शनिवार, 5 मई 2012

मुझे संदेह

हो रहा है मुझको संदेह
आप क्यों करते मुझसे नेह
आपका नित आना-जाना
देखता है ऊपर से मेह.
आप पीते थे अमृत पेय
नेह था सदा आपको देय
अरे अब विष का क्योंकर पान
किया करते हो नेह से हेय.
पलक पूरित आखें पलभर
आपको कर जाती थीं गेय
किन्तु जबसे त्यागा तुमने
लाज का वसन, मुझे संदेह !

16 टिप्‍पणियां:

Anupama Tripathi ने कहा…

sunder abhivyakti ...

सुज्ञ ने कहा…

सटीक अभिव्यक्ति!!

किन्तु जवाबदार हमारा प्रिय व्यक्ति नहीं………हमारा अपना मोह हमें दुखी करता है। न लगाव की अति होती न बिछोह इतना दर्दनाक होता। अपनी ही गलती में कहाँ संदेह है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
लिंक आपका है यहीं, मगर आपको खोजना पड़ेगा!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

रविकर ने कहा…

आभार ||

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

आप क्यों करते मुझसे नेह....
एक गहन प्रश्न, अति सुंदर

virendra sharma ने कहा…

एक अर्थ पूर्ण प्रश्न वाचक अभिव्यक्ति .

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

acchi rachna.badhayee sweekarein

कुमार राधारमण ने कहा…

प्रिय से ही जीवन बना प्रेय
हो मन अशंक,फिर मिले श्रेय!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अनुपमा जी,

मैंने 'संदेह' व्यक्त किया और आपने उसे सराहा..लगा कि आप संवेदनाओं का सम्मान कर रहे हैं.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, मेरे पिता आजकल मुझसे रुष्ट हैं और मैं उनसे [किसी कारण से]... लेकिन वे मेरे प्रिय हैं [किसी कारण से]. जब वे क्रोधवश सम्पूर्ण स्त्री जाति के लिये कुछ हीनतर वक्तव्य देते हैं... तो क्षोभ होता है... फिर भी वे मुझे बहुत प्रिय हैं.

मेरा मोह मुझे दुखी करता है जब पत्नी की अपेक्षा वाला व्यवहार(दुर्व्यवहार) पिता से नहीं करता. और जब अनायास माता-पिता का अनादर करता हूँ तो पत्नी के द्वारा डांट दिया जाता हूँ कि "मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था."

अब लगाव ही तो पूँजी है किसी सामाजिक के लिये ... बिछोह पर कष्ट होता ही है. क्या करूँ.

हाँ, गलती(?) बेशक अपनी हो... फिर भी उसे दूसरी जगह (दूसरे में) खोजने में ही सुविधा होती है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. रूपचंद्र जी,

जानता हूँ आप हमेशा पीठ थपथपाने और अवसर देने के पक्षधर हैं. यह आपका खालिस गुरु साहित्यकार वाला रूप है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी, आप अपनी समस्त ऊर्जा कविताई में झोंके हुए हैं.... आपका आकर कमेन्ट बॉक्स में 'भार' रख जाना बहुत है. :)

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ अरुण जी, मुझे आपके नाम के 'पर्याय' की प्रतीक्षा है जो मेरे गहन प्रश्नों का उत्तर भी है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ वीरूभाई जी,

सारे अर्थ अपूर्ण रह जाते हैं जब संदेह की देह का दर्शन धुंधला ही रह जाता है और अभीष्ट आगंतुक अनुमान तक नहीं लगाता कि कोई प्रतीक्षारत भी है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ. आशुतोष जी, आप हमारे उन स्वरों को तो सुन लेते हैं जो मुख से निकलते हैं.... लेकिन आप उन स्वरों को नहीं सुन पा रहे हैं जो नहीं निकल रहे.. अच्छी बात है ...आपका बधाई सन्देश अपनी रचना के बस्ते में डाल देता हूँ.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुमार राधारमण जी,

जब वैद्य 'काव्य थैरेपी भी अपना ले... तो वैद्यराज हो जाता है.

आप मुझे वैद्यराज प्रतीत हो रहे हैं.