हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !
मत देखों निज पीड़ा गहरी.
तेरी दृष्टि पड़ते ही खिल
उठती है हिय में रत-लहरी.
न बोलो तुम, मृदु हास करो
चन्दा किरणों सह रास करो
तुम सन्नाटे के साँय-साँय
शब्दों पर मत विश्वास करो.
हे मंद-मंद चलने वाली,
तम-पद-चिह्नों की अनुगामी !
पौं फटने से पहले जल्दी
प्रिय-तम से मिल लेना, कामी !
18 टिप्पणियां:
सब-रस |
आभार ||
देखों..देखो
पौं...पौ
अंध निशा गूंगी बहरी..
चंद्र किरण संग रास!
..विरोधाभास है।
आपकी सुन्दर रचनाओं का कोई सानी नहीं है।
खुबसूरत व समीचीन सृजन के लिए साधुवाद जी......
सब-रस |
आभार ||
@ सर-बस |
रविकर जी, इतना 'आभार' !!
:)
देखों..देखो
पौं...पौ
अंध निशा गूंगी बहरी..
चंद्र किरण संग रास! ..विरोधाभास है।
@ बहुत दिनों बाद किसी ने मेरी 'पौं-पौं' की तो बचपन याद आ गया...
जब तक मेरा मुंडन-संस्कार नहीं हुआ था, माँ मेरे केशों की जूडी बना दिया करती थी... तब मेरे बड़े भाई और उनके दोस्त जूडी पौं किया करते थे. मुझे न तब बुरा लगता था और न अब लगता है... हाँ जब यही बात मेरे छोटे भाई के साथ होती थी तो वो बहुत आग-बबूला हो जाता और घर का सामान उठा-उठाकर फैंकता और जिसने 'पौं' की होती उसके कॉपी-किताबें कुतर दी जातीं.... तभी उसका चिढ़ का नाम 'चूहा' भी था और मेरा 'हाथी' था.
देवेन्द्र जी, आपने मेरा बचपन मुझे याद दिला दिया. बहुत-बहुत आभार.
अब रही विरोधाभास की बात ... हाँ आपने बहुत अच्छा प्रयास किया है... साधु.
बात उस समय की है जब मौहल्ले की लाइट चली गई थी, छत पर टहल रहा था... गहन अन्धकार था... मैंने निशा (प्रेम में अंधी) से बात की और कहा तुम गूंगी-बहरी हो, तुम्हें किसी की चिंता नहीं... तुम्हारी दृष्टि कामुक है... 'रति' के ही विचार हृदय में संचारित करती हो. वो मेरी बात सुनकर मुस्कायी....वो बोलना चाहती थी लेकिन मैंने कहा..." जाओ मुझसे बात मत करो, निर्लज्जता से मुस्कराती और हो!" अगर काम की धुन सवार है तो जाओ चाँदनी के पास जाकर रास करो. लेकिन तुम्हें तो सन्नाटे का साथ प्यारा है... उसकी साँय-साँय पर ही भरोसा है.
तम के पद-चिह्नों का पीछा करती हुई तुम धीमे-धीमे चलती हो, तुम तेज़ चलो .... तभी तुम्हें तुम्हारा प्रिय-[तम] मिल पायेगा. पौं फटने से पहले ही ये काम कर लो.
पाण्डेय जी, आपने 'पौं' द्वारा यमक अलंकार प्रयोग करते हुए ही 'पौं' प्रतिक्रिया दी... वाह! आनंद आया.
@ दिव्या जी, आपका आगमन 'अर्चना का प्रसाद' सा लगा.
मुझे तो भावुक साक्षात्कार ही भाते हैं...
किन्तु सर्वश्रेष्ठ होने की होड़ में
दूसरों को धकलते हुए
स्मार्ट लोग आगे निकल जाते हैं.
और तो और
आत्मश्लाघा के प्रायोजित साक्षात्कार
चरित्र के स्याह धब्बों को परिकल्पनाओं तक से छिपाते हैं.
@ उदयवीर जी, शायद आपने कविता में विरोधाभासों को देख लिया हो..
— मैं एक अंधी निशा से कह रहा हूँ कि उसकी दृष्टि पड़ते ही मेरे हृदय में 'काम-भाव' आने लगते हैं.
