मंगलवार, 5 मार्च 2013

शापित सुनार

हर ह्रदय विदारित तार-तार
संवेदन सरिता स्फुटित थार
बह चली कूल दोनों नकार
दामिनि दामन सुन चीत्कार।
 
सभ्यता हो चली शर्मसार
आवरण गया देह को डकार
उबला अबला जबरन विकार
तामस में कुचली ज्योति नार।
 
'हा-हा-हा-हा' कानों के द्वार
कोमल कातर स्वर की कतार
आती टकराती बार-बार
आखेटक मन करता शिकार।
 
हर ओर न्याय को हो गुहार
अनुत्तरित प्रश्न दहलीज पार
कंधों पर किसके न्याय भार
हावी लुहार शापित सुनार!!!
 
 
[व्यापक जन-जागृति की उत्प्रेरक बनी 'बहिन ज्योति पाण्डेय' को भावाञ्ज्ली]
 
 
मैं बहुत समय से ऐसे विषयों से बचता आ रहा था जो स्वयं को 'अपराध बोध' से ग्रस देते हैं, मन को अशांत करके मनुष्य जीवन को धिक्कारते हैं। ऐसे विषय वैसे 'विचार कविता' में अच्छे से प्रस्तुत हो पाते हैं और प्रभावशाली रहते हैं। किन्तु फिर भी 'छंद कविता' में इस विषय को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा उद्देश्य 'कम शब्दों में अंतर्मन की मौन हुई संवेदना को व्यक्त करना है। आदरणीय वीणा श्रीवास्तव जी के अनुग्रह पर बहुत तरह से मन की मूक संवेदना को व्यक्त करने के प्रयास किये किन्तु संतोष नहीं हुआ। वैसे अब भी नहीं है। मन को बुरी तरह आहत करने वाले विषयों पर लिख पाना सरल नहीं। वीभत्स घटनाओं पर लिखना-पढ़ना कौन पसंद करेगा? इसी कारण कवियों ने किसी भी भाषा के साहित्य में 'वीभत्स रस' पर काफी कम कलम चलायी है।

24 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

उम्दा -
आभार आदरणीय -

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

गहरी अभिव्यक्ति...... एक अलग सी रचना

सुज्ञ ने कहा…

गम्भीर सम्वेदनशील!!

आभार, गुरू जी!!

रविकर ने कहा…

विषयी वतसादन वेश धरे विषठा भख भीषण रूप धरे ।

हतवीर्य हरे हथियाय हठात हताहत हेय कुकर्म करे ।

सुकुमारि सकारण युद्ध लड़े विषपुच्छन को बहुतै अखरे ।

मनसा कर निष्फल दुष्टन की मन सज्जन में शुभ जोश भरे ।

रविकर ने कहा…

आपकी मार्मिक उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।

Ramakant Singh ने कहा…

हर ओर न्याय को हो गुहार
अनुत्तरित प्रश्न दहलीज पार
कंधों पर किसके न्याय भार
हावी लुहार शापित सुनार!!!

सम्वेदनशील अभिव्यक्ति..

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत मार्मिक और प्रभावी रचना..आभार

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

मन की संवेदनाएं जगाती रचना!

prritiy----sneh ने कहा…

bahut hi sunder, samyik rachna

shubhkamnayen

Unknown ने कहा…

सम्वेदनशील, मार्मिक

बेनामी ने कहा…

excellent points altogether, you just won a brand new reader.

What may you suggest in regards to your submit that you
just made a few days in the past? Any sure?

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सञ्जय झा ने कहा…

SUPRABHAT GURUJI,


KAFI DINO EVAM VILAMB SE AANE KE LIYE KSHAMA KAREN.....

KAVITA BAHUT ACHHI LAGI


FAGUNASTE.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रविकर जी, जिस 'रस' में लिखना असहज और दुष्कर है उसमें भी आप सहजता से कलम को मदारी बन नचा लेते हो। अद्भुत है आपकी 'सारस्वत प्रतिभा।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ डॉ मोनिका जी, सच है यह रचना अलग-सी है ... इसकी सृष्टि प्रेरक के विनाश के बाद हुई। :(

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ सुज्ञ जी, एक यही मंच है जहाँ आप मुझे गुरु का मान देते हैं और मैं कुछ समय के लिए इतरा लेता हूँ। :) किन्तु इस मंच पर मैंने कभी नहीं सोचा था कि अमानवीय कृत्य पर कोई रचना दूँगा ... "हा ! यह जगत कल्पना से बाहर जाकर बहुत भयावह हो जाता है।"

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


@ प्रदीप जी, मुझे इस बात की प्रतीति होने लगी है कि मैं सामाजिक शिष्टाचार निभाने में बहुत विलम्ब करता हूँ 'अपने खुद के ब्लॉग पर ही बहुत समय बाद आता हूँ' फिर भी विश्वास करता हूँ आप रुष्ट नहीं होंगे। जैसे महीने में एक अमावस्या होती है वैसे मुझे भी स्वीकृति दीजिएगा।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ रमाकांत जी, आपकी उपस्थिति में खुद को संवेदनशील महसूस करके जीवित रहने का एक योग्य कारण सहेज पाता हूँ।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ कैलाश जी, ह्रदय को आहत करते और कोमल भावों को कुचलते कुत्सित कृत्य स्वर व रचना को मार्मिक बनाते हैं।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ प्रतिभा जी,
इस रचना का उद्गम मुझे आज भी झकझोर देता है।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

@ स्नेह जी , इस सामयिक रचना के लिए वीणा श्रीवास्तव जी ने प्रेरित किया ... जब उन्होंने मुझसे इस विषय पर रचना करने को कहा ... मुझे समझ ही नहीं आ रहा था - जिस घटना के चित्रण से मैं बातचीत में भी बचता रहा उसे ही व्यक्त करना मेरे लिए बहुत कष्टकारी रहा। आपकी शुभकामनाएं रहीं रहीं तो ऎसी रचना फिर न करनी पड़े।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कुश्वंश जी, आप-से संवेदनशील पाठक मित्रों के बीच रहकर मुझे मनुष्य होने की अनुभूति होती है।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…


@ संजय जी, लम्ब-विलम्ब के बारे में यहाँ चर्चा करना ही निरर्थक बन गया है ... मधुमेह से ग्रसित उपदेशक गुरु गुड़ छोड़ने की बात पर अपनी हँसी ही बनवाते हैं।


नाट्यशास्त्र कहता है ... 'विप्रलंभ और करुण रस में भी प्रमाता कविता का आस्वाद लेता है। आपको यह रचना अच्छी लगी तो यही एक कारण है।

सञ्जय झा ने कहा…

suprabhat guruji,

asha hai kushal honge.....
kafi din ho gaye...apni amad darz kariye....



pranam.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रिय संजय जी,

कुछ व्यक्तिगत कारण और कुछ कार्यालयीन व्यस्तता ने मुझे स्वयं से दूर कर दिया। हूँ तो इसी समाज में लेकिन 'कविताई' लम्बे समय से हो नहीं पायी। :( कुछ महीनों से लगातार ढेर सारे बच्चों के साथ काम करने का अवसर मिल रहा है। सुबह शाम उनके बीच रहता हूँ। :)

शीघ्र आऊँगा लौटकर ......वात्सल्य दर्शन की कुछ कविताओं के साथ। :)