गुरुवार, 6 जून 2013

भव्य अनुभूति

 
शब्द नहीं हैं सुख वर्णन के
नित्य ह्रदय में उत्सव महके
मुख-द्वार पर सभी स्वरों के
बारी-बारी अक्षर चहके।
सपना नहीं सत्य समझते
लाल हुई हैं आँखें मलते
प्रेम विटप की बाँहों पर अब
गोदी वाले पुष्प निकलते।
जान गया मन रहस्य पिता का
संतानों से अपनेपन का
अर्थ ढूँढ लेता हूँ अब तो
हर किलकारी हर रोदन का।
 
 
 

23 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

गहन भावमयी रचना

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

*
मेरी ही चेतना की व्याप्ति यहाँ से वहाँ तक !
रोशनी का कण आँखों मे समा गया ,
जिसने उद्भासित कर दिया दिग् - दिगन्त को !
*

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

गहन भाव लिए ,बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,

RECENT POST: हमने गजल पढी, (150 वीं पोस्ट )

सुज्ञ ने कहा…

कवि पिता की दृष्टि....
"मुख-द्वार पर सभी स्वरों के बारी-बारी अक्षर चहके।"

अंतर्मन तक वात्सल्य से भीगा गई आपकी भावनाएँ.

Unknown ने कहा…

आपकी यह सुन्दर रचना शनिवार 08.06.2013 को निर्झर टाइम्स (http://nirjhar-times.blogspot.in) पर लिंक की गयी है! कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर मासूम सी प्यारी कृति

मन के - मनके ने कहा…


सुंदर

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...

संजय भास्‍कर ने कहा…

जरूरी कार्यो के ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ

अरुणा ने कहा…

बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति..।
साझा करने के लिए आभार...!

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


सुन्दर भाव लिए बहुत सुन्दर रचना !
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Rohit Singh ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Rohit Singh ने कहा…

प्रिय मित्रवर ....खूबसूरत रचना लिखी है....पिता का रहस्य मन जान जाता है तो अपने पिता के प्रति और कृतज्ञ हो जाता है...नन्ही परी को खूब सारा प्यार और आशिर्वाद...
हां ब्लॉग पर देर से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं...पर इसका एक कारण है आपकी रचनाओं के बीच का अंतराल....इसलिए देर से आने से कई कविता पढ़ने का सुख भी मिलता है....कहीं ये सुखद अहसास भी होता है कि नए प्रयोग के बाद भी कविता की सरसता औऱ प्रवाह बना हुआ है...जिस भाषा की सेवा भारतेंदू से लेकर निराला ने की हो..उस कड़ी को बनाए रखना आसान नहीं होता है..पर आप जैसे कई रचनाकारों को पढ़कर पता चलता है कि हिंदी की स्थिती पर जो चिंता करते हैं वो बिना सच्चाई जाने बकवास ही करते हैं।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मर्मस्पर्शी..... अद्भुत पंक्तियाँ

बधाइयाँ आपको......

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,


.......
.......


pranam.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

सुंदर उद्गार प्रतुल भाई। बिटिया को बहुत सारा स्नेह।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कविश्रेष्ठ रविकर जी! आपके सभी पाठक यह तो समझ ही गए हैं कि आपने अपना परिवार विशाल कर लिया है। सबके पास जाना, उनकी सुनना और फिर प्रतिक्रिया देना यह न केवल आपको रुचता है अपितु सुख-दुःख में हिस्सेदार बनकर उनसे आत्मीयता जताने वाला स्वभाव परस्पर संबंधों को और अधिक प्रगाढ़ बनाता है।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कुशवंश जी आप भलीभाँती जानते हैं वात्सल्य ह्रदय की गहराई और उसमें समाहित भावों की पकड़म-पकड़ाई।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रतिभा जी, शिप्रा की लहरों में देखा पितृत्व, लगा यह तो मेरे अमूर्त मन का चित्र ही है। आप सूक्ष्मतम भावों को मनोहर रीति से व्यक्त करते हैं।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ धीरेन्द्र भदौरिया जी, आँसुओं को देखकर आँसुओं का सैलाब ले आना अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति में ही देखा जाता है। क्रिया की प्रतिक्रिया तो सभी देते हैं ..लेकिन प्रतिक्रिया ह्रदयस्पर्शी विरले ही देते हैं। आपकी रचना 'हमने ग़ज़ल पढ़ी' उस आधार पर कहता हूँ।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


सुज्ञ जी, आपकी उपस्थिति में स्नेहिल आशीर्वचन होता है और आशीर्वचन में मार्गदर्शन की झलक पाता हूँ।

कल्पना करके बहुत कठिन होता है नई-नई अनुभूतियों और नए-नए भावों को जस-का-तस व्यक्त कर पाना। लेकिन जब वे सभी आलंबन और विषय समीप हों तब उनको व्यक्त करने का समय पास नहीं रहता। :) रस में डूबे हुए रस आनंद का कैसे उल्लेख करें?

संजय भास्‍कर ने कहा…

अद्भुत पंक्तियाँ