गुरुवार, 27 मई 2010

लज्जा के नीड़ में चपलता का बसेरा

अब टिकते नहीं फिसलते हैं
मुख पर जाकर मेरे दो दृग.
पहले रहती थी नीड़ बना
लज्जा, अब रहते चंचल मृग.

चुपचाप चहकती थी लज्जा
बाहर होती थी चहल-पहल. 
चख चख चख चख देखा करते
कोणों को करके अदल-बदल.

अब नहीं रही वैसी सज्जा
औ' रही न वैसी ही लाली.
बस उछल-उछल घूमा करते
मृग इधर-उधर खाली-खाली.

[जब से लज्जा के आवास में चपलता ने डेरा जमाया है लज्जा चहकना भूल गयी है और इस चपलता को नारी की जागृति समझा जा रहा है, बौद्धिकता माना जा रहा है, सहमती और समर्पण में अंतर कर उसे उसके दिव्य गुणों से पृथक करने का प्रयास हो रहा है. 'सहमती' में नारी की गरिमा को और उसके 'समर्पण' में पुरुष के वाक्-जाल को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है.]

6 टिप्‍पणियां:

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

Sir ji bahut sundar kavita. Bahut achchhi lagi.

Arvind Mishra ने कहा…

व्याख्या और विस्तारित करें कुछ भी पल्ले नहीं पडा !

Amit Sharma ने कहा…

बिलकुल सही चित्रण है. लज्जा जो कि कवच था, नारी ने खुद ही उतार फेंका है. और चंचलता रुपी अधोवस्त्रों को ही पहने फिर रही है . नारी जब तक लज्जा से सुरक्षित थी तब सर्वांग अगोचर होते हुए भी हर अंग से सोंदर्य कि चहल-पहल मची रहती थी. पर अब बिकनी-टॉप पहन कर लज्जा का तर्पण करके. अपने को अति आधुनिक प्रगतिवादी बतलाने के भ्रम में बिना अपने अंतर्मन कि सहमती के अपना सर्वस्व शील पुरुष के आगे समर्पित करदेती है. पुरुष का वाकजाल रुपी अस्त्र कभी सफल नहीं हो सकता अगर लज्जा का कवच रक्षा के लिए हो .

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

जब से बाला मुख पर बने लज्जा [रूपी विहग]* के घोंसले की जगह चंचल हिरणों [चपलता भाव ]** ने ली है तब से मेरी दृष्टि भी हिरन स्वभावी हो गयी है. टिकी नहीं रहती, चपलता की फिसलन में फिसल जाती है.
इस चपलता ने मेरी विस्फारित नयनों की स्थिर साधना को भंग कर दिया है.

जब तक नीड़ था, उसमे लज्जा चुपचाप चहका करती थी. बाहर की चहल-पहल के बीच उसकी चहक [चख-चख] ध्यान आकर्षित करती थी. तमाम आँखें [चख-चख] उसकी चहक से खिंच कर उसे अपने-अपने नज़रियों से देखने में जुट जाती थीं. एकरसता ना आये इसलिये नज़रियों [दृष्टि] के कोणों को अदल-बदल करके भी उसे देखा जाता था.

लेकिन अब [बाला मुख पर] वैसी सज्जा नहीं रही और ना ही वैसी लाली ही बची है. सुन्दरता के नाम पर चपलता ने उछल-कूद मचा रखी है. चपलता रूपी मृग लजा जैसी प्रतिस्था पाने के लिये बिना मतलब ही दृष्टियों को रिझाने की कोशिश में लगे रहते हैं.


मित्र अरविन्द सौंदर्य पर लिखी कवितायें एक बिम्ब हैं उसे अर्थों में खोल-खोल कर समझ पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है.
मानस में जो चित्र आते हैं उनको पहले अर्थों में सोच पाना असंभव होता है.

उन चित्रों को ज्यों- का-त्यों रख देना मुझे सुहाता रहा है.

और वैसे भी इन चित्रों में जो अलंकार निहित हैं. उन्हें विधिवत रूप से कुछ अरसे बाद किसी अन्य ब्लॉग पर व्याख्यायित करने का सोचा है.

यहाँ मैं ’अलंकार’ का एक भिन्न अर्थ देता हूँ —

अलम अर्थात 'रोकना'
अलंकार अर्थात रोकने वाला, दृष्टि को कुछ देर ठहरा देने वाला.

जो कुछ देर के लिये रोके, अर्थ तक सहजता से पहुँचने ना दे.

शायद आप सहमत ना हों लेकिन अरविन्द जी मेरा इस ब्लॉग में कच्चा कार्य [rough work] हो रहा है. कभी कविता लिखना भी आ ही जाएगा, अभ्यासरत हूँ.

* रूपक अलंकार [श्लिष्ट परम्परित रूपक]
** व्यस्त रूपक अलंकार

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

वैसे तो अमित जी ने मेरे शब्दों को अर्थ दे ही दिया फिर भी मैं औपचारिकतावश शब्द-जाल में फंसे अर्थों को अलग किये देता हूँ. अमित जी की समीक्षा साहित्यिक और कवित्व के स्वाद वाली होती जा रही है. वाह अमित जी वाह.

kunwarji's ने कहा…

आहा.........

कुंवर जी,