प्रकाश औ' प्रकाशिका
कर्तव्य साथ छोड़कर
दे रहे थे देह को
विराम प्राचि-गेह में।
प्रकाश ताप व्याज से
घटा-विधान ओढ़कर
ले रहा था सुबकियाँ
अश्रुओं को छोड़कर।
मलिनता मिटाने को
खींचती घटा-विधान
धीरे से खाँसती, पिय
आई, उठो अंशुमान !
4 टिप्पणियां:
आपके काव्य का लालित्य अनुपम है. सुन्दर व्याख्या है तिमिरहरण की.
उत्कृष्ट काव्य रचना
निहार रंजन जी, कविता सौंदर्य की प्रशंसा के लिए आपकी दृष्टि के प्रति सम्मान प्रकट करता हूँ . आपका नाम आपके स्वभाव के अनुरूप लगता है . आपकी उपस्थिति के लिए आभार .
डॉ. मोनिका जी, आपके समीक्षात्मक शब्द हलकी रचना के लिए प्रशंसा वायु में भार की तरह हैं।
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