यह ब्लॉग मूलतः आलंकारिक काव्य को फिर से प्रतिष्ठापित करने को निर्मित किया गया है। इसमें मुख्यतः शृंगार रस के साथी प्रेयान, वात्सल्य, भक्ति, सख्य रसों के उदाहरण भरपूर संख्या में दिए जायेंगे। भावों को अलग ढंग से व्यक्त करना मुझे शुरू से रुचता रहा है। इसलिये कहीं-कहीं भाव जटिलता में चित्रात्मकता मिलेगी। सो उसे समय-समय पर व्याख्यायित करने का सोचा है। यह मेरा दीर्घसूत्री कार्यक्रम है।
8 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
शुभकामनायें!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है
आदरणीय मयंक जी, आपके आशीर्वचन और शुभकामनायें मेरी रचनाओं का सदैव मंगल करती रही हैं।
मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है आगे भी आपकी लेखनी सृजन के साथ-साथ कृशकाय नवजात कलमों के लिए मार्गदर्शन की भूमिका निभाती रहे! कलुषित मन से तनाव देने वाले सक्रिय मस्तिष्क स्वतः ही शीतग्रस्त होकर निष्क्रिय हो जायेंगे! काव्य साधकों की एकांतिक साधना में व्यवधान डालने वाले असुरवृत्ति के हो सकते हैं किन्तु फिर भी एक प्रतिशत की संदेह छूट प्रेमी या भक्त स्वभावी जन की अतिशयता को मिलनी चाहिए ही।
आदरणीय कुशवंश जी, प्रशंसासूचक शब्दों की आवृत्ति कभी बासी नहीं पड़ती। इन शब्दों की ताज़गी भावना में निहित होती है इस कारण ये हर बार मधुर लगते हैं।
अनुराग जी, "औषधीय पादप-वृक्षों का सम्मान कुशल वैद्य ही करते हैं, मुग्ध अनजान नहीं, परन्तु लाभ वे सभी को बिना भेद किये देते हैं। आम स्वाद के कारण से चाहे राजा माना जाए लेकिन नीम अपने रोगनिवारक गुणों के कारण ही महत्वपूर्ण बना हुआ है।" आपके प्रति एक भाव विशेष लुकाछिपी का खेल खेला करता है।
संजय भास्कर जी, भीषण गरमी में बँधे 'कर' वाले सन की जय हो! :)
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