सोमवार, 13 सितंबर 2010

मत करो स्वयं को शुष्क शिला

मत करो स्वयं को शुष्क शिला 
मेरे नयनों से नयन मिला. 
फट पड़े धरा देखूँ जब मैं 
तुम हो क्या, तुमको दूँ पिघला. 


संयम मर्यादा शील बला 
तेरे नयनों में घुला मिला. 
फिर भी चुनौति मेरी तुमको 
मैं दूँगा तेरा ह्रदय हिला. 


मैं कलाकार तुम स्वयं कला 
तुम तोल वस्तु मैं स्वयं तुला. 
तोलूँगा तुमको पलकों पर 
चाहे छाती को रहो फुला. 


'मंजुल मुख' मेघों में चपला 
मैं आया तेरे पास चला. 
मंजुले! खुले भवनों में क्यों 
तुम भटक रहीं निज भवन भुला. 

12 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

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एक पागल , बादल आवारा ,
मदमस्त , टेहेलता बंजारा ।
गरज-गरज कर कहता था,
रख दूंगा तुमको मैं पिघला ।
पर शुष्क शिला नादान न थी ,
आखों के आंसू पोंछ लिए,
होठों पे रखा न कोई गिला।
इतरा , लहरा कर चली गयी ,
मदमस्त चुनौती झेल गयी।
संयम , मर्यादा, लज्जा के वो,
खेल अनोखे खेल गयी।
वो शुष्क शिला भी कम न थी,
बादल को चुनौती दे डाली।
क्या तोल सकोगे पलकों पर ,
जब डूब गए तुम नयनों में ?

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

कहा था
"मत करो स्वयं को शुष्क शिला."
न कि
"ओ शुष्क शिला थाई बंजर!"
आगे की तुक ...
प्रतिउत्तर से घोंपा खंजर.
कविता बेचारी सिसक रही
पीड़ित सारे अंजर-पंजर.

... आपने कविता में जो भाव उड़ेले हैं, आपकी मनः-स्थिति को पूरी तरह व्यक्त करते हैं.
आप कविता भी अच्छी कर लेते हैं. जारी रखियेगा. शुभकामनाएँ.

Amit Sharma ने कहा…

शिलाजीत चाहते कहलाना तुम खुद को
अंतस में उतरो पहले फिर जीत शिला को

कलाकार तुम अद्भुत दो शिला की कला खिला
तौल सको शिला का मौन तौलो मन की तुला

ZEAL ने कहा…

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सच कहूँ , मैंने यूँ ही विनोदपूर्ण मूड में वो पंक्तियाँ लिख दी थीं। कविता को खंजन घोंपने का आशय कतई नहीं था। ऐसे पाठक निंदनीय हैं, जिनके कारण कविता को सिसकना पड़े। अपना सीरियस कमेन्ट नीचे लिख रही हूँ ।
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ZEAL ने कहा…

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कवी की ओज एवं विश्वास से भरी पंक्तियाँ , मन में समुद्र मंथन कर रही हैं। काश सभी .
कवी इतने विश्वास से , खुद को व्यक्त करें, अपनी ताकत को पहचानें , तो भला कोई शुष्क शिला बन भी कैसे सकता है ? एक कवी ही तो है जो लाखों हृदयों में तूफ़ान ला सकता है, खून में उबाल ला सकता है, और किसी को शुष्क होकर पाषण बनने से पहले उसे पिधलाकर, उसे इस सुन्दत जीवन जीने का एक अवसर दे सकता है।
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ZEAL ने कहा…

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लेकिन मन में एक संशय है ....
क्या शिला बनने की और अग्रसर , एक पासान ह्रदय पिघल सकता है ?...क्या आपको नहीं लगता की तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ? क्या कोई आशा उस मनुष्य के अन्दर दम नहीं तोड़ चुकी होती है ?
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ZEAL ने कहा…

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फिर भी कवी पर भरोसा है। कवी-ह्रदय में बसते इश्वर के लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं। आप की इस ओज एवं विश्वास से भरी कविता के लिए आपका बहुत आभार।

मुझे कविता बहुत पसंद आयी। ....

