काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
गुजरी है मेरे भावों की
अरथी, हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज़ खेला है मेरी गेल.
प्रभो! अब क्या होगा कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.
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गेल = गैल
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गेल = गैल
5 टिप्पणियां:
दर्द हर पंक्ति को जीवंत कर गया ।
आभार ।।
गैला पर जब तक चले, पहिया ऐ मनमीत ।
गाडी फंसने से बचे, मिले अंत में जीत ।
मिले अंत में जीत, प्रीत की कविता गाओ ।
घूंसों से भयभीत, हुवे क्यूँ मीत बताओ ।
करता प्रभु से विनय, होय निर्मल जो मैला ।
गाडी चलती जाय. मिलेगा उनका गैला ।।
अद्भुत शब्द संयोजन ...... सुंदर
suprabhat guruji,
bahut sundar.....achha laga...
pranam.
प्रिय मित्रो और स्नेही पाठको,
शिष्टाचार न निभाते हुए ... अब 'रचना' बिना स्पष्टीकरण के ही दिया करूँगा.
भविष्य में ... कभी कोई मीन-मेख निकालने वाला जिज्ञासुभाव लिये मेरा भी कोई पाठक होगा तो जरूर काव्य-चर्चा (गुण-दोषों) के साथ फिर से इन रचनाओं को प्रस्तुत करूँगा.
ज़ोरदार तुकबंदी भिड़ाई है...आनंद आया
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