मुझसे तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने.
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने.
मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश.
छोड़ो अथवा स्वीकार करो
चाहे ममत्व का करो लेश.
मुझको अभाव में रहने की
पड़ गई पुरानी आदत है.
मर चुकी प्रेम की तृषा ह्रदय
पाया ममत्व भी आहत है.
कवि पास कल्पना है अपनी
सब कुछ अभाव में देती है.
माँ बहिन प्रेमिका बन करके
वह मुक्त मुझे कर लेती है.
सम्बन्ध :
मिलने से परिचित हो जाते है.
परिचय कर स्वार्थपूर्ण सम्बन्ध शीघ्र हो सकते हैं
लेकिन स्थायी संबंधों की स्थापना में अधिक समय लगता है.
स्थायी संबंधों से भी अधिक समय पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने में लग जाता है, प्रायः पूरा जीवन.
चाहे अपशब्द कहो जितने.
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने.
मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश.
छोड़ो अथवा स्वीकार करो
चाहे ममत्व का करो लेश.
मुझको अभाव में रहने की
पड़ गई पुरानी आदत है.
मर चुकी प्रेम की तृषा ह्रदय
पाया ममत्व भी आहत है.
कवि पास कल्पना है अपनी
सब कुछ अभाव में देती है.
माँ बहिन प्रेमिका बन करके
वह मुक्त मुझे कर लेती है.
[दूसरी बार प्रकाशन]
सम्बन्ध :
मिलने से परिचित हो जाते है.
परिचय कर स्वार्थपूर्ण सम्बन्ध शीघ्र हो सकते हैं
लेकिन स्थायी संबंधों की स्थापना में अधिक समय लगता है.
स्थायी संबंधों से भी अधिक समय पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने में लग जाता है, प्रायः पूरा जीवन.
5 टिप्पणियां:
अतुलित गुण धाम प्रतुल जी
नमन है आपकी लेखनी को !
मुझसे तुम घृणा करो चाहे ,
चाहे अपशब्द कहो जितने !
मैं मौन रहूं, स्वीकार करूं ,
तुम दो ! तुमसे जितना भी बने !
वरेण्य है आपकी विनम्रता !
वंदनीय है आपके हृदय की पावन पवित्रता !!
पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने में लग जाता है, प्रायः पूरा जीवन …
सहमत हूं आपसे मैं !
श्रेष्ठ सौम्य भावों के साथ सुंदर कविता के लिए
…आभार!
…………बधाई !!
………………शुभकामनाएं !!!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आदरणीय राजेन्द्र जी,
मुझे लगने लगा था कि सभी मित्र और पाठकों ने मिलकर योजना कर ली है कि मुझे टिप्पणी न देकर छटपटाते देखना है. सो उनकी इस नियत को भाँपकर विरक्त-अभिनय करने का कष्ट सह रहा था. परन्तु आपने मेरे रक्त को भी अपना-सा जान जो प्रशंसा के शब्द दिए उनके लिये मैं फिर से विनम्र हो रहा हूँ.
चरण-स्पर्श.
माँ बहिन प्रेमिका बन करके
वह मुक्त मुझे कर लेती है.
पढ़ा..सीखा, आत्मसात किया..और क्या कहूँ?
suprabhat guruji,
........
........
jo kavi ki pira samajh le wah kavi
na ban jai.....
pranam.
ये सरासर इल्जाम है कि टिप्पणी न करने की साजिश हुई है, हम आये थे और एक पोस्ट विशेष में सिर्फ रविकर जी और कौशलेन्द्र जी का आह्वान किया गया था तो क्या कहते सुनते?
दूसरी पोस्ट पर कई बार आये तो वहां 'ये पृष्ठ मौजूद नहीं है' दीखता था|
मोटी सी बात ये है कि 'तेरी है न मेरी है सब वक्त की (या गूगल की) हेराफेरी है|
ये पोस्ट बहुत पसंद आयी और प्रतुल भाई, एक प्रश्न पूछता हूँ - साफ़ पानी के भरे गिलास में एक बूँद स्याही गिर जाए तो क्या होगा? पानी कम से कम फिर से साफ़ दिखे तो सही, इसके लिए क्या किया जा सकता है?
सक्रियता बनाए रखिये| आपकी प्रतिभा कमेंट्स की मोहताज नहीं है, मित्र की बात पर यकीन है तो चिंता त्याग दी जाए विरक्त अभिनय की भी जरूरत नहीं है :)
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