I am loving the element of aggression in the poet .

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अमित जी
[१]
शिलाजीत !!!
अरे !! आपने क्या शब्द दे दिया.
काव्य जगत में तो अर्थ अच्छा ही निकलेगा.
लेकिन ....
चिकित्सा जगत में इसका अर्थ कहीं जग-हँसाई का कारण न बन जाए.

[२]
मैं क्या चाहता हूँ कहलाना खुद को .........

मैं बनाना चाहता हूँ
कस्तूरी नाभि की.
जो रहती
नाभि में
किन्तु
सुगंध जिसकी
जाती दूर-दूर.
लगा देती
उनको अपनी
खोज में
जो सूंघ उसको
दर्शन करने की लालसा लिये
प्राप्त हो जाते
मृत्यु को.

[३]
यदि शिला में रिसाव होने लगे अथवा वह पिघलने लगे तब
'शिलाजीत' नामक औषधि बनती है.
शिला का मौन तोलना पलकों से तो संभव नहीं, हाँ आपने जो बताया मन से ज़रूर संभव है.
भविष्य में अवश्य तोलूँगा. यदि उस मौन में सार हुआ तो अवश्य प्रसार करूँगा.

Amit Sharma ने कहा…

शिलाजीत कुछ विशिष्ट प्रकार की चट्टानों के अत्यधिक तपने पर उनमें से निकलनेवाला एक प्रकार का रसजो काले रंग का होता है और अत्यधिक पौष्टिक माना जाता है।
ध्यान दीजियें कविश्वर चट्टानें विशिष्ठ होनी चाहियें, और उनको तप्त करने वाले ताप में भी अत्यंत तेजस्विता होनी चाहियें. तभी शिला के अंतस में बसा जीवन पुष्टिकारक प्रेम रुपी रस निकलेगा . उस रस का काला होना द्योतक है की सात्विक और अनन्य प्रेम पर फिर कोई दूसरा सांसारिक रंग नहीं चढ़ सकता है. और ऐसा प्रेम गोपी रुपी शिलाओं के कृष्ण प्रेम की अगन और विरह की तपन को पाकर प्रकट हुआ था. जो की स्वयं अपने प्रेमास्पद का स्वरुप था, अर्थात साक्षात् कृष्ण था.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

Amit jii aapse waadaa hai.

क्या व्याख्या कर दी है आपने. मैं तो सारी कविताई त्याग दूँ इसके बाद.
मैं अब तक काव्य की ठिठोली कर रहा था. अब से नहीं. हे ईश्वर मुझे वह तेजस दो कि प्रभु-प्रेम की रचना कर सकूँ.
छिछले शृंगार की रचना अब तक की. ... छी..

धिक्कार है मुझ पर
भटकता हूँ किधर.
हुआ क्यों ओज मेरा कम,
इन्द्रियों के वश होकर.
जितेन्द्री क्यों ना जिया,
धिक्कार है मुझ पर..........

आइन्दा मुझे इस राह में नहीं पायेंगे.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

क्या शिला बनने की और अग्रसर, एक पासान ह्रदय पिघल सकता है?...क्या आपको नहीं लगता की तब तक बहुत देर हो चुकी होती है? क्या कोई आशा उस मनुष्य के अन्दर दम नहीं तोड़ चुकी होती है ?

@ दिव्या जी, मैं निरुत्तर हूँ आपके प्रश्नों के सम्मुख.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

कविता अच्छी है, लेकिन कवि निरूत्तर हो गया तो कैसे चलेगा?
आज दिक्कत ये है कि मैं आगे से पीछे की तरफ़ चल पड़ा हूँ, कविताई(पढ़ने) का मूड है, कोई कमेंट असंबद्ध लगे तो मित्रवत बता दें आप।