दृग नहीं पीठ पीछे मेरे
पढ़ सकूँ भाव मुख के तेरे.
चाहूँ देखूँ तुम को लेकिन
बैठा हूँ मैं मुख को फेरे.
अनुमान हाव-भावों का मैं
मुख फेर लगाता हूँ तेरे.
सौन्दर्य आपका है अनुपम
संयम को घेर रहा मेरे.
लेता है मेरा ध्यान खींच
बरबस लज्जा-लूतिका* जाल.
लगता है चूस रहा तेरा
रक्तपा*-रूप निज रक्त-खाल.
* [रक्तपा – जोंक, खून पीने वाली, डायन, पिशाचन; लूतिका – मकड़ी]
8 टिप्पणियां:
दृग नहीं पीठ पीछे मेरे
पढ़ सकूँ भाव मुख के तेरे.
प्रथम पंक्तियों में ही अनुपम सौन्दर्य है...आगे क्या कहा जाए.
लगता है चूस रहा तेरा
रक्तपा-रूप निज रक्त-खाल.
अनुमप उपमा, और उससे उपजा दृश्य..मानो सामने की ही बात हो....
काव्य की साधना गतिमान रहे..
नए शब्दों के साथ कुछ नए प्रयोग किये आपने ....शायद किसी नायिका के सौन्दर्य का वर्णन है .....बहुत सशक्त रचना .....!!
बस ये पहले 'तुम' और फिर 'आप' का वर्णन जरा आखर रहा है ...देख लें .....!!
आखर को अखर पढ़ें .....!!
इस रचना में आपकी सहजता थोड़ी सी कम लगी आखिर में। खासकर अंतिम लाइन में ,रक्तपा शब्द..गति में अवरोध सा लगा।
अन्यथा न लीजिएगा।
वहीं दीप सत्ता आयेगी....
इसमें आप अपने पूरे रंग में हैं। वैसे वाग्दत्ता आ गई हैं क्या। या इंतजार है।
''अवगुंठित विभाएं'' कि इन पंक्तियों तक आते आते ..
भरा है मेरी भुजाओं में अमर बल.
मोड़ सकती कलम मेरी काव्यधारा......
अनंत सत्ता को चुनौती देते दिनकर याद आ गए। सुमित्रा नंदन पंत से दिनकर तक का ये सफर काफी अच्छा लगा।
इसमें कोई शक नहीं की सौंन्दर्य रचना की खोई हुई धारा को आप फिर से प्रवाहमान बनाने की सार्थक कोशिश में जुटे हुए हैं। इस नए माध्यम से लोगो को एक बार फिर हिंदी के उस सौन्दर्य का ज्ञान मिलेगा जिसे वो भूल चुका है। उस पीढ़ी को भी जो हिंदी को स्कूल के बाद नहीं पढ़ पाई। उसे भी जिसके मन में ये धारा संस्कार के तौर पर तो मौजूद है, पर कहीं अवचेतन में खो गई है। साधुवाद आपकी रचनाओं के लिए.......
धन्यवाद हरकीरत जी,
बारीक अंतर ढूँढ ही निकाला, मैंने काफी विचारा तो केवल अभी बचाव में बोलना ही सही लग रहा है :
@ "स्वगत कथन है इसलिये उसमें मैंने वाचिक शिष्टाचार ना निभाने की छूट ले ली है."
दो कारण :
१] मन के कथनों (स्वगत संवाद) में हम प्रायः तहजीब भुला देते हैं.
२] कहने का अपना एक प्रवाह भी होता है, इसी कारण आपके बताने पर ही इस ओर ध्यान गया.
दोष पहचान लिया. 'रक्तपा' शब्द सौन्दर्य वर्णन में दोष बन पडा है. यहाँ शृंगार रस नहीं रसाभास है.
रूप को रक्तपा [जौंक] मानना और फिर उसे रक्त और त्वचा को चूसने वाला ठहराना पीठ फेरे संयम का स्वयं को आकर्षण से बचाने का प्रयास है. वह चाहते हुए भी अच्छे उपमान नहीं बोलना चाहता. उसे उलझना मंजूर नहीं.
फिर भी आपने एक बेहतरीन टिप्पणी दी मेरे लिये यह संग्रहणीय है.
............... फिलहाल तो मैं अभ्यासरत हूँ यह मेरे कच्चा काम है. भविष्य में पक्का काम करने के लिये लेखन और अधिक सुधारूँगा. आपका ऋणी हूँ जो आपने मेरा तीन-चार रचनाओं से समीक्षात्मक मूल्यांकन किया. आभार.
भाई प्रतुल मैंने कहा था कि दोष निकालना मेरा उद्देश्य नहीं है। न ही मैं कोई प्रकांड विद्वान हूं कविता का, कहानी का। सच मैं मेने कहीं रक्तपा शब्द नहीं पढ़ा था अब तक। अगर पढ़ा था तो याद नहीं आता। न ही पढ़ते वक्त ये शब्द कहीं मेरे अवचेतन में नहीं टकराया। सहजता में, प्रवाह में रुकावट के तौर पर जो मुझे लगा वो मैने कहा एक आम पाठक की नजर से। आपकी भाषा में सुंदरता है, प्रवाह है, सहजता है। जो मेरी नजर में आज के जमाने में ज्यादा जरुरी है जब हिंदी अंतरराष्ट्रीय होने के मुहाने पर है। मेरे मानना है कि अपनी भाषा में बदलाव लाने की हमें कतई जरुरत नहीं है, जैसा कि विद्वान लोग कई मंचों पर कहते हैं। मैने इसलिए कहा था कि अन्यथा न लीजिएगा। मैंने दोष नहीं निकाला, सिर्फ उस चट्टान की तरफ ध्यान दिलाया था जो अनावश्यक तौर पर बहती नदी का रास्ता रोक रहा था।
जहां तक कविता के बारे में अधिकारिक तौर पर कहना हो, तो उसके लिए आदरणीय हरकीरत जी हैं ही बताने के लिए।
अंत मे फिर से . कि मेरा उद्देश्य दोष निकालना नहीं होता कभी।
मित्र रोहित जी,
@ मैं आपका उद्देश्य और मंशा दोनों जान गया था. उसमें संदेह नहीं करें. मुझे दोष भी कहीं-कहीं अलंकार से प्रतीत होते हैं. बस तर्क से बद्ध हों.
@ रक्त+पा = रक्तपा शब्द बना. रक्त को पीने वाला, पा मतलब पायी, प्रायः जौंक के लिये प्रयुक्त होता है. खून पीने वाली पिशाचिन या डायन के लिये भी हो सकता है. संस्कृत भाषा के शब्द संधि-विच्छेद करके समझे जा सकते हैं.
@ आप जो भी कहते हैं मस्तमोला अंदाज़ में कहते हैं. जीवन को जीने का आपका अंदाज़ पसंद आया. विद्वान् और पंडिताई परखने के लिये काफी लोग हैं. आप हैं इसके लिये कोई प्रमाण खोजने की ज़रुरत नहीं.
मैं हूँ इसकी भी कोशिश नहीं करता. मुझे बस तार्किक आलोचना सदा से सुख देती रही है. कृपया आगे भी करते रहें.
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