— गूंगी-बहरी संबोधन देने के बाद भी उसे बोलने से रोक रहा हूँ. और सन्नाटे के शब्दों पर विश्वास करने से मना कर रहा हूँ.
है ना ....... घोर विरोधाभास............ आपकी संक्षिप्त सराहना के लिये आभारी हूँ.
सुंदर !
हाँ विरोधाभास अलंकार का सुन्दर रूप है .
बहुत मनभावन प्रस्तुति....आभार
हे मंद-मंद चलने वाली,
तम-पद-चिह्नों की अनुगामी !
पौं फटने से पहले जल्दी
प्रिय-तम से मिल लेना, कामी !
विरोधाभास अलंकार का सुन्दर रूप
न तम कभी प्रिय हुआ है और न प्रियतम | हाँ ! कामी अवश्य सदैव प्रिय रहा है क्योंकि उसमें स्वार्थ निहित होता है प्रेम का ,सामीप्य का |
सुशील जी, ज्योतिषियों की भाषा और राजनेताओं की भाषा में एक साम्यता है, वो ये कि वे दोनों ही ऐसा बोलते हैं जिसे बहुत से सन्दर्भों से जोड़ा जा सकता है.
आपने 'सुन्दर!' कहा, तब से मैंने भी 'रचना' को पाठक भाव से एकाधिक बार पढ़ा और आपके प्रशंसा पाने वाले वाक्य को तलाशने में जुटा रहा.
और फिर खुद को इस रचना का रचनाकार जान पूरी 'रचना' को सुन्दर मान आत्ममुग्ध भी हुआ.
@ "वीरूभाई को विरोधाभास लगा" वाक्य में कौन-सा अलंकार है?
— वृत्यानुप्रास
— छेकानुप्रास
— लाटानुप्रास
— श्रुत्यानुप्रास
— वीप्सा
@ "वीरूभाई को विरोधाभास लगा" वाक्य में मात्रिक-विधान करते हुए अंतिम गण का नाम क्या होगा?
— मगण
— तगण
— सगण
@ आदरणीय कैलाश जी, शब्द-क्रीड़ा करने का मन है...
'कैलाश' शब्द 'कै' और 'लाश' रूप में विच्छेद होकर कभी मनभावन नहीं होता, जुगुप्सा उपजाता है. किन्तु वही संधि होकर मनभावन हो जाता है.
और संधि युक्त होकर दृष्टि भी यदि मनभावन हो जाये तो दृष्टिगम्य रचनाएँ तो धन्य हो ही जाएँगी.
@ रमाकांत जी, विरोधाभास तो भासित है ही.. पर अब मुझे कहीं ओर भी भासित हो रहा है :)
कहते हैं डाकू बाल्मिकी 'मार-मार' और 'मरा-मरा' का लगातार उदघोष करता था तो नारायण को उसके बोलने में 'रमा-रमा' और 'राम-राम' स्वर का भान होता था. इसलिये उसका उद्धार हो गया. :)
इस कारण मेरा मानना है "आभास चाहे विरोधी हो अथवा सहयोगी उनकी दिशा सही होनी चाहिए, जिससे वह अपने गंतव्य अर्थों तक पहुँच सके."
न तम कभी प्रिय हुआ है और न प्रियतम |
हाँ ! कामी अवश्य सदैव प्रिय रहा है क्योंकि उसमें स्वार्थ निहित होता है प्रेम का, सामीप्य का |
@ अमित जी, आपने अधुना यथार्थ कहा... और शायद सनातन यथार्थ भी यही हो.
फिर भी ऐसा नग्न सत्य स्वीकारने में मैं सहज नहीं हो पा रहा हूँ.
मेरा प्रतिवाद :
— 'चकाचौंध वाली आखें तम खोजती हैं.' 'प्रेमी चमगादड़ों को तम से ही लगाव होता है.' 'परदेस गये मितवाओं का सामीप्य तम में ही महसूस होता है.' सो 'तम का बड़ा महत्व है.... प्रियतम के जीवन में' 'तम और प्रियतम दोनों का महत्व है प्रियतमा के जीवन में.'
परन्तु
कामी न तो तम देखते हैं और न प्रियतम देखते हैं.... वे तो अपने काम का ख़तम देखते हैं. [ख़तम = एंड]
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