बुधवार, 2 मई 2012

आपका खेल

काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
गुजरी है मेरे भावों की
अरथी, हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज़ खेला है मेरी गेल.
प्रभो! अब क्या होगा कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.

________________

गेल = गैल 

5 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

दर्द हर पंक्ति को जीवंत कर गया ।

आभार ।।

गैला पर जब तक चले, पहिया ऐ मनमीत ।
गाडी फंसने से बचे, मिले अंत में जीत ।

मिले अंत में जीत, प्रीत की कविता गाओ ।
घूंसों से भयभीत, हुवे क्यूँ मीत बताओ ।

करता प्रभु से विनय, होय निर्मल जो मैला ।
गाडी चलती जाय. मिलेगा उनका गैला ।।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

अद्भुत शब्द संयोजन ...... सुंदर

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

bahut sundar.....achha laga...


pranam.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रिय मित्रो और स्नेही पाठको,

शिष्टाचार न निभाते हुए ... अब 'रचना' बिना स्पष्टीकरण के ही दिया करूँगा.

भविष्य में ... कभी कोई मीन-मेख निकालने वाला जिज्ञासुभाव लिये मेरा भी कोई पाठक होगा तो जरूर काव्य-चर्चा (गुण-दोषों) के साथ फिर से इन रचनाओं को प्रस्तुत करूँगा.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

ज़ोरदार तुकबंदी भिड़ाई है...आनंद आया