लम्ब उदर के हो जाने से
कर ना पाता हूँ जो आसन
उसे तुरत करती है बेटी
सुन्दरतम ये 'दर्शन प्रासन'*।
कर्मकाण्ड वाला क्रम पूजन
आता है किञ्चित जो रास न
उसे नक़ल करती है बेटी
मनमोहक ये 'दर्शन प्रासन'।
ये है उचित और वो अनुचित
देता रहता हूँ जो भासन*
उसे ध्वस्त करती है बेटी
चख-उद्घाटक 'दर्शन प्रासन'।
* प्रासन = प्राशन
* भासन = भाषण
7 टिप्पणियां:
आपकी व्याख्या का इन्तजार।
वाह पसंद आया बेटी द्वारा किया दर्शन प्रासन।
@ देवेन्द्र जी, इंतज़ार 'आप'की सरकार जितना तो नहीं कराया मैंने?
कविता जब पोस्ट कर रहा था तब ही सोच रहा था कि 'व्याख्या देने की आवश्यकता है अथवा नहीं या फिर पाठकों की इच्छा पर इसे पूरा किया जाए ?'
आज का समय अति व्यस्तता का है। पाठक बहुतों का लिखा पढ़ना चाहता है, अधिक से अधिक परिचितों के पास पहुँचना चाहता है इसलिए वह like ही करदे उतनी ही कृपा पर्याप्त है। 'व्याख्या करें' जैसी छेड़ कोई रसिक या अति प्रेमी हृदय ही करेगा। - जानता हूँ।
अब व्याख्या कर इस कविता का अर्थ सुख द्विगुणित करता हूँ।
लम्ब उदर के हो जाने से
कर ना पाता हूँ जो आसन
उसे तुरत करती है बेटी
सुन्दरतम ये 'दर्शन प्रासन'*।
@ पेट बड़ा (मोटा) हो जाने से जो आसन नहीं कर पाता उसे (मेरे इर्द-गिर्द घूमती) बेटी तुरंत करके दिखाती है। - यह दर्शन सुख मेरी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त करने के कारण से सुन्दरतम बन जाता है। [मुझे खोती जा रही शक्तियों की हताशा से भी बचाता है।]
कर्मकाण्ड वाला क्रम पूजन
आता है किञ्चित जो रास न
उसे नक़ल करती है बेटी
मनमोहक ये 'दर्शन प्रासन'।
@ प्रत्येक पूजा विधि में कुछ-न-कुछ ऐसी क्रम से क्रियाएँ होती हैं जो समय के साथ ऊब ले आती हैं और जिन्हें करना अरुचिकर होता है। बेटी उन्हीं की नकल करके उन क्रियाओं में नयापन दे देती है। - यह दर्शन सुख (पूजा से उचटे हुए) मन को मोह लेता है। [पत्नी मूर्तिपूजक है, प्रतिदिन दीप जलाना, आरती के साथ घण्टी बजाना, मस्तक नवाना जैसी विधियों और मेरी आर्यसमाजी वाली क्रियाविधियों (जल आचमन, अंगस्पर्श व मार्जन वाली) से ऊब जरूर हो जाती है लेकिन बेटी जब उनकी देखादेखी दोहरावट करती है तो वह मन की घटती रुचि के लिए उत्प्रेरक होता है। ]
ये है उचित और वो अनुचित
देता रहता हूँ जो भासन*
उसे ध्वस्त करती है बेटी
चख-उद्घाटक 'दर्शन प्रासन'।
@ स्वयं को अधिक समझदार समझने वाले ही अन्यों के लिए नियम-कायदे बनाते हैं। इस नाते ही मैं भी अपनी बेटी को सही और गलत का भाषण देता रहता हूँ। यानी 'ये मत करो, ऐसा करो, वहाँ मत जाओ, यहाँ आओ, ये क्या किया ?' जैसी रोक-टोक व कायदे निरंतर मेरी घरेलू क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने की कोशिश में रहते हैं। लेकिन बेटी उन सबको न मानकर मेरी निरंकुशता को दर्पण दिखाती है। - यह दर्शन सुख मेरी खुली आँखों को और अधिक खोल देता है। मेरे अहम को तोड़ देने वाले इस दर्शन से मैं भविष्य के लिए सावधान हो गया हूँ।
@ आदरणीय आशा जी, आदरणीय मयंक जी,
आपके स्नेहिल आशीर्वाद से ही परिवार का आनंद यथावत है।
एक टिप्पणी भेजें