शनिवार, 2 मार्च 2013

चिंतन की रस यात्रा

"एक बार काव्य-साधना के समय सहसा मेरा चिंतन साहित्यिक रसों के पथ पर निकल पड़ा। समस्त रसों को 'काम' की तीव्रता के आधार पर विभाजित करके समझने लगा। पहले पहल अतिकाम, मध्यकाम, और शून्यकाम करके सभी रसों को इन श्रेणियों में रखा। फिर श्रेणियों के नाम बदलकर उसे फिर से विभाजित किया। .... अद्भुत आनंद मिला।"
 
जब कोई काव्य-साधक नया चिंतन करता है तो वह मन में उपजे स्थायी-अस्थायी भावों को कुछ कक्षाओं में अनुशासित करने का खेल खेलता है। आने वाले समय में यदि काव्य-अभ्यासियों और काव्य-रसिकों को वह रुचता है तो वे उसके ज्ञात-अज्ञात रूप से प्रचारक हो जाते हैं।

'काव्यशास्त्र की शिक्षा वर्तमान समय में अपनी महत्ता कैसे स्थापित करे?' – इस चिंता से कई विद्वान् और विदूषियाँ अपने-अपने प्रयास ज़ारी रखे हुए हैं। कुछ काव्यशास्त्र पर अच्छी कक्षाएँ दे रहे हैं तो कुछ उत्कृष्ट काव्य-लेखन कर रहे हैं। सभी के प्रयासों से काव्य की समृद्ध परम्परा चलायमान है।
एक सुबह जिस चिंतन ने 'कलम' खिलौना लेकर खेल आरम्भ किया उस 'चिंतन-क्रीड़ा' में आप भी सम्मिलित हो सकते हैं :
पहले पहल कलम ने पाला खींचा :
अति काम — जिसमें शृंगार, हास्य, अद्भुत नाम के फुर्तीले खिलाड़ी खड़े किये।
मध्य काम — जिसमें वीर, करुण, वात्सल्य नाम के शारीरिक सौष्ठव वाले खिलाड़ी खड़े किये।
शून्य काम — जिसमें शांत, वीभत्स, रौद्र, भयानक नाम के खिलाड़ी रह गए जो हार-जीत की चिंता से मुक्त दिख रहे थे।
पाला खींचने के बाद संतोष नहीं हुआ। चिंतन ने खींचे हुए पाले को नए नाम दिए :
द्रुत काम — जिसमें खिलाड़ी वही थे -- शृंगार, हास्य, अद्भुत
श्लथ काम — जिसमें खिलाड़ी वही थे -- वीर, करुण, वात्सल्य
अकाम — जिसके दो उपभाग किये -- निष्काम / दुष्काम
  • निष्काम में – शांत को खड़ा किया
  • दुष्काम में – वीभत्स, रौद्र, भयानक (दूसरे उपभाग में) खड़े हो गए।
शृंगार — अति, मध्य, मंद 
अति शृंगार : संयोग (निःशब्द रति-व्यापार) / वियोग (प्रसुप्त विरह-ज्वार)
मध्य शृंगार : संयोग (आकर्षण, परस्पर वार्तालाप, सानिध्य) / वियोग (सुखद स्मृतियाँ, दुखदायी परदेशगमन, मान, पूर्वराग)
मंद शृंगार : संयोग (साक्षात शब्द संवाद, चाहना) / वियोग (कथन मात्र, कविताई)
हास्य — प्रौढ़, युवा, बाल
प्रौढ़ : अट्टहास, अपहसित, अतिहसित
युवा : हसित (खिलखिलाहट), विहसित (परिहासात्मक हँसी)
बाल : सुस्मित (मुस्कान)
करुण — आभ्यंतर, बाह्य
आभ्यंतर : मानसिक वेदना से उपजा कातर स्वर
बाह्य : शारीरिक वेदना से उपजी कराह
अद्भुत* — विश्वसनीय, अविश्वसनीय, कपटपूर्ण ... [इस पर कभी और क्रीड़ा रचेंगे]
वीर* — उदात्त, ललित, प्रशांत, उद्धत या, युद्धवीर, कर्मवीर, धर्मवीर, दानवीर  [शास्त्रोक्त]  
वात्सल्य — प्रौढ़, युवा, बाल
प्रौढ़ : माता-पिता (अभिभावक) का अपने बच्चों से
युवा : प्रत्येक बड़े का प्रत्येक छोटे से, प्रत्येक सबल का प्रत्येक निर्बल से, प्रत्येक सक्षम का प्रत्येक असहाय से
बाल : जीवों से वस्तुओं से और स्थान से।
शांत
लक्ष्य साध्य (अर्थ मौन) : विपरीत स्थिति में प्रतिक्रिया भाव, ज्ञानपरक तप, वैराग्य भाव युक्त ऋषि-मुनियों की साधना
अलक्ष्य साध्य (व्यर्थ मौन) : प्रतिक्रियाहीनता, उदासीनता, तटस्थता
वीभत्स
क्षोभज (शुद्ध) : पापी (अपराधी) से घृणा, रुधिर आदि से उत्पन्न घृणा, सुन्दरी के उरु-उरोजों के प्रति वैराग्य
उद्वेगी (अशुद्ध) : पाप (अपराध) से घृणा, कृमि विष्ठा, शव आदि से उत्पन्न घृणा।
रौद्र —
अत्यंत क्रोध : विनाश भाव (अनिष्ट), पूर्णतया समाप्त कर देने की इच्छा
क्षीण क्रोध : क्षत-विक्षत करने का भाव, चोट या घात करने की इच्छा
भयानक —
जड़ भय : स्तब्ध रह जाना, स्थिर रह जाना, अवाक रह जाना, कंठावरुद्ध होना
चेतन भय : कम्पन होना, भागना-दौड़ना, सुरक्षा के लिए चीख-पुकार करना, हकलाना, छिपते फिरना, सामने न आना, नज़रें नीची कर लेना, विपरीत कार्य करने लगना।
इस चर्चा का उद्देश्य है –
विद्वान् साथियों और गुरुओं को विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित करना, गुरुओं का मार्गदर्शन लेना।

मेरा यह अनुभव है अपरिपक्व चिंतन तभी पुष्ट होता है –
जब उसमें सुधार के अवसर खुले हों।
आलोचना के लिए सम्मान भाव हो।
विरोधियों का भी स्वागत हो।

[*तारांकित रसों पर मन-मुताबिक़ क्रीड़ा की फिर कभी छूट लूँगा।]

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

उपयोगी पोस्ट!

रविकर ने कहा…

वाह आदरणीय वाह-

दो दिनों से मन व्यग्र था-

आपकी पोस्ट पढने की इच्छा बलवती हो रही थी -

आज भरपूर खुराक मिलने से चित्त शांत हुआ-

सादर

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत रोचक रही यह रस यात्रा...आभार

Unknown ने कहा…

बेहतरीन और मस्तिस्क की जबरदस्त खुराक गुरूजी

Ramakant Singh ने कहा…

उपयोगी और संग्रहनीय पोस्ट कृपया मेल करने का कष्ट करें।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

सभी साहित्य मर्मज्ञ साथियों को अति विलंबित नमो नमः!!