नव मीन-निलय में विलय हुए
सित सरिता के सारे सुभाव.
सब सूख गये सरिता तीरे
नंदन-वन तन के हरे घाव.
नव मीत मिले निश-तिमिर नगर
नयनाभिराम नय के नरेश.
उर-सर में करते हैं नूतन
सृष्टि का फिर से वे प्रवेश.
ऋतु उन्मीलन कर रही, छोड़
जाने से पहले कर मरोड़.
नासीर भाँति कर के समूह
की उर-सर में आयी हिलोर.
जल्दी-जल्दी पिक अमी भाँति
कानों में मिश्री रहा घोल.
कहता कवि से - "है कंठ कहाँ?
अब कर लो दोनों यहीं तोल ?"
20 टिप्पणियां:
आनन्द की सलिल सरिता से साक्षात्कार!!
आहा, कविता का रसपान शीर्ष पार पहुँच ही रहा था कि "जल्दी- जल्दी " मे मै फिसल गया...
कुँवर जी,
अद्भुत...रचना का प्रवाह अपने साथ बहा ले गया...आभार
असरकारी |
आभार प्रतुल जी ||
शब्दालंकार संग अर्थालंकार का अद्भुत संयोजन .
नव मीत मिले निश-तिमिर नगर
नयनाभिराम नय के नरेश.
मन को मोह लेते हैं ...
suprabhat guruji,
apka fir se lai me aana
blog-jagat ka safar suhana banata hai....
pranam.
कुछ नए टाईप की स्मीति ढूंढ रहा था,मिली नहीं। फिलहाल,:-) ही स्वीकार किया जाए।
आपका ब्लॉग शायद आज पहली बार ही देखा; ऐसा लगा जैसे किसी हिंदी व्याख्यान कक्षा में पहुँच गए हों! अच्छी कविताओं का संकलन!!!
हार्दिक बधाई और धन्यवाद!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश
@ सुज्ञ जी, आनुप्रासिक शब्दावली में दे रहे हो प्यार. बहुत आभार बहुत आभार.
@ कुँवर जी, रसपान करने वाले फिसला नहीं करते...
अतिरसपान में मादकता होती है... इसलिये आप फिसले.
@ आदरणीय कैलाशजी, आप जहाँ भी बहकर पहुँचेगे वहीं की ज़मीन उपजाऊ हो जायेगी. मैं आभारी हूँ कि आप मुझे आशीर्वाद देने आते हैं.
@ रविकर जी,
कविश्रेष्ठ से संक्षिप्त प्रतिक्रिया भी बहुत असरकारी होती है. वह चाहे आकर 'हुं' भर कर जाये... बहुत होता है.
@ रमाकांत जी, आपकी आखें भी मेरे स्वभाव वाली हैं... अलंकारों को पहले देखती हैं.
@ प्रिय सञ्जय जी, मन में जब भी वलय बनते हैं... आत्मीय जन समझते हैं कि लय में लौट रहा हूँ.
@ कुमार राधारमण जी,
नये के चक्कर में सनातन 'स्मिति' भी वक्र हो जाती है.
@ सारिका एवं मुकेश जी,
मुझे आपका आना इसलिये भी सुहा रहा है कि आप युग्म रूप में 'सारिकामुकेश' हैं तो मैं 'सारिकाप्रतुल'.
aisee rachnaon ko padhkar to dil se ek hee awaj uthti hai,,wah wah..sadar badhayee ke sath
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
@ डॉ. आशुतोष जी,
ब्लॉग में 'रचना' चेपना तो एक बहाना है... दरअसल उद्देश्य मन के एकांत में 'बतरस बैठक' ज़माना है. हो सकता है कि रचनाएँ 'बोधगम्य' न हों और वे प्रशंसा के योग्य भी न हों..... लेकिन फिर भी ये 'आभासिक मिलन' हमें सामाजिक बनाए हुए हैं.भौतिक समाज में मिलना-जुलना कितना कम हो गया हैं... कहीं-कहीं पूरी तरह खत्म भी.... मेरा कोई-न-कोई 'रचना चेपना' उस सामाजिकता को अपने घर में जीवित रखने का प्रयासभर है.
@ शांति गर्ग जी,
आपके निमंत्रण पर जल्द अमल करूँगा.
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