गुरुवार, 28 जनवरी 2010

3.33"

तीन दशमलव तीन-तीन
इंचों की है मुस्कान छली।
छले गए चख दोनों मेरे
विनय-कथन हो गया बली।

बली हो गए शब्द सभी
अवरुद्ध हो गयी वाक् गली।
जिह्वा पर जल रहीं चिताएँ
शब्दों की, अब ख़ाक भली।

उर तक जाती अनल चिता की
स्मृतियों की जब पवन चली।
तीन तीन तैंतीस संचारी
भावों में मुस्कान खली।

शब्द ख़ाक में मिलकर भी
थे रिझा रहे निज सु'मन-कली।
खलबली मची जृम्भा आयी
सब ख़ाक वाक् से भाग चली॥

(बड़ी मुस्कान वालों को समर्पित)

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