद्य 'काव्य थैरेपी भी अपना ले... तो वैद्यराज हो जाता है.
आप मुझे वैद्यराज प्रतीत हो रहे हैं.
एक टिप्पणी भेजें